Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Author(s): Alpana Agrawal
Publisher: Ilahabad University

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ सिद्ध किया जाता है। वह उत्तरवती ज्ञान जो अपने विषय के लिये विपरीत तथ्य रखता है पूर्वभम को गलत सिद्ध करता है तो यह कहा जा सकता है कि सब उत्तरवर्ती ज्ञान सभी पूर्ववर्ती ज्ञान की भ्रमात्मक विशेषताओं को सिद्ध करते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि सब उत्तरवती ज्ञान पूर्ववती ज्ञान की असत्थता सिद्ध करते हैं, किन्तु एक उत्तरवती प्रत्यक्षीकरण जो पूर्ववती प्रत्यक्षीकरण का बाधक है पूर्ववती ज्ञान के भ्रमात्मक स्वरूप को सिद्ध करता है। प्रश्न है कि यह बाधाक क्या है ? यदि बाधाक से तात्पर्य मात्र अन्यत्व या भिन्नता है तो एक उत्तरवती असत्य ज्ञान को पूर्ववर्ती भ्रम के भ्रमात्मक स्वरूप को अवश्य सिद्ध करना पड़ेगा क्योंकि उत्तरवर्ती असत्य ज्ञान पूर्वभ्रम अनिवार्यतः भिन्न है। एक उत्तरवती भ्रम बाधक और पूर्वभ्रम को असत्य सिद्ध करने वाला नहीं कहा जा सकता । पुनः यदि बाधक से तात्पर्य हैं 'निराकरण स्थानान्तरण या पृथक्करण तो घड़ा का उत्तरवती प्रत्यक्षीकरण कपड़े के पूर्ववर्ती प्रत्यक्षीकरण के विरुद्ध कहा जाना चाहिये 128 प्रामाकरों के उपर्युक्त विचारों का जैन इस भाति उत्तर देते हैं। प्रश्न उठता है - एक भ्रमात्मक प्रत्यक्षा में क्या वैपरीत्य होता है 2 जैन कहते हैं कि वैपरीत्य वस्तु जैसी है उसके प्रत्यक्षीकरण से भिन्न एक प्रत्यक्षीकरण में होता है। एक सीप चादी की तरह कुछ चीज है पुनः कुछ ऐसी वस्तु है जो इससे भिन्न है। भ्रम में सीप एक सीप के रूप में प्रत्यक्ष नहीं होती वरन् एक भिन्न तरीके में प्रत्यक्षी होती है - रजत के रूप में प्रत्यक्ष होती है 129 प्रश्न उठता है पैसे, 'किस प्रत्यक्षीकरण में भ्रम का विषय वास्तविक विषय से विपरीत प्रतीत होता है १ जैन इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं एक उत्तरवती ज्ञान जो भ्रमात्मक प्रत्यक्ष को इसके निराकरण द्वारा बाधित करता है स्पष्ट करता है कि पूर्ववती प्रत्यक्षीकरण भम था । 'निराकरण का यहा अभिप्राय पृथ्वंस नहीं है सुधार है। यह जानना है कि जिसे हमने पहले रजत के रूप में प्रत्यक्षीकृत किया वह वस्तुत: रजत नहीं था। इस प्रकार निराकरण भ्रम के विषय की असत्यता के ज्ञान में होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183