Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ अङ्क ११] पुरानी बातोंकी खोज। ली जायँ-खासकर ऐसी सूरतमें जब कि निकलती है कि वह परिचय उस वक्त वे एक ही ग्रन्थकी दो प्रतियों में पाई लिखा गया है जबकि आठ ग्रन्थ (कौन जाती हैं। परन्तु अब प्रश्न यह होता है कौन, यह कुछ पता नहीं ) बन चुके थे कि एक ही ग्रन्थकी दो विभिन्न प्रशस्तियाँ और कवि महाशय वरला नगरीको होने की वजह क्या है । समाज के विद्वानों छोड़कर किसी दूसरे स्थानको जानेके को हल करने का यत्न करना चाहिए लिये प्रस्तुत थे अथवा जा चुके थे। और और इस बातको खोज निकालना चाहिए उन्होंने अपनी याददाश्तके तौर पर इन कि ग्रन्थ की प्रशस्तिके सम्बन्धमें यथार्थ पद्योंको कहीं लिख रक्खा था, जिन्हें वस्तुस्थिति क्या है। यद्यपि इस विषय- बादको किसी तरह पर प्रशस्तिका यह का हम अभीतक कोई ठीक निर्णय नहीं रूप प्राप्त हुआ है। अन्यथा, वर्धमानकर सके, तो भी इन प्रशस्तियों पर विचार चरित्रकी समाप्तिके बाद कविका प्रशस्ति करते हुए हमारे नोटिस तथा ध्यानमें जो रूपसे अपना केवल इतना ही और इसी जो बातें आई हैं, उन्हें हम विचारकोंके प्रकारका परिचय देना बहुत ही कम उपयोगार्थ सूचना रूपसे नीचे देते हैं- संभव जान पड़ता है। ऐसी हालतमें यह १-पिटर्सन साहबकी रिपोर्ट में प्रका- बात कुछ जीको नहीं लगती कि एक कवि शित प्रशस्ति प्रायः उसी ढङ्गकी है जिस अपने विद्याभ्यासका तो संवत् दे, परन्तु . ढङ्गकी प्रशस्तियाँ धर्मशर्माभ्युदय, चन्द्र- जिस ग्रन्थकी प्रशस्ति लिख रहा हो, प्रभ और पार्श्वनाथचरित (वादिराजकृत) उसकी समाप्तिके संवत्का ज़िकर तक जैसे महाकाव्य ग्रन्थों में पाई जाती हैं। न करे और न जिस व्यक्तिकी खास अर्थात् , जिस प्रकार इन काव्य ग्रन्थों में प्रेरणासे वह ग्रन्थ लिखा गया हो उसका अन्तिम सर्ग (सन्धि) के बाद जुदा नम्बर ही कोई नामोल्लेख करे । यदि कवि डालकर प्रशस्तिके पद्य दिये गये हैं, उसी महाशयका पाठ ग्रन्थों के निर्माणके बाद प्रकार यहाँ भी भन्तिम सर्गके बाद जुदा भी और अधिक समय तक उसी नगरीमें नम्बरोंके साथ वे पद्य पाये जाते हैं। रहना होता, तो उस अर्से में उनके द्वारा साथ ही, अन्तिम सन्धिसे पहले के पद्यों और भी नये ग्रंथोंके रचे जाने की संभामें देवोंका पंचम कल्याणक करके अपने वना थी और इसलिये वे कभी इस अपने स्थानको जानेका जो आशय है, वह बातको न लिखते कि वरला नगरीमें भी इन ग्रन्थों में परस्पर समान है। इससे उन्होंने आठ ग्रन्थोकी रचना की है। यह प्रशस्ति ग्रन्थके साथ बहुत कुछ और यदि ऐसा लिखना ही होता तो वे सुसम्बद्ध और क्रमबद्ध मालूम होती है। उसके साथ उस समयका भी ज़रूर २-भाग और बम्बई की प्रतियों- उल्लेख करते जिस समब तक उन्होंने उक्त में अन्तिम सन्धिके पहले जो चार पद्य ग्रन्थाष्टककी रचना की थी। बिना ऐसा पाये जाते हैं, उनमें पहले दो पद्य तो किये और बिना उस नगरीको छोड़कर प्रन्थकी समाप्ति तथा फल के सूचक किसी दूसरी जगह गये या जानेका हैं। शेष दो पद्यों में ग्रन्थकर्ताने अपने निश्चय हुए उक्त प्रकारके लिखनेकी ओर विद्या पढ़ने और वरला नगरी में बुद्धिमानोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। रहकर ग्रन्थाष्टककी रचना करने का जो ३-ग्रन्थों की प्राचीन तथा अर्वाचीन परिचय दिया है, उससे ऐसी ध्वनि प्रतियोंके अवलोकन करनेसे बहुधा यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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