Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

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Page 1
________________ जैन धर्मका प्रसार के० रिषभचन्द्र एक समय ऐसी मान्यता रही कि जैन धर्म बौद्ध धर्मकी ही एक शाखा है। डॉ० याकोबीने इस भ्रान्त धारणाको निर्मूल किया। तत्पश्चात् यह कहा जाने लगा कि जैन धर्म हिन्दू धर्म(ब्राह्मण धर्म)में से ही उत्पन्न हुआ है, वैदिक हिंसाके विरोधमें जो आन्दोलन आरंभ हुआ था उसने एक नये धर्मके रूप में जैन धर्मका स्वरूप पाया, परंतु जैसे जैसे अन्वेषण अग्रसर होता जा रहा है वैसे वैसे यह आक्षेप भी असत्य सिद्ध होता जा रहा है। आधुनिक विद्वान् अब यह अभिप्राय बनाते जा रहे हैं कि जैन धर्मकी परम्परा बहुत प्राचीन है। भगवान महावीर और पार्श्वके पूर्वकालमें भी इस धर्मकी परंपरा विद्यमान थी, इतना ही नहीं अपितु प्रागैतिहासिक कालमें भी इस धर्मकी परंपराके धुंधले चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे हैं। जैनके अलावा इस धर्म के दूसरे नाम आर्हत और निग्रंथ रहे हैं। महावीरके समय में इसका नाम निग्रंथ धर्म था जैसा कि पालि और अर्धमागधी साहित्यसे पता चलता है। इसका एक अन्य नाम श्रमण भी रहा है, हाला कि श्रमण शब्द बहुत विस्तृत रहा है और उसमें कई संप्रदायोंका समावेश होता रहा है : जैसे बौद्ध, आजीविक तथा कुछ सीमा तक पूर्वकालीन सांख्य और शैव भी। इसी श्रमण परंपरामें निग्रंथोंका भी एक संप्रदाय था। पार्श्वनाथके पहले इस संप्रदायका क्या नाम रहा, यह जानने के लिए कोई विशिष्ट साधन उपलब्ध नहीं हैं। यह सुनिश्चित है कि श्रमणपरंपरा निवृत्तिप्रधान रही है और उसे मुनिपरंपरा भी कहा गया है। एक प्रवृत्ति-प्रधान परंपरा भी भारतमें विद्यमान रही है, उसका नाम है वैदिक, यज्ञमुखी, देव, ऋषि अथवा वर्णाश्रम धर्म परंपरा। वास्तवमें ये दोनों परंपराएँ ऋग्वेद कालसे प्रचलित हैं। ऋग्वेद हमारा प्राचीनतम साहित्य है जिसमें हमें निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों मार्गों के दर्शन होते हैं। उस समय मुनिपरंपरा भी यथेष्ट प्रमाणमें लोकप्रिय थी। महर्षि पतञ्जलिने पाणि निके एक सूत्रकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि श्रमणों और ब्राह्मणोंका विरोध शाश्वत कालसे चला आ रहा है।' १ महाभाष्य २.४.९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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