Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 31
________________ मेरी भावनाकी लोक-प्रियता । अङ्क ११ ] मेरी भावनाकी लोक-प्रियता । 'मेरी भावना' नामकी कविता सबसे पहले – सन् १६१६ में - जैनहितैषी में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद श्राराके सद्गत कुमार देवेन्द्रप्रसादजीने उसे पुस्तकाकार छुपाने की इजाज़त माँगी और 'भावना लहरी' नामक पुस्तकमें, जिसमें दो कविताएँ और भी थीं, सन् १६२७ में उसे प्रकाशित किया । सन् १६१८ के भादों मासमें, जब इस कविताका परि चय साहु जुगमंदरदासजी जैन रईस व आनरेरी मजिस्ट्रेस नजीबाबादको मिला, तब आपने इसे बहुत ही पसन्द किया और इसे 'सत्पुरुषोचित भावकी शिक्षिका बतलाया । साथ ही आपकी . यह राय हुई कि यह कविता एक छोटी सो सुन्दर पुस्तिकाके आकार में, जिसे हर शख़्स हर दम अपने पास रखकर नित्य पाठके काममें ला सके, बिलकुल अलग छपाई जाय; इसके साथमें आम पुस्तकोंके सदृश किसी प्रकारका कोई विज्ञापन न रहे और जैन श्रजैन सभीमें इसका लागतके दामों अथवा बिना मूल्य ही इस ढंगले प्रचार किया जाय कि जिससे यह सभी घरोंमें पहुँच जाय और वहाँ इसका सदुपयोग हो सके। आपने केवल अपनी यह राय ही कायम नहीं की, बल्कि उसे कार्य में परिणत करने का समारंभ भी कर दिया। श्रर्थात्, कविताकी पाँच हज़ार कापियाँ अभिलषित रूपमें छपाकर उन्हें अपनी ओरसे बिना मूल्य वितरण करने की परवानगी दी । तदनुसार सन् १६१६ में, श्रीयुत कुमार देवेंद्र प्रसाद तथा पं० नाथूरामजी प्रेमीकी कृपासे बम्बई के 'कर्णाटक प्रेस' में छपकर, यह कविता पहली बार एक स्वतंत्र पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित हुई। और } Jain Education International ३५३ आरा, सरलावा, बम्बई तथा नजीबाबाद इन चार प्रधान स्थानों से इसका वितरण प्रारंभ हुआ । इस संस्करण के प्रकाशित होते ही पुस्तककी माँग चारों ओरसे इतनी श्रई कि हम और देवेंद्रप्रसादजी आदि हाथमें थोड़ा सा हज़ार डेढ़ हज़ार कापियों का स्टॉक होनेकी वजहसे, उसके दशांशकी भी पूर्ति नहीं कर सके। कितने ही भाईयोंने सौ सौ, दो दो सौ और चार चार सौ तक कापियाँ माँगीं, मूल्यसे भेजने तथा लागतके दामका वी. पी. कर लेनेको लिखा, बहुत कुछ ज़रूरत ज़ाहिर की और किसी किसीने तार तक भी भेजा, परन्तु ऐसे भाइयोंको भी बीस बीस, दस दस या पाँच पाँच कापियोंसे अधिक हम नहीं भेज सके । पुस्तकोंकी प्रायः समाप्ति और कमी स्टाककी वजहसे इस प्रकार के संकोचको मालूम करके, श्रीयुत मुनि तिलक विजयजी (पंजाबी) ने, जिन्होंने इस पुस्तकको बहुत ज्यादा पसंद किया, अपनी आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटीकी श्रोरसे पाँच हज़ार कापियोंके उसी रंग रूपमें छापकर बिना मूल्य वितरण करने की मंजूरी दी। इधर श्रीश्रात्मानंद जैन ट्रैकृ सोसायटी अम्बाला शहर, ला० चिम्मनलाल दलीपसिंहजी कागजी देहली और ला० उम्मेदसिंह मुखद्दीलालजी अमृतलरने एक एक हजार कापियाँ अपनी अपनी ओर से बिना मूल्य बाँटनेके लिए छुपानेको लिखा । और हिन्दी ग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बईकी ओरसे भाई छगनमलजीने लिखा कि हम भी दो तीन हज़ार कापियाँ छुपाना चाहते हैं, क्योंकि लोग इस पुस्तकको मूल्यसे बहुत माँगते हैं । दुर्भाग्यले मुनि तिलकविजयजीवाली पाँच हज़ार कापियोंके छपनेमें बहुत ज्यादा विलम्ब For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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