Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 5
________________ प्रवाना. काल दुनियामा बहुधा जनस्वभावतुं वलण संस्कृत अने मागधी भाषामा लखायेला कठीन शास्त्रीय विषयो तरफ न दोरातां स्वभाषामां लखायेला सरल विपयो तरफ दोरावा लाग्यु छ तेथी करीने दिवसे दिवसे शास्त्र संबंधी उच्च ज्ञान हीन, हीनतर थतुं जाय छे. ज्यांमुधी गुजराती भाषामा अनेक ग्रंथो बहार पड्या नहोता, त्यांसुधी उच्च तत्वज्ञान प्राप्त करवानी उमेद धरावनाराओ संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओनो अभ्यास करी ते द्वारा उच्च ज्ञान मेळवता हता पण तेया मनुष्यो संख्यामां थोडा अने कोइक ठेकाणे जोवामां आवता. ज्यारे गुजराति भाषामां कथारूपे, नाटकरूपे, के तत्वज्ञानरूपे अनेक ग्रंथो वहार पडया, त्यारे लोकोन शास्त्रीय कठीन भाषा तरफ दुर्लक्ष थयु अने तेथी ते द्वारा उच्च तत्वज्ञान मळतुं हतुं ते बंध थयु. तथी शान सवधी गूढ रहस्योने स्वभापामां वहार पाडवा जरूर जणाइ. वांचवानो शोख वधतो गयो तेम तेम भिन्न भिन्न विषयोना पुस्तको बहार पडता गया. पण तेमां धर्मर्नु स्वरूप समजाववाने योग्य ग्रंथो बहुज थोडा छे. तेथी जमानाने अनुसरती भाषामां वधारे पुस्तको वहार पडवानी आवश्यकता नणायाथी अमारा तथा बीजा सज्जनोना आग्रहथी मुनि महाराज श्री वृद्धिचंद्रजीना शिष्य शांतपुर्ति सुनिमहाराज श्री कपुरविजयजीए मध्यम तथा कनिष्ट पंक्तिना अभ्यासीयोने अल्प भी धर्म तत्वनो

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