Book Title: Jain Hitopadesh Part 2 and 3
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 12
________________ ( २ ) जि० ९ जि० १० जि० ११ प्रभु वात मुज मननी सहु, जाणोज छो जिनराज; स्थिर भाव जो तुमचो' लहुँ, तो मिले शिवपुर साथ जि० ८ प्रभु मिळे हुं स्थिरता लहुं, तुज विरह चंचळ भाव; एकवार जो तन्मय रमुं, तो करूँ अंचल स्वभाव. प्रभु अछो क्षेत्र विदेहमां, हुं रहुं भरत मझार; तोपण प्रभुना गुण विषे, राखुं स्वचेतन सार. जो क्षेत्र भेद टळे प्रभु, तो सरे सघळां काज; सन्मुख भाव अभेदता, करी वरुं आतमराज. पर पुंठ इहां जेहनी, एवडी जे छे स्वामः हाजर हजूरी ते मळे, नीपजे ते केटलो काम. इंद्र चंद्र नरेंद्रनो, पद न मागुं तिल मात्र; मागुं प्रभु सुज मनथकी, न वीसरो क्षण मात्र. ज्यां पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नवी करी शकुं निज रिद्ध; त्यां चरण शरण तुमारडो, एहिज मुज नवनिध'. म्हारी पूर्व विराधना', योगे पडयो ए भेद; 'पण वस्तु धर्म विचारतां, तुज मुज नहिं छे भेद. - प्रभु ध्यान रंग अभेदथी, करी आत्मभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवं स्वसंवेद जि० १२ जि० १३ जि० १४ जि० १५ १० जि० १६ १ तमारो- तमारी जेवो. २ मळे-प्राप्त थाय. ३ मोक्ष सहायी, अंते सखार. ४ भेदभाव रहित ५ स्वामी ६ रिद्धि. ७ निधि. ८ कसूर. ९ विरुद्ध भाव, विषय कपायादि. १० स्वरुप - आत्मभाव, आत्म दर्शन - साक्षात्कार,

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