Book Title: Jain Philosophy
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ क्या नहीं है ? । परन्तु अब मैं आपसे कहूँगा कि, ईश्वर क्या है ? इतना तो आपने समझ लिया कि, जड़ ( Matter ) की अपेक्षा । अर्थात् प्रकृतिकी अपेक्षा कोई दूसरा पदार्थ भी है । आप जानते हैं कि, अपना शरीर बहुतसे स्वाभात्रों और शक्तियोंको प्रगट करता है। ये स्वभाव साधारण जड़ पदार्थोमें नहीं मिलते हैं और यह दूसरा पदाथे जो इन स्वभावों और शक्तियों को प्रगट कर रहा है मरणके समय शरीरमेंसे विदा हो जाता है। हम नहीं जानते हैं कि, वह कहां जाता है। हां यह बात हम अच्छी तरहसे जानते हैं कि, जब वह शरीरमें होता है तब शरीरकी शक्तियां शरीरम, जब वह नहीं होता है, तब जैसी दिखती हैं, उसकी अपेक्षा जुदा प्रकारकी होती हैं। उस समय ही शरीर प्रकृतिकी कितनी ही शक्तियों के साथ समताम आ सकता है । वह दूसरा जो कुछ है, उसको हम बड़े से बड़ा तत्त्व समझते हैं और सर्व चेतन प्राणियोंमें वही तत्व है ऐसा हम मानते हैं । इस तत्वको जो प्रत्येक जीवमें सामान्य है हम देवतत्व कहते हैं । हममेंसे किसीमे वह तत्व जैसा कि जगत्के महापुरुषोंमें पूर्ण विकासभावको प्राप्त होता है वैसा विकसित नहीं हुआ है, और इसलिये उन महापुरुषोंको हम दैवी पुरुष कहते हैं । अर्थात् सर्व जीवोंमें लोकके अनुषंगसे रहनेवाले दैवीतत्वको देखते हुए जो एकत्र विचार उत्पन्न . होता है वह ईश्वर है । जड़ जगत्में और आध्यात्मिक जगत्में जो बहुत सी सामर्थ्य ( Energies) शक्तियां हैं उन शक्तियोंके संग्रहको प्रकृति कहते हैं, उसमेसे जड़ शक्तियों को तो हम जुदा करके एकत्र करते हैं। और आध्यात्मिक शक्तियोंकों एकत्र करके परमात्मा अथवा ईश्वर ऐसा नाम देते हैं।

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