Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ भूमिका इन दिनों जैन साहित्य के क्षेत्र में जो प्रगति हो रही है उसका नाता बहुत दूर का है। जैन समाज का प्रतीत एक गौरवपूर्ण प्रतीत रहा । संसार की जो मानव जातियों अपनी विमल संस्कृति के लिए श्राज तक प्रसिद्ध है। उनमं जन-जाति का भी एक खामा स्थान है। रोमन लोगों की विजय दुन्दुभी, यूनानियों की सहज सभ्यता का सरस संगीत, हिन्दुओं का गौरवगान, जैनियों की कल्याण-वाती धीर बान्द्रों की मर्म-वाणी याज भी इनिशाम के विद्याथिया के कर्ण कुदरों में गुज-गूंज उठनी है ! उम समय सुखशान्ति की चिर-प्यासी या मानवान्मा बमोठ-मोठे स्वम देयने लगती है।यद्यपि जागंसार श्राज से पहले धा वा अन्ज नहीं है तथापि संसारियों की सनाचिद्यानन्द की भूख और चिर शान्ति की प्यास अत्र भी चैमाही मधुर जिनियों के पुरातन साहित्य का स्वाध्याय कीलिए, हर जगह एक अनोखी शान्ति सलतीसी मिलती है। कहाना कुर हो, क्षेत्र कही हो, लेखक कोई हो वह साहित्य धारा कुछ ऐसी अनूठी गति से प्रवा. हित है कि उसकी लहर हमारी श्रान्मा को हलती है। टम साहित्य में श्रान्मासिद्धि के साधन मौजूद है, कल्याण की सीढ़ियों लगी हुई है और टमकै पृष्टी में निर्वाण' की मुहर लग जा- मेवा बदा प्रामाणिक बन गया है। जैन धर्म की यह दिव्य वाणी, केवल जन धर्म, समाज या जानि के लिए ही सीमित नहीं है वह तो समस्त संसार की एक अमूल्य निधि हो गई हैं। इसीलिए हम चाहे जनी हों, बौद्ध हो या श्रीर कोई हो, विध. कल्याण की यह शीतल छाया हमारी श्रात्मा को बड़ी शान्ति दे जाती है। इस 'जन-जगत के उज्यल-तारे में कुछ ऐसा ही भावना-चित्र चि. त्रित है । पुस्तक के एक गाध स्थलों ने तो हमें बहुत प्रभावित किया। इन कहानियों में पात्र अलग-अलग हैं, कथानक भी भिन्न भिन्न हैं; पर तत्य सब में एक ही है-ौर वह महान तत्व है कल्याण साधना का। श्राप देखेंगे कि सरल भाषा में. सरल ढंग मे, कुछ ऐसी सरल जीवनियाँ मनाई गई है जिन से मानवों की सहज-सरल श्रात्मा पूरा मैल खा जाती है और हम समझते हैं कि इन युग-युग की सन्देश-वाहिनी कहानियों की सार्थकता भी इसी में है। - गोपाल सिंह नेपाली (पुण्यभूमि-सम्पादक)

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 207