Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Author(s): Alpana Agrawal
Publisher: Ilahabad University

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Page 144
________________ সদয় ছােয় दर्शन की समगता - - - - जैनमात मैं “दान का स्वरूप : जैन दर्शन में दर्शन शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में किया गया है। पाखा दान मोह-कर्म के उपनाम, क्षाय या योपशम रूप अन्तरंग कारण से होने वाले तत्वों के अर्थ में श्रद्धा करने को सम्यग्दर्शन करते हैं।' अकलंक देव और पूज्यपाद दोनों के मतों से तत्वायं में श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । यो विषय दर्शन पद के स्थान पर "सम्यक्त्व पद का प्रयोग करते हैं। उनके मत से सम्यक्त्व प्रदा, दर्शन और तत्वधि, सभी समानार्थक शब्द है। किन्तु "म" की इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि "दर्शन' का शानमीमातीय महत्व क्या है' या भान-प्रकिया मैं *दर्शन* की स्थिति क्या है' यद्यपि जैनों के अभिप्राय के अनुसार *दर्शन*ज्ञान-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग है। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि "दर्शन पद का प्रयोग जैन आचायों ने सदैव सम्यक पद के साथ ही किया है। परन्ता यह विघ्य है कि दर्शन के साथ सम्यक पद के प्रयोग की क्या सार्थकता है' सम्या पद के प्रयोग का जो औचित्य जैन दानिकों ने दिया है वह "दर्शन को ज्ञानमीमातीय महत्व प्रदान करता है, क्योंकि पदार्थों में यथाक्षानमूलक प्रदा बताने के लिये ही दर्शन के पूर्व "सम्यक पद का प्रयोग किया गया है। इसते "दर्शन के अर्थ में स्पष्टता आती है क्योंकि इससे दर्शन का अर्थ अन्यादा न होकर तत्व के वास्तविक स्वरूप के ताकि विश्लेषण का प्रश्न उपस्थित होता है। अकलंक के मत में सम्पक पद का प्रयोग "इष्टा में होता है। सम्पद को "तत्व" अर्थ में भी लिया जा सकता है। यहाँ "तत्व" का अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही चानना । आचार्य इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं कि यदि "तत्व- पद का प्रयोग न किया जाये तो यह समस्या उत्पन्न हो सकती है कि किस प्रकार की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जायेगा' क्योंकि

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