Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

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Page 8
________________ जैन धर्मका प्रसार : १५ भद्रबाहु के चार शिष्योंने जिन चार शाखाओंकी स्थापना की उनके नाम बंगालके स्थानीय नामों परसे ही दिये गये हैं, जैसे कोटिवर्षिका, ताम्रलिप्तिका, पौण्डवर्धनिका और दासीखबडिका। तत्पश्चात् गुप्तकालीन पांचवीं शतीका पूर्वीबंगालमें पहाड़पुरसे एक ताम्रलेख मिला है जिसमें जिनमूर्तिकी प्रतिष्ठाका उल्लेख है। सातवीं शतीके चीनी यात्री ह्वेनसांगने लिखा है कि बंगाल के विभिन्न भागोंमें निर्ग्रन्थ काफी संख्यामें विद्यमान थे। पालवंशके राज्यकालकी नवीं और दशवीं शताब्दियों के आसपासकी प्रचुर मात्रामें जैन मूर्तियां खुदाई में निकली हैं जिनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस कालमें भी जैन बस्ती वहाँ पर काफी मात्रामें विद्यमान थी। पाल राजा स्वयं बौद्ध धर्मी थे परन्तु अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता रखते थे। उनके बाद सेनों के समयसे जैन धर्मका वहाँ पर हास होता गया। वे कट्टर ब्राह्मणवादी थे। पिछले करीब तीन सौ वर्षोंसे बंगाल में जैन लोग बसने लगे हैं परंतु मूल बंगाली जैनोंकी कोई अविच्छिन्न धारा नहीं दिखती।। उज्जैन और मथुरा उज्जैन के राजा और गणाधिपति चेटकके बीच महावीर के कालमें ही सम्बन्ध हो गया था। उसके पश्चात जैन धर्मकी वहां पर क्या स्थिति रही स्पष्टतः नहीं कहा जा सकता, परंतु ई० पू० की प्रथम शताब्दी में वहां पर जैन लोग विद्यमान थे यह हमें गर्दभिल्ल और कालकाचार्य के कथानकसे स्पष्ट मालूम होता है। गुप्तकालीन एक लेख के अनुसार उदयगिरि(विदिशा-मालवा)मे पार्श्वनाथकी प्रतिष्ठा करायी गयी थी। मथुरामें प्राप्त जैन पुरातत्त्व सामग्रीसे यह पता चलता है कि ई० पू० द्वितीय शताब्दीसे ई० स० १०वीं शताब्दी तक यह प्रदेश जैन धर्मका महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना हुआ था। यहाँ के लेखोंमें कुषाण राजाओं के उल्लेख हैं। गुप्त राज्य-कालके लेख भी प्राप्त हुए हैं। हरिगुप्ताचार्य तो गुप्तवंशके ही पुरुष थे जो तोरमाण (छठी शती)के गुरु थे। मथुरामें प्राप्त प्राचीन जैन स्तूप कोई कोई विद्वान् महावीरसे भी पूर्वका बतलाते हैं। कहा जाता है कि इसकी स्थापना सुपार्श्वनाथकी स्मृतिमें की गयी थी और पार्श्वनाथके समयमें इसका उद्धार किया गया था। मथुराके पंचस्तूपोंका उल्लेख जैन साहित्य में आता है। यहींसे पंचस्तूपान्वय भी प्रारंभ हुआ हो तो असंभव नहीं। गुजरात मथुराके साथ वलभीमें चौथी शती के प्रथम पादमें नागार्जुनीय वाचना तथा गुजरातके गिरनार पर्वतके साथ धरसेनाचार्य और पुष्पदन्त तथा भूत बलि(षटखंडागमके रचनाकार)के संबन्धसे यह प्रतीत होता है कि इस प्रदेशके साथ जैन धर्मका संबंध ईसाकी प्रथम शताब्दियोंसे है। इससे पूर्व भी जैन धर्मका इस प्रदेशके साथ संबंध रहा है। भगवान नेमिनाथकी चर्या और मुक्ति सौराष्ट्र के स्थलोंसे ही जुड़ी हुयी है। वलभीकी द्वितीय तथा अन्तिम वाचनासे सुस्पष्ट है कि पाँचवीं-छठी शती में जैन धर्म इस प्रदेशमें काफी सुदृढ़ हो गया था। सातवीं शतीके दो गूर्जर नरेशोंका इस धर्मसे अनुराग था ऐसा उनके दानपत्रों से सिद्ध होता है। वनराज चावडा-राजवंश के संस्थापक थे। उनसे जैन धर्मको यहाँ पर प्रोत्साहन मिला। मूलराजका बनाया हुआ अणहिलवाड़का जैन मंदिर आज भी विद्यमान है। राजा तोरमाणके गुरु हरिगुप्ताचार्यके प्रशिष्य शिवचन्द्र के अनेक शिष्योंने गुजरातमें जैन धर्मका प्रचार किया तथा अनेक जैन मन्दिर बनवाये। सोलंकी राजा भीमके मंत्री विमलशाहने ११वीं शतीमें आबू पर जो मंदिर बनवाया वह अपनी कलाके लिए जगत्प्रसिद्ध है। उन्होंने ही चन्द्रावती नगरी बसायी थी। इससे राजा भीम की जैन धर्मके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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