Book Title: Jain Philosophy
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 22
________________ ( २० ) घुल जानेके समान हो जाता है । जो कर्म पक्के इरादे (तोत्र अध्य1 वसायोंसे ) नहीं किये जाते हैं, उनका अतर पानीसे वो डालने से जो रज खिर जाती हैं उसीके समान होता है । ऐसी दशामें कितने ही किये हुए कमका जो असर पहले पड़ हुआ होता है, उसके सम्मुख दूसरे कर्म किये जावें, तो वह दूर होता जाता हैं । इसलिये कर्मविचारको भाग्यविचार नहीं कह सकते हैं । परन्तु हम कहा कर ते हैं कि, अपनी इच्छा के बिना हम सब एक जेलमें नहीं जाते हैं अथवा अपने यत्न किये विना हम उस स्थितिको नहीं पहुँच सकते हैं, हमारी यह वर्तमान स्थिति ( पर्याय ) अपने भूतकाल के कर्मों शब्दों और विचारोंका ही परिणाम है । अमुक एक मनुष्य मर गया हैं, इससे सारे जीव उस सम्पूर्ण स्थितिको प्राप्त करेंगे अथवा उस मनुष्य के मानने से सब तर जावेंगे ऐसे कथनको 'फेटालिजम की. थीअंरी ' ( प्रारब्धंवादका नियम ) कहते हैं । जो मनुष्य पवित्रतासे: तथा सद्गुणोंसे रहते हैं पर अमुक भावना ( घीअरी) अंगीकार नहीं करते हैं वे उस स्थितिको नहीं पहुंच सकते हैं और जो उस थी -- रीको अंगीकार देते हैं, वे उसी कारणसे सम्पूर्ण स्थितिको प्राप्त कर लेते हैं ऐसा जो कथन हैं सो भाग्यवाद है । जगत्तारक नामकी जो श्रद्धा है, उसका अर्थ उस ईश्वरीशक्ति अथवा तत्वका अनुकरण कर ना है जो कि अपने आपमें भी है । जब यह शक्ति पूर्ण रीतिसे विकसित होती है अर्थात् उत्तम विचाररूपी यज्ञकुंडमें लघुताका हवन हो जाता है, तब हम भी क्राइस्ट (परमात्मा) हो जाते हैं । हम भी स्वस्ति (क्रोस ) को धर्माचन्ह समझते हैं । प्रत्येक नीव नीची स्थि-तिमेंसे निकलकर ऊँची स्थितिमें जा सकता है, परन्तु वह तबतक उस. ·

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