Book Title: Jain Philosophy Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 7
________________ (५) र्शित करता है । विश्वकी ये सारी शक्तियां समूहरूपसे देखी जावें, तो कितनी ही खास खास नियमोंके आधीन हैं । यदि वे नियम नियत हैं-उनमें कुछ रदवदल नहीं हो सकती है, तो फिर लोग क्यों उनके पैर पड़ते हैं ! और क्यों इस शक्तिसमूहको देव अथवा ईश्वर मानते हैं। इसका उत्तर यह है कि इस विचारके प्रारंभमें बुरा करनेकी शक्तिका विचार हमेशासे लग रहा है। अर्थात् लोग समझ रहे हैं कि, ये शक्तियां हमारा अकल्याण कर सकती हैं, इसलिये इन्हें मानना चाहिये । जब हिन्दुस्थानमें पहले पहले रेल जारी हुई थी, तब अज्ञानी लोग यह नहीं समझ सके थे कि, वह क्या है ? जिन्होंने अपनी सारी जिन्दगीमें यह नहीं देखा था कि, गाड़ी अथवा रथ विना किसी बैल अथवा घोड़ा आदि प्राणीके भी चल सकते हैं, उ न्होंने समझा कि, इजिनमें कोई देव वा देवी जरूर है जो उसे चला ता है। उनमें सैकड़ों तो ऐसे थे, जो समझना तो ठीक ही है-रेलगाड़ीके पैर भी पड़ते थे। इस समय भी हिंदुस्थानके बहुतसे जंगली लोगोंमें यह विचार पहलेके समान प्रचलित है । इसलिये यह संभव हो सकता है कि, हमने अपनी आरंभकी स्थितिमें ऐसे किसी पुरुपकी धारणा की होगी और उसके पश्चात उस विचारमें होते होते यहां तक वृद्धि हुई होगी कि, हम अपने उन विचारोंको चित्राकृतिका स्वरूप देने लगे होंगे और इसके पश्चात् वह रूप दूसरोंको भी स्पष्ट रीतिसे समझमें आवे, ऐसे बनाने लगे होंगे। बहुत ही प्राचीन कालमें वर्षा नहीं थी, परन्तु वर्षाका एक देव था, गड़गड़ाहट नहीं थी परन्तु गड़गड़ाहटका एक देव था, और इस प्रकार इन प्राकृतिक दृश्यों को पुरुषत्व वा देवत्व प्राप्त होता था और उन शक्तियोंको लोग किसीPage Navigation
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