Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ १२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ स्थूलिभद्र के नेतृत्वमें हुयी थी। तत्पश्चात् ईसाकी चतुर्थ शताब्दीमें एक वाचना स्कन्दिलाचार्य के सभापतित्वमें मथुरामें और उसी समम अन्य वाचना नागार्जुन के प्रमुखत्वमें वलभीमें हुयी थी। अंतिम वाचना देवर्द्धि गणिके नेतृत्वमें पांचवीं-छठी शतीमें फिर वलभीमें हुयी थी। एक परंपराके अनुसार बारह वर्षीय दुर्भिक्षके कारण ई. पू. चौथी शताब्दीमें भद्रबाहु बहुत बड़े मुनिसमुदायके साथ दक्षिण में गये थे। इन वर्णनोंसे स्पष्ट है कि महावीरके पश्चात् दूसरी शतीसे जैन धर्म का प्रचार पश्चिम और सुदूर दक्षिणकी तरफ होने लगा था। सातवीं शतीके चीनी यात्री ह्वेनसांगके वर्णनसे यह मालूम होता है कि उस समय में वैशाली में निर्ग्रन्थोंकी बहुत बड़ी संख्या विद्यमान थी। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के मुनि पश्चिममें तक्षशिला और दिगम्बर निर्ग्रन्थ पूर्वमें पुण्डवर्धन और समतट (बंगाल) तक भारी संख्यामें पाये जाते थे। इस प्रकार उस समय तक जैन धर्म सारे उत्तर भारतमें पर्याप्त प्रमाणमें प्रचलित हो गया था। प्रारंभिक संघभेद महावीर तथा उनके गणधरोंके समयमें जैन संघमें जो एकता रही वह बादमें विच्छिन्न हो गयी। जैसे जैसे धर्मका प्रवार विभिन्न प्रदेशोंमें होता गया वैसे वैसे उसमें तरह तरहके लोगोंका समावेश होता गया। समय के साथ परिस्थितियाँ भी बदलती गयीं। इन कारणोंसे संघमें विभेदात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ती गयीं और विभिन्न गण, गच्छ और फिरकोंका प्रादुर्भाव होने लगा। इनमें सबसे बड़ा और विकट भेद श्वेतांबर-दिगंबरोंका हुआ। श्वेतांबरों के अनुसार महावीरके ६०९ वर्ष पश्चात् ई० स०८२में बोटिक अर्थात् दिगम्बर संप्रदायकी उत्पत्ति मानी जाती है। दिगम्बरों के अनुसार श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति ई० स० ७९में मानी गयी है। दोनों संप्रदायोंको मान्य यह स्पष्ट भेद महावीर के ६०० वर्ष पश्चात् ईसाकी प्रथम शताब्दीमें हुआ। वैसे भेदके लक्षण बहुत पूर्वकालीन प्रतीत होते हैं। महावीरके शिष्य गौतम और पाचारंपरा के श्रमण केशीका संवाद इसी ओर संकेत करता है, हालाकि केशीने महावीर के सिद्धान्तोंको अपना लिया था। इसके पश्चात् हमें सात निह्नवोंके सैद्धांतिक भेदों का पता चलता है। प्रथम निह्नव जमाली तो महावीरका समकालीन था। उसके पश्चात् अन्य छह निह्नव हुए जिनकी कालावधि महावीरके पश्चात् ५८४ वर्ष तककी ही है। सिद्धान्तभेद होने के कारण वे महावीरसे अलग पड़ गये। आठवें निह्नव बोटिकसे दिगम्बर सम्प्रदायको उत्पत्ति मानी जाती है। महावीरके पश्चात् क्रमशः गौतम, सुधर्मा और जंबूस्वामी दोनों सम्प्रदायों को समान रूपसे मान्य रहे हैं। उनके पश्चात् आचार्य परम्परामें भिन्नता आ जाती है। श्वेताम्बरों के अनुसार पाटलिपुत्रकी वाचनामें भद्रबाहु सम्मिलित नहीं हुए और स्थूलिभद्रकी सहायतासे ही वाचना की गयी। दिगंबरों के अनुसार अकाल पड़ने के कारण भद्बाहु अपने शिष्य-समुदायके साथ दक्षिणकी तरफ चले गये। बादमें लौटने पर उन लोगोंने देखा कि उत्तरी क्षेत्रके साधुसमुदायमें परिस्थितिवश काफी शिथिलता आ गयी है। उनको ये नयी प्रवृत्तियों स्वीकृत नहीं हुयी और इस प्रकार सम्प्रदायभेद प्रस्फुटित हो गया। वाचनामें भद्रबाहका श्वेताम्बरमतानुसार शामिल नहीं होना भी एक आपत्तिजनक मुद्दा ही बना रहता है। इस कारणसे वाचनामें कुछ कमी अवश्य ही रही क्योंकि उन्हें ही सिर्फ चौदह पूर्वोका ज्ञान था। इस तरहसे हम देखते हैं कि समय समय पर भेदात्मक प्रवृत्तियाँ सामने आती रही हैं, परंतु स्पष्ट भेद तो ई० स० की पहली शताब्दीमें ही हुआ ऐसा दोनों सम्प्रदायों की मान्यता से प्रकट है aaaaaaan १ श्वेताम्बरों की मान्यता है कि वे ध्यानार्थ नेपाल गये थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17