Book Title: Jain Dharm ka Prasar Author(s): K Rushabhchandra Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_ View full book textPage 9
________________ • १६ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ प्रति कितनी सहानुभूति रही होगी यह प्रकट होता है। सिद्धराज और कुमारपालके समय में तो जैन धर्मका यहां पर सुवर्णयुग रहा। उसी समय हेमचन्द्राचार्य के कारण जैन धर्मकी जो सेवा हुयी उसका प्रभाव सदा के लिए रह गया और गुजरात जैन धर्मका एक बलशाली और समृद्ध केन्द्र बन गया । १३वीं शती में वस्तुपाल और तेजपाल नामक श्रेष्ठबंधुओंने आबू पर एक मंदिर बनवाया जो अपनी कला के लिए अद्वितीय है । शत्रुंजय और गिरनार के तीर्थक्षेत्रों को भी अलंकृत करनेमें अनेक सेठों और राजाओंका योग दान रहा है । खंभातका चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर भी १२वीं शती में बनवाया गया था और तेरहवीं शती के अन्तमें इसका जीर्णोद्धार किया गया था। राजस्थान के अनेक धर्मानुयायियोंने दान देकर इस मंदिर की समृद्धि बढायी है । तेरहवीं शती में दानवीर शेठ जगडूशाह हुए। वे कच्छ प्रदेशके रहने वाले थे। उन्होंने गिरनार और शत्रुंजय गिरिका संघ निकाला था। वे गरीबों को काफी आर्थिक सहायता करते थे और एक भारी दुष्कालमें राजा वीसलदेव के कालमें उन्होंने आसपास के राजाओंको सहायता करके प्रजाको भूख से मरने से बचाया था। पेथड़शाह भी इसी समय के आसपास हुए थे। पन्द्रहवीं शतीका समय सोमसुन्दर युग कहा जाता है। आचार्य सोमसुन्दर ने जैन धर्मकी प्रभावनाके लिए जैनोंको काफी प्रोत्साहित किया था । पन्द्रहवीं शती में ही लोकाशाहने स्थानकवासी सम्प्रदायकी स्थापना की थी। सोलहवीं शती में ही विजयसूरि जैसी एक महान विभूतिका जन्म पालनपुरमें हुआ था। उनका अकबर पर अच्छा प्रभाव पड़ा था जिससे जैन धार्मिक उत्सवोंके दिनों में पशुहिंसा निषेध के फ़रमान बादशाहने जारी किये थे । सोलहवीं शती जैनों में हैरक युग के नामसे प्रसिद्ध है । राजस्थान राजस्थान में जैन धर्मका अस्तित्व मौर्य कालसे पूर्वका पाया जाता है। अजमेर के निकट बड़ली (नगरी) से जो शिलालेख मिला है वह भारतका प्राचीनतम लेख है । उसमें महावीर निर्वाणके ८० वे वर्षका उल्लेख है । इस प्रकार ई० पू० पांचवी, शती में वहां पर जैन धर्म विद्यमान था । चितौड़ के पास मध्यमिका नामक जो स्थान है उसके नामसे ई० पू० तृतीय शती में एक मुनिशाखाकी स्थापनाका उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है। मालवा में कालिकाचार्य के द्वारा शकांके लानेका उल्लेख है । उस समय अर्थात् ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में राजस्थानका दक्षिणी पूर्वी भाग मालवा में शामिल था । ईसा पूर्व और पश्चातकी एक-दो शताब्दियों में मथुरा में जैन धर्म बहुत सुदृढ़ था । इसके आधार से यह माना जाता है कि उस समय राजस्थान के उत्तर-पूर्वी भागमें भी जैन धर्म प्रचलित होगा । बुन्दी के पास केशोरायपट्टनमें जैन मंदिर के भग्नावशेषोंकी संभावना पांचवीं शतीकी की जाती है । सातवीं शती में ह्वेनसांग के वर्णन से भिन्नमाल और वैराटमें जैनोंका अस्तित्व प्रकट होता है । वसन्तगढ(सिरोही) में ऋषभदेवकी धातुकी मूर्ति पर छठीं शतीका लेख विद्यमान है। आठवीं शती के हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के निवासी थे । वीरसेनाचार्यने षटखंडागम तथा कषायप्राभृत एलाचार्यसे ८ वीं शती में चित्तौड़ में ही सीखा था। इसी शती में उद्योतनसूरिने आबू पर बृहद्गच्छकी स्थापना की थी । * राजपूत राजा मुख्यतः विष्णुभक्त और शैव थे फिर भी जैन धर्म के प्रति उनका सौहार्द हमेशा बना रहा है। प्रतिहार राजा वत्सराज ( ८ वीं शती) के समयका ओसियाका महावीरका मन्दिर आज भी विद्य मान है। मंडौर के राजा कक्कुकने नवीं शतीमें एक जैन मंदिर बनवाया था। कोटा के पासकी जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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