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जैनहितैषी।
[भाग १५
कृत्वा" इत्यादि पद्य नं. १०१ के बाद * अपने कृश ( दुबले पतले तथा कोमल) ग्रंथकी अन्तिम संधि इस प्रकार दी है- शरीरको और भी कृश किया था, हमेशा . "इत्यसगकृते श्रीवर्धमानचरिते महा. अन्नदानादिकके द्वारा बहुत कुछ पुण्य काव्ये भगवनिर्वाणगमनो नामाष्टादशः तथा निर्मल यशका संचय किया करते थे सर्गः ॥१८॥"
और उनकी स्त्री (असगकी माता) पिटर्सन साहबने जिस प्रति परसे
वेरत्ति भी उन्हींके जैसी धर्मपरायणा, इस प्रशस्तिको उतारा है, वह तीन सौ यशस्विनी तथा भक्तिमती थी। वर्षकी लिस्त्री हुई है। वह प्रति किसी इस प्रशस्तिका दूसरी प्रशस्तिके साथ समय हर्षकीर्ति मुनिकी थी और संभ.
यद्यपि कोई मेल नहीं है, परन्तु जहाँ
तक हम देखते हैं, विरोध भी कुछ वतः उन्हीकी लिखी हुई जान पड़ती है; क्योंकि ग्रन्थकी समाप्तिके बाद उसमें पाया नहीं जाता। यह कहा जा सकता ग्रन्थके स्वामित्वादि विषयकी सूचना इस
है कि पहली प्रशस्तिसे असगके गुरु प्रकारसे लगी हुई है
_ 'भावकीर्ति 'मालूम होते हैं और यहाँ
उन्होंने साफ़ तौरसे अपनेको 'नाग. - "संवत् १६७९ वर्षे आश्विनमासे
नंद्याचार्य का शिष्य लिखा है, यही नवमीदिने सोमवासरे श्रीमूलसंघे सर. विरोध है और इसलिये दोनोमेसे किसी स्वंतीगच्छे बलात्कारगणे नंद्याम्नाये भट्टा- एकको ही ठीक कहना होगा। परन्तु इस रक श्रीप्रभाचन्द्र धर्मचन्द्र ललितकीर्ति- प्रकारके विरोधको विरोध नहीं कहते । चन्द्रकीर्त्यादीनां पदे श्रीमद्देवेन्द्र कीर्ति- अथवा यह कोई ऐसा विरोध नहीं है स्तत्प्रियांतेवासिनो मन्दीकृतमिथ्यावादिनो जिससे दोनों का एकत्रीकरण न हो सके। हर्षकीर्तिनानो मुनेरिदं पुस्तकं चिरं एक मनुष्यके अनेक गुरु हो सकते हैं स्थेयात् ॥"
और अक्सर हुआ करते हैं। वह उनमेसे, पिटर्सन साहबकी इस प्रशस्तिसे
यथावश्यकता, चाहे जिसका उल्लेख कर
सकता है। भावकीर्तिसे असगने विद्या मालूम होता है कि असगके पिताका
पढ़ी थी । कौन सी. विद्या, यह कुछ नाम 'पटुमति' और माताका नाम
मालूम नहीं। परतु वह विद्या कोई हो, 'धेरत्ति' था । वे शब्दसमयार्णवके
असग उस विषय में उनके शिष्य ज़रूर थे पारगामी 'नागनन्दी' प्राचार्य के शिष्य थे
और नागनंद्याचार्यके शिष्य उन्हें किसी और उन्होंने 'आर्यनन्दी' गुरुकी प्रेरणासे
दूसरे विषय में समझना चाहिए । वे इसी इस ग्रन्थकी रचना की है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उनके पिता
(पिछली) प्रशस्ति में 'आर्यनंदी' को भी
अपना गुरु लिखते हैं। मालूम नहीं, यह पटुमति बहुत ही शांत स्वभावके धर्मात्मा,
लिखना उनका किस दृष्टिसे है-पूज्य या शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, बुद्धिमान् और महती विभूतिके खामी एक प्रसिद्ध श्रावक थे।
बड़े होने की दृष्टिसे अथवा उनसे भी उन्होंने संम्पूर्ण पोंमें उपवास करके
उन्होंने कुछ सीखा था। गरज़ यह कि
दोनों प्रशस्तियों में परस्पर ऐसा कोई • बम्बईकी प्रतिमें इसी पद्य नं० १०१ के बादसे
विरोध नहीं पाया जाता जिससे वे, बिना उसके अन्तिम भागका प्रारंभ हुआ है, ऐसा अनुवाद परसे किस
किसी विशेष अनुसंधानके, 'असग' नामपाया जाता है।
के दो विभिन्न व्यक्तियोंकी वाचक समझ
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