Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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( શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [વર્ષ ૧૧ उसका अंत भी नहीं । यह उलझन द्रव्य, गुण और पर्यायोंको भलीभांति न समझनेसे ही होती है। उदाहरणके लिए बनना और बिगड़ना, अथवा जाना या आना अपेक्षा दृष्टिसे द्रव्यकी पर्यायें हैं। दूधं रूपसे बिगड़नेवाला द्रव्य दही रूपसे बनता है और दही रूपसे बिगड़नेवाला द्रव्य छाछ रूपमें-मक्खन रूपमें बन जाता है। द्रव्य अपने रूपमें अर्थात पुद्गल रूपमें न कभी बनता है न कभी बिगडता है। पर्याय-अवस्था विशेष-बनता भी है और बिगडता भी है। ठीक इसी तरह जोधपुरवालोंकी दृष्टिसे जिनदासका जाना होता है तो जयपुरवालों की दृष्टिसे आना होता है । जिनदास नामक जो द्रव्य है उसमें से न कुछ गया, और न कुछ आया ही। बनना बिगड़ना और जाना आना ये क्रियाके रूपान्तर मात्र हैं। .
आदि अन्तकी कल्पना " . यह कल्पना अवस्था विशेषको लक्ष्यमें रखकर ही की जाती है। अवस्था विशेष भी सूक्ष्म और स्थूल दो तरहके होते हैं । सूक्ष्म अवस्था विशेष प्रति समय होते हो जाते हैं। भगवान् उमा स्वातिजीके तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका-" उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्सूत्र समझना चाहिए । प्रतिक्षण नये पर्यायोंका उत्पादन और पूर्व पर्यायोंका व्यय-नाश होते हुए भी सद् द्रव्य ध्रुवतावाला होता है । जीव द्रव्य संसारमें रहते हुए संसारी अवस्था वाला होता है । और वही मुक्त होनेसे मुक्त अवस्था वाला हो जाता है। संसारी और मुक्त ये दोनों जीवद्रव्यकी स्थूल अवस्थाएं हैं। उनकी सत्ता भी उन २ कारणों पर निर्भर रहती है। संसारके कारणों के रहते हुए संसारी अवस्था रहती हैं और उन कारणों के मिट जाने पर उसका भी अंत हो जाता है।
- संसारी और मुक्त ये दोनों अवस्थाएं प्रवाहरूपसे अनादि अनंत होती हैं। जैन. दर्शन अपेक्षाप्रधान दृष्टिसे देखनेके लिए हमें प्रेरित करता है इसलिए परीक्षाप्रधान बुद्धिवालोंको वह अपनी ओर आकर्षित करता है। कालके प्रभावसे पड़ोसी दर्शनोंके प्रसंग एवं राजनैतिक और सामाजिक क्रान्तियोंके विषम वायु मण्डलमें उसके साहित्यका काफी अंग भंग हुआ है। फिर भी मौलिक तत्त्वोंकी विचारणामें वह अपनी सानी नहीं रखता।
कर्मबन्धन और मोक्ष-इन दोनों अवस्थाओंके अनादित्वकी आलोचना जैन दृष्टिसे इस लेख में की गई है। इससे संबंध रखनेवालो दूसरी आलोचनाएं-जैसी कि १ संसारका कुर्ता कौन ? कोका फलदाता कौन ? मुक्त जीव केवलज्ञानी संसारके आदि अंतको देख सकते हैं या नहीं ? अगर देख सकते हैं तो संसारको अनादिता कैसी ? नहीं देख सकते तो ज्ञानपूर्णता कैसी? केवलज्ञान पूर्ण या अपूर्ण? मुक्त जीव संसारमें वापस कर्म बन्धन करते हैं या नहीं ? आदि २ हैं। उनकी विचारणा आगामि अंकोंमें करने की भावना रखता है।
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