Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

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Page 14
________________ जैन धर्मका प्रसार : २१ ईसा की दूसरी शताब्दी से तेरहवीं शती तक जैनधर्म कर्नाटकका प्रधान धर्म बनकर रहा है। वहाँ के जनजीवन, साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन पर इस धर्मका जो नाना क्षेत्रिय प्रभाव है वह अद्वितीय है । बड़े बड़े राजा-महाराजा, सामन्त, श्रेष्ठि और यहाँ तक कि सामान्य प्रजामें इस देश के कोने कोने में जैन धर्म प्रचलित होनेके प्रमाण मिलते हैं। तामिल साहित्य और भाषा के उद्धार और विकास में जैनोंने जो योग दिया उससे भी अधिक कन्नड भाषा और साहित्यके विकास में जैनों की विशेष देन रही है। इस साहित्य के किसी भी विभाग जैसे आगम, पुराण, सिद्धान्त, काव्य, छन्दः शास्त्र, व्याकरण, नीतिशास्त्र, भूगोल, गणित, संगीत इत्यादिको जैनोंने अछूता नहीं रखा। जैन कन्नड साहित्य - की शैलीका प्रभाव आन्ध्र देश पर भी पड़े बिना नहीं रहा । द्वितीय शती में गंगवंशकी स्थापना करनेमें जैन आचार्य सिंहनंदीका प्रमुख हाथ रहा है। माधव कोनगुणिवर्मा इस वंशके आदि संस्थापक हुए । पांचवीं शतीके पूज्यपाद दुर्विनीतके राजगुरु होने के उल्लेख मिलते हैं। शिवमार, श्रीपुरुष, मारसिंह इत्यादि नरेशोंने अनेक जैन मन्दिर बनवाये तथा मुनियोंको दान दिया। मारसिंह (१०वीं शती) ने तो जैन समाधिमरण किया था । वादि धंगल इसी शती - के तार्किक थे । राचमल्ल (चतुर्थ) के मंत्री चामुण्डरायने गोमटेश्वरकी जो विशाल और अद्भुत मूर्ति बनवायी वह अपनी कलाके लिए जगद्विख्यात है | चामुण्डराय पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका प्रभाव उल्लेखनीय है । इस वंश के अनेक राजा तथा उनके सामन्त, मंत्री और सेनापतियोंने जैन धर्मके विविधमुखी कार्यों में योगदान दिया। गंग महादेवी, पंपादेवी, लक्ष्मीमती इत्यादि राजमहिलाओं के नाम इस प्रसंग में लेने योग्य हैं। गंगों की समस्तिके बहुत पहले ही कदम्बों और राष्ट्रकूटोंने जैन धर्मको अपना लिया था । वनवासी के कदम्बों में ब्राह्मण धर्म प्रचलित था फिर भी कुछ राजा जैनधर्मी थे। उनमें चौथी शती - के कास्थवर्माका नाम उल्लेखनीय है। पांचवीं शती के श्रीविजय शिवमृगेश वर्मा और श्रीमृगेश द्वारा जैनों के श्वेताम्बर, निर्ग्रन्थ, यापनीय और कूर्चक आदि संघोंको अलग अलग भूमिदान करने के शिलालेख प्राप्त होते हैं । हरिवर्मा, रविवर्मा, देववर्मा इत्यादिके द्वारा भी समय समय पर मन्दिरों व संघों के लिए गाँव और भूमिदान करनेके उल्लेख मिलते हैं। इस प्रकार इस प्रदेशमें चौथी से छठीं शती तक जैन धर्म लोकप्रिय रहा और राज्य-सम्मान प्राप्त करता रहा । सातवीं शती से राष्ट्रकूटोंका काल प्रारंभ होता है। इस वंशके साथ जैनोंका बहुत निकटका संबंध रहा है। दन्तिदुर्ग खड्डावलोकने आठवीं शती में अकलंक देवको सम्मानित किया था । अमोघवर्ष प्रथम गुरु जिनसेन थे जिन्होंने आदिपुराण लिखा है। उनकी प्रश्नोत्तर रत्नमालिकासे प्रतीत होता है कि उन्होंने राज्य त्यागकर जैन दीक्षा ग्रहण की थी। उनकी एक अन्य रचना कन्नड में अलंकारशास्त्र पर पायी जाती है । शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति नामक टीका इनके ही नाम पर आधारित है । दशवीं शती में Good एक वीरांगना तथा सफल शासनकर्त्री थी, जिसने समाधिमरण किया था । इस वंशके अन्य राजाओंकी जैन धर्म पर महती श्रद्धा रही है। गुणभद्र, इन्द्रनन्दि, सोमदेव, पुष्पदन्त, पोन्न इत्यादि कवियोंका आविर्भाव इन्हीं के कालमें हुआ था। राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट जैनों का केन्द्र बन गया था क्योंकि इस वंशके राजाओंका इस धर्मके प्रति विशिष्ट प्रेम रहा है। अन्तिम राजा इन्द्र चतुर्थने श्रवणबेलगोला में भद्रबाहु की तरह समाधि मरण किया था । राष्ट्रकूटों के पश्चात् पुनः पश्चिमी चालुक्योंका कर्नाटक पर अधिकार हो गया था । परंतु इसके पूर्व भी चालुक्योंका जैन धर्म के प्रति प्रेम बना हुआ था । ऐहोलका रविकीर्तिका शिलालेख अपनी काव्यात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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