Book Title: Jain Dharm ka Prasar
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_

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Page 11
________________ १८ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ दिखायी और जैनों के प्रभावका अच्छा परिचय दिया। समयसुन्दर १६वीं-१७वीं सदी में हए। वे राजस्थानीके अग्रलेखक माने गये हैं। दिगम्बर तेरापन्थके संस्थापक अमरचन्द सांगानेरके थे, जिनका काल १७वीं शतीका है। १८वीं शतीमें जयपुर के गुमानी रामने गुमानपंथ की स्थापना की थी। पन्द्रहवीं शतीसे उन्नीसवीं शती तक राजस्थान में जैन धर्मका जो प्रभाव रहा वह संक्षेपमें इस प्रकार अंकित किया जा सकता है: स्थल-स्थल पर मन्दिर बनवाना, प्रतिष्ठाएं करना, राजपुरुषोंसे अनुदानके रूपमें जमीन प्राप्त करना इत्यादि; स्तूप, स्तम्भ, पादुकाओं तथा उपाश्रयों की स्थापना और मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करना। इसी कालमें राजस्थानी और हिन्दीके कई साहित्यकार भी हुए। जयपुर के कछवाहों के अधीन करीब ५० दीवान जैन थे, जिनके कारण जैन धर्मको सभी क्षेत्रोंमें प्रोत्साहन मिला। मुस्लिम आक्रमणके कारण जैन मन्दिरोंकी मस्जिदें भी बनायी गयीं। १२वीं शतीका अजमेरका अढाई दिनका झोपड़ा व सांचौर और जालौरकी मस्जिदें जैन मन्दिर ही थे। जीरावला पार्श्वनाथ मंदिरको भी इसी प्रकार क्षति हुयी। १६वीं शतीमें बीकानेरके मन्दिर पर भी आक्रमण हुआ था। कोटाके शाहबादमें इसी प्रकार औरंगजेबने एक मस्जिद बनायी थी। राजकारणमें जैनोंके योगदानके भी कई उदाहरण प्राप्त हैं। कुमारपालके राज्यकालमें विमलशाह आबूके प्रतिनिधि थे। जालौरका उदयन खम्भातका राज्यपाल था। १६वीं शती के वीर तेजा गदहीया ने जोधपुरका राज्य शेरशाहसे राजा मालदेवको वापिस दिलवाया था। दीवान मुहणोत नैनसी, रत्नसिंह भंडारी, अजमेरके शासक धनराज और कूटनीतिज्ञ इन्द्रराज सिंधीके नाम भी उल्लेखनीय हैं। करमचन्द बीकानरेके राजा का एक दण्डनायक था। मेवाड़ के आशाशाहने उदयसिंहको शरण दी थी। भामाशाह राणा प्रतापके दीवान थे जिन्होंने प्रतापको आपत्ति कालमें अद्भुत सहायता की थी। ११वीं शतीके आमेरके दीवान विमलदास युद्ध में लड़ते लड़ते मरे थे। दीवान रामचन्द्रने आमेरको मुगलोंसे वापिस लिया था। उनका नाम सिक्कों पर भी छा था। इस प्रकार यह साबित होता है कि हिन्दू राजाओंके अधीन होते हुए भी राजस्थान में जैनोंका प्रभाव और प्रचार राजपूत कालमें काफी बढ़ा चढ़ा था और उसी परंपराके कारण राजस्थान में अब भी जैन मतके अनुयायी काफी संख्यामें पाये जाते हैं। दक्षिण भारतमें जैन धर्म उत्तर भारतमें अकाल पड़ जाने के कारण भद्रबाहु अपने विशाल मुनिसंघके साथ श्रवण बेलगोला गये। मौर्य राजा चन्द्रगुप्तने उनके ही शिष्यत्वमें वहां पर समाधिमरण किया था। परंपरासे यह भी जानकारी मिलती है कि भद्रबाहुने अपने शिष्य विशाख मुनिको आगे दक्षिणमें चोल और पाण्ड्य देशोंमें धर्मप्रचारार्थ भेजा था। इस घटनाके बल पर भद्रबाहुको दक्षिण देशमें जैन धर्म के प्रथम प्रचारकका श्रेय दिया जाता है। परंतु एक विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि भद्रबाहु के पूर्व उस प्रदेशमें जैनियोंका बिल्कुल अभाव था तो इतने बड़े मुनिसंघने किन लोगों के आधार व आश्रय पर अकस्मात एक अपरिचित देशमें जाने की हिम्मत की होगी। मालूम होता हैं कि उनके पहले भी वह परां जैन धर्म विद्यमान था और उनके प्रमाण भी मिलते हैं। अशोकके समय में बौद्ध धर्मका प्रचार लंकामें उनके पुत्र-पुत्री द्वारा प्रारंभ किया गया था, परंतु जैन धर्मका प्रचार तो उसके पहले ही लंकामें हो चुका था। अजैन साहित्य इसका साक्षी है। पालि महावंश तथा दीपवंशके अनुसार पाण्डुकाभय के राज्यकालमें अनुराधपुर में निर्ग्रन्थोंके लिए निवासस्थान बनाये गये थे। वह काल ई० पू० पांचवीं-शतीका है। इतने प्राचीन कालमें लंकामें जैन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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