Book Title: Jain Philosophy
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 19
________________ (१७) कभी कभी होती अवश्य हैं । और कभी यथार्थ भी होती है परन्तु हम उनार भरोसा नहीं रस सरते हैं। यथार्थ ज्ञान तो उसे कह सकते गिरे आत्माने बाहिरी किसी भी वस्तुकी सहायता लिये विना प्राप्त किया हो । मोक्ष जीवका अथवा मोक्ष जिसका बहुत निकट हो स, नया मानसिक नैतिक और आत्मिना पििनता जिसकी पूर्ण हो गई ले और उसी समय मिसने पूर्ण प्रायः सत्र कर्म सपा माले हों से भीवका ज्ञान गधा ज्ञान साहला सकता है। आता ना इस गितिको प्राप्त करता है, तब पर सब कुछ जानती देता है । अनि सर्मश और सर्वशी होता है। यह स्वयं सर्वशीपना विपन्ना देता है कि आत्मा आप आपको भी देखता है। मिस पशा आत्मा सन और अनन्त सुखमय लेता है, वह आसाली नीम उनी अगाया है। क्योंकि संस्कृतमें हम ये तीन व स्तुर बसते हैं अक्षय, असय, अक्षय । परन्तु पेशी अक्षय स्थिति पाले भागा हम वर्णन नहीं कर सकते हैं । कारण जब वर्णन करनेवाला अपनेशी अपूर्ण मानता है तब यह अनन्त दशायाले आत्माका सम्पूर्ण गति तिस प्रकार वर्णन कर सकता है इसलिये ऐसी स्थितियाले सारमाका हम जो वर्णन करते हैं, उसमें चाहे जितना अभिर कहा गया है परन्तु यह पूर्ण नहीं होता है। हम उसमेंकी गाने को देते हैं। अपने मनमें गितने विनार उत्पन्न होते हैं, जब हम उन्ही टीकवक वर्णन नहीं कर सकते हैं, तब आत्मा कि निगका वीर्य और शान अनन्त होता है उसका वर्णन कैसे कर सकते ! आत्मा और जगतकी स्थितिका मैनियोंने इसी सिद्धान्त (पॉइन्ट) में अम्यार किया है और इसीसे वे बहुत ही उसम तत्व निकालसके

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