Book Title: Jain Philosophy Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 4
________________ : ( २ ) जीमें ' रिलीजन ' | का न्युत्पत्यर्थ ' फिरसे बँधना ' ( बाइडिंग बैंक ) होता है और उससे वह रिलीजन (धर्म) मनुष्यको परतंत्रताके विचारकी ओर आकर्षित करता है । इतना ही नहीं, किन्तु वह हमको यह भी बतलाता है कि, उस परतंत्रतामें ही मनुष्योंके तथा दूसरे प्राणियोंके सुखका समावेश है । अर्थात् सान्तनीवको अनन्त ईश्वरके आधीन रहना, यही उसके लिये कल्याणकारी है । परन्तु जैनी इस. विषयमें कुछ जुदा ही विचार प्रगट करते हैं । वे कहते हैं कि, आनन्द परतंत्रतामें नहीं, किन्तु स्वतंत्रता ही है । सांसारिक जीवनमें परतंत्रता है। और वह (सांसारिकजीवन) धर्मका एक अंग है ! इसलिये यदि हम अंग्रेज़ी रिलीजिन शब्दका प्रयोग सांसारिक जीवनके लिये करें, तो किसी प्रकारसे कर सकते हैं ! परन्तु जो जीव'न इस वर्तमान जीवनकी अपेक्षा बहुत ही ऊंचा है और जिसमें आत्मा बंधन अथवा दुःखद् पापकर्मोंसे सर्वथा मुक्त है, उसमें रिलीजन 'शब्द घटित नहीं हो सकता है । क्योंकि आत्मा अपनी ऊंची से ऊंची स्थिति में जव कि वह स्वयं परमात्मा है मुक्त अथवा स्वतंत्र | हमारे जिनधर्मका यह रहस्य है । इसलिये उसमें सबसे पहला विचार यह उपस्थित होता है कि, . विश्व क्या है ? इस विश्वका आदि है कि नहीं ? वह नित्य ( अविनाशी ) है कि क्षणिक है ! यद्यपि इस विषयमें अनेक मतभेद हैं; परन्तु इस व्याख्यानमें मैं उनका विचार नहीं करूंगा । मैं तो केवल जैन फि ' लासोफीका सिद्धान्त इस विषयमें क्या है उसे आपके समक्ष निवे -Page Navigation
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