Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 25
________________ अङ्क ११ ] भूमिके ऊपर उसकी दृष्टि जहां तक जाती है वह सब सम, चपटी हो ज्ञात होती है । भास्कराचार्य कहते हैं कि पृथ्वी चपटी कदापि नहीं है । इदानीं भूगोलस्य समतां निराकुर्वन्नाह यदि समा मुकुरोदर सन्निभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः । उपरि दूर गतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरैरमरैरिव नेक्ष्यते ॥ ११ ॥ सि० शि० भुवनकोश: यदि भूमि दर्पणकी भाँति सम या चपटी है तो सूर्य पृथ्वी के ऊपर बहूत दूरी पर भ्रमण करता हुआ जैसे देवताओंको दिखता है, वैसे ही मनुष्यों को क्यों नहीं दिखलाई देता ? ये देवता सुमेरु पर रहते हुए माने गए हैं। यथा वसन्ति मेरौ सुरसिद्ध सङ्घाः और्वे च सर्वे नरकाः सदैत्या ||१९|| सि० शि० भुवनकोश: धुनिक भूगोल और भारतवर्ष के प्राचीन ज्योतिषी । और सुमेरु पृथ्वीके उत्तरी ध्रुव पर स्थित बतलाया गया हैलङ्काकुमध्ये यम कोटिरस्याः प्राक् पश्चिमे रोमकपत्तनं च । अधः स्ततः सिद्ध पुरं सुमेरु: सौम्येऽथ याम्ये वडवानलश्च ॥१७॥ सि० शि० भुवनकोश: इन उत्तरी ध्रुववासी देवताओंको सूर्य किस प्रकार घूमता हुआ दिखलाई देता है, इस विषय कहते हैं कि. निरक्षदेशे क्षिति मण्डलोपगौ ध्रुवौ नरः पश्यति दक्षिणोत्तरौ । तदाश्रितं खे जल यन्त्रवत्तथा भ्रमद्भचक्रं निज मस्तकोपरि ||४०|| सि० शि० भुवनकोश: "निरक्षदेश में मनुष्य दक्षिण और Jain Education International ३४७ उत्तर ध्रुवोंको क्षितिजवृत्त में लगा देखता है । और ध्रुवालक्क ( देवता और दैत्य ) भचक्रको अपने सिरके ऊपर जलयंत्र ( श्ररहट ) की भाँति भ्रमण करता हुश्रा देखते हैं । यदि पृथ्वी गोल है तो उसके नीचे की श्रर रहनेवाले मनुष्यों का सिर नीचेको और पैर ऊपरको रहते होंगे। इस प्रकार अधोमुख रहने से उन्हें बड़ा कष्ट होता होगा । इसका उत्तर यो दिया गया हैसर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरिस्थितम् । मन्यन्ते खेयतोगोलस्तस्य कोर्ध्वं कवाप्यधः ॥ ५३ ॥ सू० स०अ० १२ पृथ्वी के गोल होने से सर्वत्र अपने अपने स्थानको ऊपर स्थित हुआ समझते हैं । शून्यमध्यस्थित गोलमें नीचा कहाँ है ? और ऊँचा कहा है ? यो यत्र तिष्ठत्यवनी तलस्था मात्मानमस्या उपरिस्थितं च । स मन्यतेऽतः कु चतुर्थ संस्था मिथच ये तिर्यगिवामनन्ति ||१९|| अधः शिरस्का: कुदलान्तरस्था श्छाया मनुष्या इव नीरतीरे । अनाकुलास्तिर्यगधः स्थिताश्च तिष्ठन्ति ते तत्र वयं यथात्र ||२०|| सि० शि० भुवनकोश: जो मनुष्य जहाँ रहता है, वह पृथ्वीको अपने नीचे मानता है और अपनेको उसके ऊपर मानता है । और जो लोग पृथ्वीके चौथे भाग ( अर्थात् ६० अंश ) पर रहते हैं वे परस्परमें अपनेको तिरछा मानते हैं । और अपनेसे ठीक नीचे ( अर्थात् १८० अंश पर ) रहनेवालों को मानो सिर नोचा और पैर ऊंचा हो गया For Personal & Private Use Only * www.jainelibrary.org

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