Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Author(s): Alpana Agrawal
Publisher: Ilahabad University

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Page 162
________________ JAJU बाह्य सामग्री की दोषपूर्णता ज्ञानावरणों की उत्पत्ति का निमित्त मात्र ही होती है । वस्तुतः अयथार्थ या भ्रात ज्ञान की उत्पत्ति तो प्रमाता के ज्ञानावरणजन्य मोह या मढ़ता के कारण हति होती है। सभी दोष प्रमाता को मोहाच्छन्न कर देते हैं अथवा कहा जाये आत्मा की मोहावस्था के कारण ही सक्रिय हो सकते हैं । अत: जैनदर्शन के मत में भ्राति में मुख्य कारण आत्मा की मोह ही है, बाकी दोष निमित्तमात्र होते हैं। वस्तु यथार्थ है, इन्द्रिया दोषरति हैं फिर जो भ्रम होता है वह प्रमाता का ही दोष है। यदि साधन और विषय में दोष है तो भी वह आत्मा की मोहावस्था के कारण ही भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं। अत: जैनदृष्टि से सभी दोष आत्मदोष की सहायता से ही भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं ।16 जैनदार्शनिक मिथ्याज्ञान को विभाव ज्ञान की संज्ञा भी देते हैं। मति, वत और अवधि इन तीन ज्ञानों का अज्ञान भी माना गया है ।17 अज्ञान की अवस्था में ये कुमति, कुश्त और विभंग ज्ञान कहे जाते हैं |18 अभिप्राय है कि मति, श्रुत्त और अवधि ज्ञान सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी। 19 यहा प्रश्न उठता है कि जिस भाति सम्यग्दृष्टि मति, भुत और अवधि से सपादि को जानता है उसी तरह से मिथ्या दृष्टि भी। अतः ज्ञानों में मिथ्यादर्शन से क्या भ्राति हुई १ 2. अज्ञान के दो प्रकार यहाँ ज्ञान और अज्ञान के विषय में जैनों का अपना विशिष्ट दृष्टिकोण सामने आता है। ज्ञान और अज्ञान का यहाँ दो दृष्टियों से 'विवेचन किया गया है - आध्यात्मिक दृष्टि और लौकिक दृष्टि । आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार सम्यग्दृष्टि मनुष्य के सभी ज्ञान, ज्ञान ही हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि व्यक्ति का सभी ज्ञान अज्ञान ही है। उमास्वाति के मत में वास्तविक और अवास्तविक का अंतर न जानने से यदृच्छोपलब्धि अथवा विचारशून्य

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