Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 11
________________ अङ्क ११ ] अन्य स्थिर तारे अवश्य सूर्य से पृथक अपना प्रकाश रखते हैं और वे हैं भी सूर्य से बहुत बड़े बड़े । इसके अतिरिक्त जैसे अन्य सब ग्रह आदि चलते हुए देखकर भी पृथ्वीको चलायमान माननेमें श्रापको आपत्ति है, उसी प्रकार श्रौरोको प्रकाशमान देखकर चन्द्रमाको भी प्रकाशवाला माननेमें हमें आपत्ति है । ख़ैर इन बातों को छोड़कर उस शंका पर विचार कीजिये जो वास्तवमें कुछ fe शंका है। "जब सूर्य और चन्द्रमा के प्रकाश भिन्न गुणवाले हैं, एक गर्म, एक शीतल, एक नेत्रोंको पीड़ा देता है और दूसरा आनन्द, तब कैसे माना जाय कि दोनों प्रकाश सूर्यके ही हैं ?" इसका उत्तर एक उदाहरण द्वारा ही ठीक होगा । यह स्पष्ट है कि पृथ्वी परकी वस्तुएँ मनुष्य, शेत, पेड़, पत्ते आदि स्वयँ प्रकाशवाले नहीं हैं। अंधेरी रात्रिमें वे दिखलाई नहीं देते। किन्तु दिनमें सूर्य के प्रकाशसे प्रकाशित होकर वे हमें दिखलाई देते हैं। उनका जो प्रकाश हमारे नेत्रों में पहुँचता है, वह उनका अपना नहीं है किन्तु सूर्य का है । परन्तु क्या हरे हरे तौका, मनोहर फूल पत्तों का प्रकाश भी सूर्य के प्रकाशकी भाँति गर्म और नेत्रोंको पीड़ा देनेवाला है? या उससे नेत्रोंको शीतलता और श्रानन्द प्राप्त होता है ? यदि यंत्रों द्वारा परीक्षा की जाय तो इसमें भी गर्मी अवश्य मिलेगी । चन्द्रमा के हलके प्रकाश में चांदनी में भी जो गर्मी है वह भी नापी जा चुकी है। किन्तु इज दोनोंमें गर्मी इतनी थोड़ी है कि हम उसका बिना यन्त्र के अनुभव नहीं कर सकते । श्रतः इस गर्मी और पीड़ा आदिसे यह कहना असंभव है कि दोनों प्रकाश एक ही स्थानले उत्पन्न नहीं हुए थे । एक और अद्भुत आपत्ति भी इस २ भूभ्रमण सिद्धान्त और जैनधर्म । Jain Education International ३३३ सम्बन्ध में मीमांसा - लेखकने की है। वे कहते हैं कि "जब सूर्य चन्द्रमाकी अपेक्षा पृथ्वी से अधिक दूरी पर है, अर्थात् अधिक ऊंचे पर है तो उसका प्रकाश चन्द्रमाके ऊपरी भाग ही को प्रकाशित कर सकता है। और हम पृथ्वीवाली उसके नीचे के भाग हीको देख सकते हैं । इस कारण यह संभव नहीं कि चन्द्रमाका जो भाग हमें दिखलाई दे उस पर सूर्यका प्रकाश पड़ सके ।" ऐसी आपत्तियों का निराकरण बिना प्रत्यक्ष अनुभव के होना कठिन है । अतः एक अत्यन्त सरल उपाय बताया जाता है जिसके द्वारा आप स्वयं प्रत्यक्ष देख सकेंगे कि इस आपत्ति में भूल कहाँ पर है । मान लीजिये कि कमरे की छत से एक लैम्प करीब १० फुट ऊँचाई पर लटक रहा है । और कमरे की दीवारों पर तस्वीरें प्रायः ७ फुट ऊंचाई पर लगी हैं। प्रश्न यह है कि क्या पांच फुट ऊंचा मनुष्य उन तस्वीरोंको देख सकता है ? जिस न्याय का प्रयोग चन्द्रमाके सम्बन्धमें किया गया है, उसके अनुसार तो यह असंभव है; क्योंकि तस्वीरोंके ऊपरी भाग पर लैम्पका प्रकाश पड़ेगा और हम उनके निचले भागहीको देख सकते हैं। वहां लैम्पका प्रकाश कहांले आावे ? - किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण में न्याय की क्या आवश्यकता । नित्य प्रति हम ऐसी तस्वीरों को देखते ही हैं। तब भूल कहाँ है ? थोड़ा भी विचार करने पर ज्ञात होगा कि भूभ्रमण मीमांसा में यह मान लिया गया है कि चन्द्रमा सदैव ठीक सूर्यके नीचे रहता है । अर्थात् हमें दोनों सदा एक सीधर्मे दिखलाई देते हैं। श्रमावस्याके दिन सूर्य ग्रहण के समय के अतिरिक्त और किसी दिन तो ऐसा देखने में आया नहीं । और उस समय अवश्य ही हम चन्द्रमाके प्रकाशित भागको देखने में For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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