Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन संघों के इतिहास. साहित्य. सिद्धान्त और आचार की गवेषणा की गयी है। वैदिक ग्रन्थ महाभारत के उत्तंकोपाख्यान के अनुसार दिगम्बरजैनपरम्परा द्वापरयुग में (आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व) विद्यमान थी। विष्णुपुराण की स्वायंभुवमनुकथा उक्त परम्परा का अस्तित्व प्रथम स्वायंभुवमन्वन्तर में (आज से लगभग ढाई करोड़ वर्ष पहले) बतलाती है। बौद्ध पिटकसाहित्य में की गई निर्ग्रन्थों की चर्चाएँ प्रमाण देती हैं कि बुद्ध के समय (ईसा पूर्व छठी शती) में दिगम्बरजैनमत प्रचलित था। हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त नग्न जिनप्रतिमा आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व दिगम्बरजैनसंघ के अस्तित्व की सूचना देती है। लोहानीपुर (पटना, बिहार) में प्राप्त वैसी ही नग्न जिनप्रतिमा ३०० ई० पू० में दिगम्बरजैनसंघ का अस्तित्व सिद्ध करती है। अशोक के एक स्तम्भलेख में उल्लिखित 'निर्ग्रन्थ' शब्द भी ईसापूर्व तृतीय शती में उक्त परम्परा की मौजूदगी सूचित करता है। श्वेताम्बरसंघ का जन्म अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद (ईसापूर्व ४६५ में) निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से हुआ था। अर्धफालकसंघ ईसापूर्व चतुर्थ शती में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप अस्तित्व में आया था। आगे चलकर वह श्वेताम्बर और दिगम्बर संघों में विलीन हो गया । यापनीयसंघ की उत्पत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्वेताम्बरसंघ से हुई थी, और वह ईसा की १५वीं शती में विलुप्त हो गया। ईसा की पाँचवीं शती तक दिगम्बरजैनसंघ निर्ग्रन्थश्रमणसंघ के नाम से और श्वेताम्बरसंघ श्वेतपटश्रमणसंघ के नाम से प्रसिद्ध था। आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए थे और ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध तक विद्यमान रहे। ___कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में सवस्त्र-मुक्ति, स्त्रीमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यताओं का निषेध है। अतः ये सभी दिगम्बरजैनपरम्परा के ग्रन्थ हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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