Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

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Page 10
________________ जैन धर्मका प्रसार : १७ गुफाएँ ८वीं-९वीं शतीकी हैं तथा ८वींसे ११वीं शती के जीर्ण मंदिर भी देखनेको मिलते हैं। आघाट(उदयपुर)का पार्श्वनाथ-मंदिर एक मंत्री के द्वारा १०वीं शतीमें बनवाया गया था। सिद्धर्षि उसी शतीमें श्रीमालमें जन्मे थे। लोदोरवा(जैसलमेर)में राजा सागरके पुत्रोंने पार्श्वनाथका मंदिर बनवाया था। परमारकालीन १०वीं शतीमें आबूके राजा कृष्णराजके समयमें दियाना(सिरोही)में एक जैनमूर्तिकी स्थापना की गयी थी। उसी समयके हथंडी(बीजापुर)के राठौड़ोंसे जैन धर्मको सहायता मिलने के उल्लेख हैं। विदग्धराजने तो एक जैन मंदिर बनवाया था। छठींसे बारहवीं शती तक शूरसेनोंका राज्य भरतपुर पर था और उस समयके कुछ राजा जैन थे। इस कालमें वहां पर बहुतसी प्रतिष्ठाएँ हुयीं। अलवर के मंदिरों के शिलालेख ११वीं-१२वीं शती के गूर्जर प्रतिहारोंके कालके प्राप्त होते हैं। चौहान पृथ्वीराज प्रथमने १२वीं शती के प्रारम्भमें रणथंभौरके जैन मंदिरोंपर सुवर्णकलश चढाये थे। उसके वंशजोंका भी जैन धर्म के प्रति सौहार्द बना रहा। बीसलदेवने एकादशीको कतलखाने बंद करवा दिये थे। जिनदत्तसूरि बारहवीं शतीमें हुए थे। उनका स्वर्गगमन अजमेर में हुआ था। वे मरुधर के कल्पवृक्ष माने गये हैं। पृथ्वीराज द्वितीयने पार्श्वनाथ मन्दिरकी सहायता के लिए बिजोलिया नामक गाँव दान में दिया था। वनराज चावडाने भिन्नमालसे जैनोंको बुलाकर पाटनमें बसाया था। हेमचन्द्र के काल में राजस्थान में भी जैन धर्मने काफी प्रगति की। सोलंकी कुमारपालने पाली (जोधपुर)के ब्राह्मणोंको यज्ञमें मांसके बदले अनाजका उपयोग करने के लिए बाध्य किया था। उसने जालौर में एक जैन मंदिर बनवाया था। आबूके जैन मंदिर भी उसीके कालमें बने थे तथा सिरोहीका डबागी गाँव उनकी सहायतार्थ दानमें दिया गया था। सेवाडीके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि वहाँके राजघराने १०वींसे १३वीं शती तक जैन संस्थाओंको सहायता करते रहें। इसी प्रकार नाडौल, नाडलाई और सांडेरावकी जैन संस्थाओंको भी मदद मिलती रही। कुमारपालके अधीन नाडोलके चौहान अश्वराजने जैन धर्म स्वीकार किया था। १२वीं-१३वीं शतियोंमें जालौरके जैनोंको वहां के सामन्तोंसे सहायता मिलनेके लेख विद्यमान हैं। मेवाड़की एक रानीने १३वीं शतीमें चित्तोड़में पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया था। इसी शतीमें जगचन्द्रसूरिको मेवाड़ के राणाने तपाकी पदवी दी थी और उनका गच्छ तपागच्छ कहलाया। बारहवींसे चौदहवीं शती में झाड़ोली, चन्द्रावती, दत्तानी और दियाणा(सिरोही जिला)के मन्दिरोंके लिए भूमिदानके लेख मिलते हैं। कालन्द्री(सिरोही के पूरे संघने १४वीं शती में ऐच्छिक मरणको अपनाया था। जिनभद्रसूरिने १५वीं शतीमें जैसलमेरमें बृहज्ञानभण्डार स्थापित किया था। राजस्थानमें शास्त्रको सुरक्षित रखनेका तथा उसकी अनेक प्रतियाँ करवानेका श्रेय इन्हीं को है। १५वीं शतीमें राणा कुम्भाने सादडी में एक जैन मंदिर बनवाया था। उन्हीं के कालमें जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ के किलेमें बना था। राणकपुरका जैन मंदिर भी उसी समय की रचना है जो स्थापत्य कलाका एक अत्यन्त सुंदर नमूना है। राणा प्रतापने तो हीरविजयसूरिको मेवाड़ में बुलाया था। अकबर के पास जाते समय वे सिरोहीमें ठहरे थे और उन्हें सूरिकी पदवीसे वहां पर ही विभूषित किया गया था। श्वेताम्बर लोकागच्छके प्रथम वेषधारी साधु भाणा थे जो अरठवाड़ा(सिरोही) के रहने वाले थे। वे १४७६में साधु बने थे। तेरापंथके प्रवर्तक भीकमजी भी मेवाड़ के ही थे जो १८वीं शती में हुए । १७वीं शतीमें औरंगजेबके कालमें कोटामें कृष्णदासने एक जैन मंदिर बनाकर बडी हिम्मत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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