Book Title: Jain Dharm ka Prasar Author(s): K Rushabhchandra Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_ View full book textPage 3
________________ १० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ है। ऋग्वेदमें एक स्थलपर केशी और वृषभका एकसाथ वर्णन भी मिलता है और उनके एकत्वका समर्थन होता है। जैन तीर्थंकर नम रहते थे यह सुविदित है। ऋग्वेदमें' तथा अथर्ववेदमें भी शिश्नदेवोंके उल्लेख मिलते हैं। पटनाके लोहानीपुर स्थलसे कायोत्सर्ग मुद्रामें जो नगमूर्ति पायी गयी है वह भारतकी सबसे पुरानी मूर्ति है और वह जैन तीर्थकरकी मूर्ति मानी गयी है। वैसे सिन्धु सभ्यताके जो भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें भी एक नग्नमूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रामें मिली है और उसके साथ बैलका चित्र भी। जैन परंपरामें भी ऋषभके साथ बैलका चिह्न अंकित किया जाता है। इस कारण उस मूर्तिको एक तीर्थकरकी मूर्ति मानने के लिये विद्वान लोग प्रेरित हुए हैं। उपर्युक्त आधारोंसे यह मानना अप्रामाणिक नहीं होगा कि ऋग्वेदसे भी पहले सिन्धुसभ्यताके कालमें जैन धर्मका किसी न किसी रूप में अस्तित्व था। ऋग्वेदमें व्रात्यों के उल्लेख आते हैं। वे श्रमण परंपरासे संबंधित थे। उनका वर्णन अथर्ववेदमें भी है। वे वैदिक विधिके प्रतिकुल आचरण करते थे। मनुस्मृति में लिच्छवियों, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियोंको व्रात्य माना गया है। ये भी सभी श्रमण परंपराके ही प्रतिनिधि थे। व्रात्यों के अलावा वैदिक साहित्यमें यतियोंके उल्लेख भी आते हैं। वे भी श्रमण परंपराके साधु थे। जैनोंमें यति नामकी संज्ञा प्रचलित रही है। कुछ कालके पश्चात् वैदिक साहित्यमें यतियों के प्रति विरोध होता दीख पड़ता है जो पहले नहीं था। ताण्ड्य ब्राह्मणके टीकाकारने यतियोंका जो वर्णन किया है उससे स्पष्ट है कि वे श्रमणपरंपराके मुनि थे। इस प्रकार वदिक साहित्यके विविध ग्रंथाम श्रमणपरंपरा के असंदिग्ध उल्लेख बिखरे पड़े हैं। अन्य तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिक सत्ता के प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए हैं। यजुर्वेदमें ऋषभदेव तथा द्वितीय तीर्थकर अजित और तेईसवें अरिष्टनेमिके उल्लेख मिलते हैं। अन्तिम चार तीर्थंकरोंकी सत्ता के बारेमें कुछ कहा जाने योग्य है। इक्कीसवें तीर्थकर नमिका साम्य कुछ विद्वान् उत्तराध्ययनमें वर्णित नमिके साथ बिठाते हैं जो मिथिलाके राजा थे। उनके अनासक्ति विषयक उद्गार-वाक्य पालि और संस्कृत साहित्यमें लते हैं। उसी परंपरामें जनक हुए जो विदेह (जीवन्मुक्त) थे और उनका देश भी विदेह कहलाया। उनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही उनका धनुष प्रत्यंचाहीन प्रतीकमात्र रहा। वैसे व्रात्योंको भी 'ज्याहृद्' कहा गया है और उसका संबंध इस प्रसंगमें ध्यान देने योग्य है। बाईसवें तीर्थकर नेमि और वासुदेव कृष्ण चचेरे भाई थे। नेमि गिरनार पर तपस्यामें प्रवृत्त हुए और वहीं पर मोक्ष प्राप्त किया। महाभारतका काल १००० ई० पूर्व माना जाता है और वही Annnnnnnnwwwwxnna१ ऋग्वेद ७. २१.५ १०. ९९. ३ । २ अथर्ववेद २०. १३६. ११ । ३ ऋग्वेद १. १६३. ८, ९. १४. २ । ४ अथर्ववेद अध्याय १५ । ५ अध्याय १०। ऋग्वेद ८.६ १८१०. ७२.७; तैतरीय संहिता २.४.९.२, ऐतरेय ब्राह्मण ७. २८ । ७ ताण्ड्य ब्राह्मण १४. ११. २८; १८. १. ९। Vide Indian Philosophy. I. Dr. S. Radhakrishnan. p. 287. उत्तराध्ययन. अ. ९ Voice of Ahimsa. Sept.-oct. 1958 (Dr. H. L. Jain's Article). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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