Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 6
________________ ( ४ ) घोष थाय एवा हेतुथी जैन हितोपदेश नामना पुस्तकनी रचना सरल अने रसीली भाषामां करछे. जेनो पहेलो भाग अमारा तरफ - थी अगाउ प्रसिद्ध करवामां आव्योछे. ते पुस्तक विशेष प्रकारे जन प्रिय थइ पढयुं छे: जेना परिणामे, आ. वीजा तथा त्रीजा ' भागनुं पुस्तक अमारा वांचक वर्ग समक्ष मूकवा अमो भाग्यशाली थया छीए. आ जैन हितोपदेशनुं पुस्तक पोताना नाम प्रमाणे पोतानुं गांभीर्य महत्व अने बोधकत्व जणावे छे वळी आ पुस्तकनो क्रम ओवीतो सरलताथी गोठववामां आव्यो छे के माये उत्तम, मध्यम अने कनिष्ट ए वर्गना वांचक अधिकारीओ स्वस्व बुद्धि अनुसारे निःशंकपणे तेनो लाभ लइ शकशे ए निर्विवाद छे; सिद्धांत रूप समुद्रने पार उतारवा माटे नौका तुल्य आ ग्रंथ रत्ननुं एकजवार अवलोकन करवाथी तेनी खरी उपयोगीता सज्जनो सहजे समजी शकशे. श्री जैन हितोपदेश भाग २ जानी शरुआतमां मंगलाचरणरूपे सांप्रतकाळमां विचरता श्री सीमंधर जीननी स्तुति कठिण शब्दनी फुटनोट साथै आप्या वाद श्री गणेंद्र मुनि विरचित सुभाषित रत्नावळी ग्रंथमांथी धर्म नीति अने शुभ व्यवहारने उपयोगी जुदा जुदा ४५ विषयो उपर स्फुटपणे विवेचन कर्यु छे, उक्त विषयोनुं अत्र दिग्दर्शन करवा करता एकज वखत तेने वांची मनन करवानुं काम अमो aianiदनेज सोंपीए छीए. त्यार पछी सुमति अने चारित्र राजना सुखदायक संवादमां पतित चारित्र धारीने पंच महाव्रतम पुनः स्थिर करवा माटे करेला रसिक बोध नोवेलरूपे अपेल छे. पछी 'धर्मनी कुंची' ए विषयमां धर्मरत्नने लायक जीवना ३५ गुणोनुं प्रथम सामान्यथी अने पछी विशेषथी विवेचन आप्युं छे अने अंतमां परमात्म छत्रीसी अने अमृतवेलीनी सझाय आपवामां आवी छे,

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