Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ अङ्क ११ ] पुरानी बातोंकी खोज। ३४१ उस संशोधित प्रतिपरसे उतारी गई हों असग कविका कोई दूसरा ग्रन्थ मिले तो उनमें पिटर्सन साहबकी रिपोर्टवाली उस ग्रन्थकी प्रशस्तिको प्रकाशित करावे। प्रशस्ति ही पाई जाती हो। आरा और और जिन्हें ऊपर दी हुई जानने योग्य बम्बईकी प्रतियों में ग्रन्थका विशेषण बातों से किसी की भी बाबत कुछ मालूम अन्तिम संधिमे, 'महापुराणोपनिषद्' भी हो वे उसे सूचित करें। जब तक ऐसा दिया है.परन्त वह उस प्रतिमें नहीं पाया नहीं होगा तब तक पूरा अनुसन्धान जाता जिस परसे पिटर्सन साहबने होना कठिन है। प्रशस्ति उतारी है। सम्भव है कि यह इस प्रकारके प्रसङ्गोसे पाठक स्वयं भी ग्रन्थकर्ता द्वारा संशोधनका ही परि- समझ सकते हैं कि जैनियों के लिए ऐतिणाम हो। हासिक क्षेत्रमें काम करनेकी, सम्पूर्ण कुछ भी हो, हमारी राय में इन विभिन्न ग्रन्थादिकोंकी जाँच करके उनसे ऐति. प्रशस्तियोंका कारण लेखकोंकी कुछ गड़. हासिक कर्तृत्व खोज निकालनेकी कितनी बड़ी ज़रूर है, और उसको मालूम करने- अधिक जरूरत है। परन्तु हमें दुःखके के लिए विद्वानोंके प्राचीन प्रतियोंके साथ लिखना पड़ता है कि जैनियों में टटोलनेकी जरूरत है। साथ ही, उन्हें ऐतिहासिक प्रेमका प्रायः बिलकुल ही मौद्गल्य पर्वत, वरला नगरी, श्रीनाथ प्रभाव पाया जाता है। कितनी ही बार राजा और असगके बनाये हुए दूसरे हम प्रेरणा करते करते और चेतावनी ग्रन्थोंका पता लगाना होगा और इस देते देते थक गये, परन्तु किसी भी भाईके बातकी खोज करनी होगी कि भावकीर्ति कानपर अभी जूं तक नहीं रगी । वे मुनि, नागनन्दी प्राचार्य और आर्यनन्दी* अपनेको प्राचीनता और पूर्वजोंका भक्त गुरुका समयादिपूर्वक विशेष परिचय कहते जरूर हैं, लेकिन प्राचीनता और क्या है, जिससे दोनों प्रशस्तियोंके सामं- पूर्वजोकी भक्तिका सचा भाव उनमें प्रायः जस्यकी जाँच हो सके। ऐसा होने पर जरा भी दृष्टिगोचर नहीं होता। उन्हें सब गुलझड़ी खुल जायगी और इन अपने पूर्वजोंके नामों तककी खबर नहीं प्रशस्तियोंके सम्बन्धमें यथार्थ वस्तुस्थिति और न यह मालूम है कि वे किस सन् बहुत कुछ सामने आ जायगी। इसके सम्वत्में हुए हैं और उन्होंने क्या क्या लिए हमारे जैनी भाइयोंको चाहिए कि काम किये हैं । मालूम करना शायद वे वे अपने अपने यहाँके शास्त्रभाण्डारोंको चाहते भी नहीं-यही वजह है कि वे टटोलें और जहाँ कहीं उक्त वर्धमान अपने इतिहासकी ओर बिलकुल ही पीठ चरित्रकी प्रशस्तिमें कोई विशेषता पाई दिये हुए हैं और सिर्फ दो एक विद्वान् जाय, उस विशेषताको और यदि कहीं ही, सो भी अपनी रुचिसे और टूटे - हालों, ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ काम • आयनन्दी नामके एक प्राचार्य धवला और जय करते आए नजर आ रहे है। साई धवला टीकाओंके कर्ता श्रीवीरसेन प्राचार्य के गुरु थे और आर तथा पारसी आदि जातियाँ इतिहासके वे विक्रमकी हवीं शताब्दीके मध्यकालीन विद्वान् है । परन्तु असगका समय भारा आदिकी प्रशस्तियोंसे १० वों शताब्दी तु पीछे कितना अधिक खर्च कर रही हैं पाया जाता है, इसलिए जिन आर्यनन्दी गुरुको प्रेरणासे और कितनी भारी भारी तनख्वाहे देकर उन्होंने वर्धमान चरितकी रचना की है, वे उस नामके कोई विद्वानोंसे काम कराती हैं, परन्तु वहाँ दूसरे ही आचार्य होने चाहिएँ। पर अफसोस है कि हमारे जैनी भाई २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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