Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Author(s): Alpana Agrawal
Publisher: Ilahabad University

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Page 159
________________ अष्टम अध्याय मिथ्यात्व-सिद्धान्त 1. अयथार्थ ज्ञान प्रमाण के साथ अप्रमाण का प्रश्न संलग्न रहता है। प्रमाण किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप का निश्चय करता है और मिथ्यात्व से भिन्न होता है । प्रमाण ज्ञान है क्योंकि यह हमें एक वस्तु को स्वीकार या अस्वीकार करने में समर्थ बनाता है ।। ज्ञान की वैधता नेय को स्वीकार करने पर है 12 ज्ञान का अपमाण्य इसके विपरीत है अथवा क्षेय को अस्वीकार करने में है ।' प्रमाण ज्ञान अनिवार्य से वैध अथवा निश्चित है क्योंकि यह समारोप का विरोधी है । इसका अभिप्राय यह है कि अपामाण्य वस्तुतथ्य का विरोधी है अथवा अप्रामाण्य समारोप है । समारोप का अभिप्राय है वस्तु जो नहीं है उसे उस रूप में जानना । अप्रामाण्य या मिथ्या त्व के तीन रूप हैं - संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । संशय वहा होता है जहाँ उन कई पहलुओं को जानने का प्रयास किया जाता है जिनके विषय में अभी तक कोई निश्चय नहीं हो सका है, क्योंकि वहाँ अर्थात् उन पहलुओं के सन्दर्भ में न तो विरोधी तत्व मिल सके हैं और न ही समर्थक तत्व ही मिन सके हैं। जब दो या अधिक संभावनायें उठती हैं और हम इस स्थिति में नहीं होते 'कि इस पक्ष में निश्चय करें अथवा उस पक्षण में । यही स्थिति संशय की स्थिति है ।। उदाहरणार्थ यह निश्चय न कर पाना कि वह एक मूर्ति है अथवा मनुष्य 18 भम एक वस्तु का उस रूप में ज्ञान है जो वास्तव में वह नहीं है । भम विपरीत प्रत्यक्ष है । इसके उदाहरण हैं - सीप में रजत का बोध होना । 10 एक मीठी वस्तु का एक कड़वी वस्तु के रूप में ज्ञान, चाम-विकृति के कारण एक चन्द्रमा दो चन्द्रमाओं के रूप में दिखाई पड़ना और नाव की गति के कारण स्थिर वृक्ष का गतिशील वृक्ष के रूप में ज्ञान आदि । भ्रम या विपर्यय वस्तु का एक पहलू से 'निश्चय करना है जो कि वस्तु की सम्पूर्णता के ज्ञान से भिन्न है। किसी वस्तु के अनेकों पहलुओं में से यदि वस्तु का निर्णय दूसरे पहलुओं को नकारकर मात्र एक पहलू से किया जाता है तो वह ज्ञान विपर्यय कहा जायेगा ।

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