Book Title: Jain Satyaprakash 1936 08 SrNo 14
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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૫૪
बाह्य जे शरीर तेना पर तेनी असर देखाय छे अने इतर पण करी शके छे माटे । बीजाने अभ्यन्तर तप शाथी कहेवाय छे के अभ्यन्तर जे कर्मसमुदाय तेना पर तेनी विशेष असर देखाती होवाथी ते अभ्यन्तर तप कहेवाय छे। आ ते बाह्य अने अभ्यन्तर भेदना स्वरूपथी पण समजी सकाय तेम छे के बाह्य तप करतां अभ्यन्तर तपरूप जे वैयावृत्य ते अधिक छे । अभ्यन्तर तपनी साधना माटे जो के बाह्य तपनी जरूर छे तो पण अभ्यन्तर तपनी ज्यां उलटी हानि थती होय त्यां तो बाह्य तपने बाजु पर राखी अभ्यन्तर तपनो आदर करवो पड़े छे ।
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
वेयावच्च गुण तीर्थङ्कर नामकर्मना बंधननुं कारण छे, जेमां श्वेताम्बर संप्रदाय अने दिगम्बर संप्रदाय उभय संमत छे । श्वेताम्बर संप्रदायमां जुओ :
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वेयावच्चेण भंते जीवे किं जणयइ : यावच्चे तित्थयरनामगोयं कम्म निबंधेइ ।
[ वैयावृत्येन भदन्त जीवः किं जनयति : वैयावृत्येन तीर्थङ्कर नामगोत्रं कर्म निबध्नाति ] - श्री उत्तराध्ययनसूत्र
हे भगवन्, वेयावच्चथी जीव शुं करे छे ! गौतम, वेयावच्चथी जीव तीर्थङ्कर नामगोत्र कर्म बांधे छे ।
वृत्तिमां
दिगम्बर संप्रदायमा जुओ बोधप्राभृत
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ભાદ્રપદ
" वात्सल्यं भोजनं पानं पादमर्दनं शुद्ध तैलादिनाङ्गाभ्यञ्जनं तत्प्रक्षालनं चेत्यादिकं कर्म सर्व तीर्थङ्कर नामकर्मोपार्जनहेतुभृतं वैयावृत्त्यं कुरुत यूयंम् । "
उक्तं समन्तभद्रेण महामुनिना - व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ १॥
भावार्थ - वात्सल्य शब्द विवरण करतां टीकाकार जगावे छे के वात्सल्य केतां भोजन, पान, पादमर्दन, शुद्ध तेल वगैरेथी शरीरे चोळवु, तेने धोइ नाखवं, इत्यादि सकल क्रिया तीर्थङ्करनामकर्मना बन्धननी हेतभूत छे अने वेयावच्चरूप छे, तेने तमो करो ।
आ वावतमां समन्तभद्रनुं
प्रमाण
आपेल छे ।
वेयावच्च सिवाय बीजा गुणोनो समुदाय टकी कवानो नथी तेने माटे जुओ दिगम्बर शास्त्र भावप्राभृतवृत्ति ।
"वेयावच्चे विरहिउ वयनियरो वि ण ठाइ । सुक्कसरहो किह हंसर लुजेत उ धरणह जाइ ॥ १ ॥
भावार्थ जेम सुका सरोवरमा हंस रही शकतो नथी, तेम वेयावच्च रहित आत्मामां गुण समुदाय रही शकतो नथी ।
वेताम्बर सम्प्रदायमा जुओ अष्टकवृत्ति-वृद्धादिवैयावृत्यं हि सकलकल्याणवल्लरीकल्पकन्दकल्पं वर्तते । यदाह
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वेयावचं निच्च करेह संजमगुणे घरंताणं । सव्वं किर पडिवाइ वेयावच्चं अपडिवाइ ॥ १ ॥

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