Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ - ३४२ जैनहितैषी। [भाग १५ अपने निःस्वार्थ भावसे आनरेरी तौरपर प्रकारकी सहायता प्रदान करेंगे, उनके हम काम करनेवाले सेवकों को साधन-सामग्री. बहुत आभारी होंगे। की सहायता पहुँचाना तक भी अपना विशेष सूचना-इस नोटकी समाप्तिकर्तव्य नहीं समझते ! उनसे जब कभी के बाद हमें जयपुरके एक मित्र महाशवकोई बात दरियाफ्त की जाती है या की कृपासे सग कविके 'शान्तिनाथ अपने यहाँके शास्त्र-भण्डारोंमें किसी पराण' की एक प्रशस्ति प्राप्त हुई है, जो विषयको खोज करके सूचित करनेकी इस प्रकार हैप्रेरणा की जाती है, तो वे प्रायः चुप लगा जाते हैं और कोई उत्तर नहीं देते। इससे "मुनिचरणरजोभिः सर्वदा भूतधाभ्यां वे इतिहासके महत्वको कितना समझते प्रणतिसमयलग्नैः पावनीभूतमूर्द्धा । हैं, उन्हें अपने इतिहाससे कितना प्रेम है उपशमइव मूर्तः शुद्धसम्यत्क्वयुक्तः और उसकी कितनी अधिक फिकर तथा पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोभूत्।२४२ चिन्ता है, इन सब बातोंका सहृदय तनमपि तनुतां यः सर्वपर्वोपदासैपाठक सहजहीमे अनुभव कर सकते हैं। यदि जैनियों की यही लापर्वाहीकी स्तनुमनुपमधीः स्म प्रापयत्संचिनोति । हालत रही तो वे शीघ्र ही दिन दिन क्षीण सततमपि विभूतिं भूयसीमन्नदानहोनेवाला अपना रहा सहा इतिहास भी प्रभृतिभिरुरुपुण्यं कुंदशुभ्रं यशश्च ॥२४३॥ खो बैठेगे और तब उन्हें इस युगमें भक्तिं परामविरतं समपक्षपाता. संसारमें अपना अस्तित्व बनाये रखना मातन्वती मुनिनिकायचतुष्टयेऽपि । भी कठिन हो जायगा। इसलिए जैनियों. वेरोतिर्षि को शीघ्र ही सावधान होनेकी जरूरत सम्यत्क्वशुद्धिरिव मूर्तिमतीपराऽभूत्॥२४४ . . है। यदि वे इस वक्त भी चेत जायें और ऐतिहासिक क्षेत्रमें उतरकर पुरानी पुत्रस्तयोरसग इत्यवदातकीयोबातोकी खोज करने करानेकी तरफ लग रासीन्मनीषिनिवह प्रमुखस्य शिष्यः । जायँ, इतिहासका एक जुदा ही विभाग चंद्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनंद्यास्थापित करके नियमानुसार उसका काम चार्यस्य शब्द समयाणवपारगस्य ॥२४५॥ चलावें तो अब भी उनके पास इतनी तस्याभवदव्यजनस्य सेव्यः सामग्री मौजूद है कि वे उसके आधार सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । पर अपना बहुत कुछ सुश्रृंखलित और क्रमबद्ध इतिहास तैयार कर सकते। ख्याताऽपि शोयोत्परलोकभीरु और उसके द्वारा फिर अपने को ही नहीं र्द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ॥२४॥ बल्कि देश भर को लाभ पहुँचा सकते हैं। व्याख्यानशीलत्वमवेक्ष्य तस्य प्राशा है, सहृदय पाठक हमारी इस श्रद्धां पुराणेषु च पुण्यबुद्धेः। बार बार की पुकार पर अब जरूर ध्यान औचित्यहीनोऽपि गुरौ निबंधे देंगे, इसीसे प्रसंग पाकर हमें इतना तस्मिन्नहासीदखगः प्रबंधम् ॥२४॥ लिखने की जरूरत पड़ी है। जो भाई ऐतिहासिक क्षेत्रमें अवतीर्ण होकर हमारा चरितं विरचय्य सन्मतीयं. हाथ बटावेंगे अथवा हमें किसी सदलंकारविचित्र वृत्तवंधम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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