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जैन धर्मका प्रसार
के० रिषभचन्द्र
एक समय ऐसी मान्यता रही कि जैन धर्म बौद्ध धर्मकी ही एक शाखा है। डॉ० याकोबीने इस भ्रान्त
धारणाको निर्मूल किया। तत्पश्चात् यह कहा जाने लगा कि जैन धर्म हिन्दू धर्म(ब्राह्मण धर्म)में से ही उत्पन्न हुआ है, वैदिक हिंसाके विरोधमें जो आन्दोलन आरंभ हुआ था उसने एक नये धर्मके रूप में जैन धर्मका स्वरूप पाया, परंतु जैसे जैसे अन्वेषण अग्रसर होता जा रहा है वैसे वैसे यह आक्षेप भी असत्य सिद्ध होता जा रहा है। आधुनिक विद्वान् अब यह अभिप्राय बनाते जा रहे हैं कि जैन धर्मकी परम्परा बहुत प्राचीन है। भगवान महावीर और पार्श्वके पूर्वकालमें भी इस धर्मकी परंपरा विद्यमान थी, इतना ही नहीं अपितु प्रागैतिहासिक कालमें भी इस धर्मकी परंपराके धुंधले चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे हैं।
जैनके अलावा इस धर्म के दूसरे नाम आर्हत और निग्रंथ रहे हैं। महावीरके समय में इसका नाम निग्रंथ धर्म था जैसा कि पालि और अर्धमागधी साहित्यसे पता चलता है। इसका एक अन्य नाम श्रमण भी रहा है, हाला कि श्रमण शब्द बहुत विस्तृत रहा है और उसमें कई संप्रदायोंका समावेश होता रहा है : जैसे बौद्ध, आजीविक तथा कुछ सीमा तक पूर्वकालीन सांख्य और शैव भी। इसी श्रमण परंपरामें निग्रंथोंका भी एक संप्रदाय था। पार्श्वनाथके पहले इस संप्रदायका क्या नाम रहा, यह जानने के लिए कोई विशिष्ट साधन उपलब्ध नहीं हैं। यह सुनिश्चित है कि श्रमणपरंपरा निवृत्तिप्रधान रही है और उसे मुनिपरंपरा भी कहा गया है। एक प्रवृत्ति-प्रधान परंपरा भी भारतमें विद्यमान रही है, उसका नाम है वैदिक, यज्ञमुखी, देव, ऋषि अथवा वर्णाश्रम धर्म परंपरा। वास्तवमें ये दोनों परंपराएँ ऋग्वेद कालसे प्रचलित हैं। ऋग्वेद हमारा प्राचीनतम साहित्य है जिसमें हमें निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों मार्गों के दर्शन होते हैं। उस समय मुनिपरंपरा भी यथेष्ट प्रमाणमें लोकप्रिय थी। महर्षि पतञ्जलिने पाणि निके एक सूत्रकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि श्रमणों और ब्राह्मणोंका विरोध शाश्वत कालसे चला आ रहा है।'
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महाभाष्य २.४.९.
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जैन धर्मका प्रसार : ९
पुराणों और महाभारतमें ऐसा उल्लेख है कि सृष्टि निर्माण करते समय ब्रह्माने प्रथम सनक आदि पुत्रोंको उत्पन्न किया था। वे वनमें चले गये और निवृत्तिमार्गी हो गये। तदुपरांत ब्रह्माने अन्य पुत्रोंको उत्पन्न किया, जिन्होंने प्रवृत्तिप्रधान रहकर प्रजा की सन्ततिको आगे बढ़ाया। कहनेका तात्पर्य यह कि निवृत्तिप्रधान परंपरा अत्यंत प्राचीन है।
प्राचीन काल
अपने प्राचीन इतिहास संबंधी जैन आगमों और पुराणोंके वर्णनानुसार जम्बूद्वीप के दक्षिणमें स्थित भारत देशमें, जिसके उत्तरमें हिमवान् पर्वत है, पहले भोगभूमिकी व्यवस्था थी। कालव्यतिक्रमसे उसमें परिवर्तन शुरू हुआ और आधुनिक सभ्यताका प्रारंभ । उस समय चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने क्रमशः कानूनकी व्यवस्था की और समाजका विकास किया। उन चौदह कुलकरोंमें अन्तिम कुलकर नाभि थे। उनकी पत्नी मरुदेवी थी और उनसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभका जन्म हुआ, जिन्होंने सर्वप्रथम कृषि, शिल्प, वाणिज्य आदि छह साधनोंकी व्यवस्था की तथा धर्मका उपदेश दिया। ये ही जैनों के आदि धर्मोपदेशक माने जाते हैं। इनका ज्येष्ठ पुत्र भरत था जो प्रथम चक्रवर्ती हुआ। इस तरह चौदह कुलकरों के पश्चात् त्रेसठ शलाका पुरुष हुए जिनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव तथा ९ प्रति वासुदेव हैं।
प्रथम चक्रवर्ती भरतसे ही इस देशका नाम भारतवर्ष हुआ ऐसा जैन पुराणों व आगमोंमें कहा गया है। हिन्दू पुराणों के अनुसार भी इन्हीं नाभिके पौत्र तथा ऋषभ के पुत्र चक्रवर्ती भरतके नामसे अजनाभ खण्डका नाम भरतखण्ड हुआ। इस प्रकार जैन अनुश्रुतिका हिंदू(ब्राहाण) पुराणों के द्वारा समर्थन होता है और उसकी ऐतिहासिकता सूचित होती है। .
ऋषभदेवका जन्म अयोध्यामें हुआ था। दीक्षाके बाद वे कठोर तपस्वी बनें। वे नग्न रहते और सिरपर जटाएँ धारण करते थे। जैन कलामें घोर तपस्वी के रूपमें तथा सिरपर जटाल केशोंके साथ उनका अंकन हुआ है। उनके जीवन संबंधी वर्णन अजैन साहित्यमें भी प्राप्त हैं। हिंदू पुराणों मेंरे (भागवत इत्यादि) उनके वंश, माता-पिता और तपश्चर्याका जो वर्णन है वह जैन वर्णनसे काफी साम्य रखता है। वे स्वयंभू मनुसे पांचवीं पीढ़ी में हुए थे। (इस वर्णनके अनुसार अन्य अवतारों जैसे राम, कृष्ण इत्यादिसे इनका समय प्राचीन ठहरता है तथा महाभारत के अनुसार भी प्रजापति के प्रथम पुत्र निवृत्तिमार्गी हुए और तत्पश्चात् प्रवृत्ति मार्गका प्रचलन हआ।) चे कठोर तपस्वी थे और नम रहते थे। उन्होंने दक्षिण देशमें भी भ्रमण किया था। वे वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मको प्रकट करने के लिए अवतरित हुए थे। उन्हें विष्णु और शिवदोनोंका अवतार माना गया है। वातरशना श्रमण मुनियोंकी इस परंपरा के दर्शन भारत के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेदमें भी होते हैं। इस वेदके दसवें मंडलमें वातरशना मुनियोंका वर्णन उपलब्ध है और उसके साथ उनके प्रधान मुनि केशीकी भी स्तुति की गयी है। केशीका तात्पर्य केशधारी व्यक्तिसे है और जैन परंपरामें सिर्फ ऋषभकी मूर्ति जाल केशोंको धारण किये हुए मिलती है। इस संबंध मेवाड़ के केसरियानाथ जो ऋषभका ही नामांतर है, ध्यान देने योग्य
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शान्तिपर्व ३४० •७२-७३, ९९-१००, भागवत पुराण ३.१२ । भागवत पुराण ५. ३. ५. ६., शिव महापुराण ७. २ । ऋग्वेद १०. १३६ ।
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१० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ है। ऋग्वेदमें एक स्थलपर केशी और वृषभका एकसाथ वर्णन भी मिलता है और उनके एकत्वका समर्थन होता है। जैन तीर्थंकर नम रहते थे यह सुविदित है। ऋग्वेदमें' तथा अथर्ववेदमें भी शिश्नदेवोंके उल्लेख मिलते हैं। पटनाके लोहानीपुर स्थलसे कायोत्सर्ग मुद्रामें जो नगमूर्ति पायी गयी है वह भारतकी सबसे पुरानी मूर्ति है और वह जैन तीर्थकरकी मूर्ति मानी गयी है। वैसे सिन्धु सभ्यताके जो भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें भी एक नग्नमूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रामें मिली है और उसके साथ बैलका चित्र भी। जैन परंपरामें भी ऋषभके साथ बैलका चिह्न अंकित किया जाता है। इस कारण उस मूर्तिको एक तीर्थकरकी मूर्ति मानने के लिये विद्वान लोग प्रेरित हुए हैं। उपर्युक्त आधारोंसे यह मानना अप्रामाणिक नहीं होगा कि ऋग्वेदसे भी पहले सिन्धुसभ्यताके कालमें जैन धर्मका किसी न किसी रूप में अस्तित्व था।
ऋग्वेदमें व्रात्यों के उल्लेख आते हैं। वे श्रमण परंपरासे संबंधित थे। उनका वर्णन अथर्ववेदमें भी है। वे वैदिक विधिके प्रतिकुल आचरण करते थे। मनुस्मृति में लिच्छवियों, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियोंको व्रात्य माना गया है। ये भी सभी श्रमण परंपराके ही प्रतिनिधि थे। व्रात्यों के अलावा वैदिक साहित्यमें यतियोंके उल्लेख भी आते हैं। वे भी श्रमण परंपराके साधु थे। जैनोंमें यति नामकी संज्ञा प्रचलित रही है। कुछ कालके पश्चात् वैदिक साहित्यमें यतियों के प्रति विरोध होता दीख पड़ता है जो पहले नहीं था। ताण्ड्य ब्राह्मणके टीकाकारने यतियोंका जो वर्णन किया है उससे स्पष्ट है कि वे श्रमणपरंपराके मुनि थे। इस प्रकार वदिक साहित्यके विविध ग्रंथाम श्रमणपरंपरा के असंदिग्ध उल्लेख बिखरे पड़े हैं।
अन्य तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिक सत्ता के प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए हैं। यजुर्वेदमें ऋषभदेव तथा द्वितीय तीर्थकर अजित और तेईसवें अरिष्टनेमिके उल्लेख मिलते हैं। अन्तिम चार तीर्थंकरोंकी सत्ता के बारेमें कुछ कहा जाने योग्य है। इक्कीसवें तीर्थकर नमिका साम्य कुछ विद्वान् उत्तराध्ययनमें वर्णित नमिके साथ बिठाते हैं जो मिथिलाके राजा थे। उनके अनासक्ति विषयक उद्गार-वाक्य पालि और संस्कृत साहित्यमें
लते हैं। उसी परंपरामें जनक हुए जो विदेह (जीवन्मुक्त) थे और उनका देश भी विदेह कहलाया। उनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही उनका धनुष प्रत्यंचाहीन प्रतीकमात्र रहा। वैसे व्रात्योंको भी 'ज्याहृद्' कहा गया है और उसका संबंध इस प्रसंगमें ध्यान देने योग्य है।
बाईसवें तीर्थकर नेमि और वासुदेव कृष्ण चचेरे भाई थे। नेमि गिरनार पर तपस्यामें प्रवृत्त हुए और वहीं पर मोक्ष प्राप्त किया। महाभारतका काल १००० ई० पूर्व माना जाता है और वही Annnnnnnnwwwwxnna१ ऋग्वेद ७. २१.५ १०. ९९. ३ । २ अथर्ववेद २०. १३६. ११ । ३ ऋग्वेद १. १६३. ८, ९. १४. २ । ४ अथर्ववेद अध्याय १५ । ५ अध्याय १०।
ऋग्वेद ८.६ १८१०. ७२.७; तैतरीय संहिता २.४.९.२, ऐतरेय ब्राह्मण ७. २८ । ७ ताण्ड्य ब्राह्मण १४. ११. २८; १८. १. ९।
Vide Indian Philosophy. I. Dr. S. Radhakrishnan. p. 287. उत्तराध्ययन. अ. ९ Voice of Ahimsa. Sept.-oct. 1958 (Dr. H. L. Jain's Article).
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जैन धर्मका प्रसार : ११
समय नेमिका ऐतिहासिक काल माना जाना चाहिये । वैदिक वाङ्मयमें वेदसे पुराण तकके साहित्यमें नेमिके उल्लेख देखनेको मिलते हैं।
तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथका जन्म बनारसमें हुआ था। उन्होंने सम्मेतशिखर पर दक्षिण बिहार में मुक्ति प्राप्त की थी। उनका निर्वाण ई० पू० ७७७ में हुआ था। उनका धर्म चातुर्यामके नामसे प्रसिद्ध था। पालि ग्रन्थों में इसके उल्लेख हैं। गौतम बुद्ध के चाचा बप्प शाक्य निग्रंथ श्रावक थे। अतः वे पार्श्वनाथ परंपराके ही उपासक थे। भगवान महावीरके पिता भी इसी परंपराके अनुयायी थे। इस प्रकार बौद्ध धर्मके स्थापनाके पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय काफी सुदृढ़ हो चुका था और विद्वान लोग सर्वसम्मतिसे पार्श्वनाथको ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। उनके कालमें उत्तर प्रदेश, बिहार इत्यादिमें जैन धर्म सुप्रचलित था यह कहने की आवश्यकता नहीं।
महावीर काल
चौबीसवें और अन्तिम तीर्थकर महावीर हुए, जिनका कौटुंबिक संबंध मिथिला के लिच्छवि गणतंत्र और वैशालीसे था। उन्होंने पूर्वपरंपराको एक अद्भुत शक्ति प्रदान की थी। वे ज्ञातृवंशके थे और वैशाली उनका जन्मस्थान था। उनका निर्वाण पावापुरीमें ई० पूर्व ५२७में हुआ था। उन्होंने पार्श्वनाथके चतुर्यामोंको पाँच व्रतों में बदला। उन्होंने ई० पू० छठी शती के द्वितीय और तृतीय पादमें स्थान स्थान पर भ्रमण करके अपने उपदेश दिये थे। उनके द्वारा जिन पूर्व और पश्चिमी प्रदेशोंमें जैन धर्मका प्रचार हुआ। उनके नाम इस प्रकार हैं : पूर्वमें अंग, बंग, मगध, विदेह तथा कलिंग; पश्चिममें कासी, कोसल और वत्स देश। मगधके राजा श्रेणिक बिम्बिसार तथा कुणिक अजातशत्रुका जैन धर्मके साथ जो संबंध रहा वह सुविदित है। वैशाली के गण-प्रमुख चेटक महावीरके मातृपक्षसे संबंधित थे। गणराज्यमें उनका स्थान और प्रभाव सर्वोपरि था। उनका रिश्ता सिन्धु-सौवीरके राजा उदयन और उज्जैनके राजा चंडप्रद्योत तथा कौशाम्बीके राजा शतानीकके साथ था। इस प्रभावके कारण उन प्रदेशोंम जैन धर्मके प्रचारमें काफी प्रेरणा मिली होगी। महावीर के निर्वाणके अवसर पर लिच्छवि और मल्लकी राजाओंका वहां पर उपस्थित होना उनके जैन धर्मानुयायी होनेका प्रमाण है।
महावीरके पश्चात्
___ महावीर के पश्चात् भी मगध के सम्राटों के साथ जैन धर्मका अच्छा संबंध रहा है। अजातशत्रुने वैशाली गणराज्यको छिन्नभिन्न कर दिया। कासी-कोसलका मगधमें समावेशं हो गया। ऐसे विशाल मगध साम्नाज्यके नन्द राजाओं के जैन होनेका वर्णन आता है। इसकी पुष्टि खारवेल के शिलालेखसे भी होती है। आदि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के शिष्य बने थे और उन्होंने समाधिमरण किया था ऐसी भी एक परंपरा है। अशोक भी आरम्भमें जैन थे और बादमें बौद्ध हो गये। संप्रति एक प्रभावशाली जैन सम्राट् थे। उनके धर्मप्रचारके कारण उन्हें जैन अशोक कहा जाता है।
मौर्यकाल के पश्चात् आगेके वर्षों में भारतमें जैन धर्मका प्रसार किस प्रकार हुआ उसका सप्रमाण चित्र जैनों की विभिन्न वाचनाओंसे सामने आता है। ई० पू० चौथी शतीमें प्रथम जैन वाचना पाटलिपुत्र में
१ भारतीय संस्कृतिमें जैन धर्मका योगदान पृ. १९ ।
Vide-Jainism the oldest Living Religion by J. P. Jain. p. 22. २ अंगुत्तर निकाय, चतुकनिपात (वग्ग. ५)।
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१२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ स्थूलिभद्र के नेतृत्वमें हुयी थी। तत्पश्चात् ईसाकी चतुर्थ शताब्दीमें एक वाचना स्कन्दिलाचार्य के सभापतित्वमें मथुरामें और उसी समम अन्य वाचना नागार्जुन के प्रमुखत्वमें वलभीमें हुयी थी। अंतिम वाचना देवर्द्धि गणिके नेतृत्वमें पांचवीं-छठी शतीमें फिर वलभीमें हुयी थी। एक परंपराके अनुसार बारह वर्षीय दुर्भिक्षके कारण ई. पू. चौथी शताब्दीमें भद्रबाहु बहुत बड़े मुनिसमुदायके साथ दक्षिण में गये थे। इन वर्णनोंसे स्पष्ट है कि महावीरके पश्चात् दूसरी शतीसे जैन धर्म का प्रचार पश्चिम और सुदूर दक्षिणकी तरफ होने लगा था।
सातवीं शतीके चीनी यात्री ह्वेनसांगके वर्णनसे यह मालूम होता है कि उस समय में वैशाली में निर्ग्रन्थोंकी बहुत बड़ी संख्या विद्यमान थी। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के मुनि पश्चिममें तक्षशिला
और दिगम्बर निर्ग्रन्थ पूर्वमें पुण्डवर्धन और समतट (बंगाल) तक भारी संख्यामें पाये जाते थे। इस प्रकार उस समय तक जैन धर्म सारे उत्तर भारतमें पर्याप्त प्रमाणमें प्रचलित हो गया था।
प्रारंभिक संघभेद
महावीर तथा उनके गणधरोंके समयमें जैन संघमें जो एकता रही वह बादमें विच्छिन्न हो गयी। जैसे जैसे धर्मका प्रवार विभिन्न प्रदेशोंमें होता गया वैसे वैसे उसमें तरह तरहके लोगोंका समावेश होता गया। समय के साथ परिस्थितियाँ भी बदलती गयीं। इन कारणोंसे संघमें विभेदात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ती गयीं और विभिन्न गण, गच्छ और फिरकोंका प्रादुर्भाव होने लगा। इनमें सबसे बड़ा और विकट भेद श्वेतांबर-दिगंबरोंका हुआ।
श्वेतांबरों के अनुसार महावीरके ६०९ वर्ष पश्चात् ई० स०८२में बोटिक अर्थात् दिगम्बर संप्रदायकी उत्पत्ति मानी जाती है। दिगम्बरों के अनुसार श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति ई० स० ७९में मानी गयी है। दोनों संप्रदायोंको मान्य यह स्पष्ट भेद महावीर के ६०० वर्ष पश्चात् ईसाकी प्रथम शताब्दीमें हुआ। वैसे भेदके लक्षण बहुत पूर्वकालीन प्रतीत होते हैं। महावीरके शिष्य गौतम और पाचारंपरा के श्रमण केशीका संवाद इसी ओर संकेत करता है, हालाकि केशीने महावीर के सिद्धान्तोंको अपना लिया था। इसके पश्चात् हमें सात निह्नवोंके सैद्धांतिक भेदों का पता चलता है। प्रथम निह्नव जमाली तो महावीरका समकालीन था। उसके पश्चात् अन्य छह निह्नव हुए जिनकी कालावधि महावीरके पश्चात् ५८४ वर्ष तककी
ही है। सिद्धान्तभेद होने के कारण वे महावीरसे अलग पड़ गये। आठवें निह्नव बोटिकसे दिगम्बर सम्प्रदायको उत्पत्ति मानी जाती है। महावीरके पश्चात् क्रमशः गौतम, सुधर्मा और जंबूस्वामी दोनों सम्प्रदायों को समान रूपसे मान्य रहे हैं। उनके पश्चात् आचार्य परम्परामें भिन्नता आ जाती है। श्वेताम्बरों के अनुसार पाटलिपुत्रकी वाचनामें भद्रबाहु सम्मिलित नहीं हुए और स्थूलिभद्रकी सहायतासे ही वाचना की गयी। दिगंबरों के अनुसार अकाल पड़ने के कारण भद्बाहु अपने शिष्य-समुदायके साथ दक्षिणकी तरफ चले गये। बादमें लौटने पर उन लोगोंने देखा कि उत्तरी क्षेत्रके साधुसमुदायमें परिस्थितिवश काफी शिथिलता आ गयी है। उनको ये नयी प्रवृत्तियों स्वीकृत नहीं हुयी और इस प्रकार सम्प्रदायभेद प्रस्फुटित हो गया। वाचनामें भद्रबाहका श्वेताम्बरमतानुसार शामिल नहीं होना भी एक आपत्तिजनक मुद्दा ही बना रहता है। इस कारणसे वाचनामें कुछ कमी अवश्य ही रही क्योंकि उन्हें ही सिर्फ चौदह पूर्वोका ज्ञान था। इस तरहसे हम देखते हैं कि समय समय पर भेदात्मक प्रवृत्तियाँ सामने आती रही हैं, परंतु स्पष्ट भेद तो ई० स० की पहली शताब्दीमें ही हुआ ऐसा दोनों सम्प्रदायों की मान्यता से प्रकट है
aaaaaaan
१ श्वेताम्बरों की मान्यता है कि वे ध्यानार्थ नेपाल गये थे।
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जैन धर्मका प्रसार : १३
श्रुतकी परंपरा मौखिक रूपसे आ रही थी। दो-तीन वाचनाओं के द्वारा उसे समय समय पर नष्ट होनेसे . बचाया गया। अन्तिम वाचना देवद्धि गणिके सभापतित्वमें छठी शतीमें वलभीमें हुयी। उस समय श्रुतको लिखित रूप दिया गया। इस लिखित रूपसे श्वेताम्बरों और दिगम्बरोंकी भेदभावनाको और भी शक्ति मिली। इस प्रकार उत्तरोत्तर कालमें यह भेद प्रबल बनता ही गया और इसके पल-स्वरूप गुरुपरंपरा भी भिन्न भिन्न हो गयी तथा दोनोंका साहित्य भी अलग अलग।
श्वेताम्बर-दिगम्बर के अलावा यापनीय नामक एक अन्य सम्प्रदाय भी प्रचलित हुआ जो दक्षिण में ही पनपा। कहा जाता है कि दूसरी शती में एक श्वेताम्बर मुनि श्रीकलशने कल्याण नगरमें यापनीय संघकी स्थापना की। यापनीयोंका उल्लेख बादकी कई शतियों तक साहित्य और लेखोंमें होता रहा है। यह संघ श्वेताम्बर-दिगम्बरका समन्वय रूप था। इसका मुख्य अड्डा कर्नाटकमें बना रहा। पांचवीं-छठी शती में वह वहां पर सुदृढतासे जम गया था।
दिगम्बर सम्प्रदायका विविध संघोंमें विभाजन इस प्रकार हुआ है। उनका पुराने में पुराना मूल संघ है जिसकी स्थापना दूसरी शताब्दीमें हुयी थी। पुष्पदंत और भूतबलि के गुरू आचार्य अर्हद्बलिने मूल संघकी चार शाखाएँ स्थापित की थी। वे थी सेन, नंदी, देव और सिंह।
पांचवीं शतीमें मदुरा (दक्षिण) में वजनं दिने द्राविड संघकी स्थापना की थी। कुमारसेन मुनिने सातवीं शतीके अन्तमें नंदीतट ग्राममें काष्ठा संघको स्थापित किया। मदुरा(उत्तर)में माथुर संघकी स्थापना नवीं शतीके अन्त में रामसेन मुनिने की थी। भिल्लक संघका उल्लेख भी आता है। विन्ध्यपर्वतके पुष्कल नामक स्थानपर वीरचन्द्र मुनिने दशवीं शती के प्रारंभमें इस संघकी स्थापना की थी। इससे भीलों द्वारा जैन धर्मको अपनानेका प्रमाण मिलता है।
श्वेताम्बरोंमें भी कई गच्छोंकी उत्पत्ति हुयी। गगधर गौतमके पश्चात् पट्ट-परम्परा गणधर सुधर्माने संभाली थी। उनकी परंपरामें छठे आचार्य यशोभद्र हुए। उनके दो शिष्य थे संभूतिविजय और भद्रबाहु, जिनसे दो भिन्न शिष्यपरंपराएँ चलीं। संभूतिविजयकी परंपरामें नाइल, पोमिल, जयन्त और तापस शाखाएँ चल पड़ी तथा भद्रबाहुकी परंपरामें ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिका, पौण्ड्रवर्धनिका और दासीखबडिका। सातवें आचार्य के शिष्योंकी परंपरामें तेरासिय शाखा तथा उत्तर बलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उडुवाडियगण, वेसवाडियगण, माणवगण और कोटिकगण स्थापित हुए और उनका कई शाखाओं और कुलोंमें विभाजन हुआ। . आगेके वर्षों में गच्छोंकी स्थापना होने लगी। उनमें से मुख्य मुख्य इस प्रकार हैं : आठवीं शताब्दीमें उद्योतनसूरिने वृहद्गच्छकी स्थापना की। खरतरगच्छका उद्भव ग्यारहवीं सदी में हुआ।. बारहवीं शतीमें अंचलगच्छका प्रादुर्भाव हुआ और इसी शतीमें आगमिक गच्छकी स्थापना की गयी। तपागच्छ १३ वीं शती में स्थापित हुआ था।
उत्तरकालीन संघभेद
श्वेताम्बर-दिगम्बर भेदके कारण मुनियोंके आचार पर काफी प्रभाव पड़ा तथा उसमें भेदभाव बढ़ा। बादमें अन्य सम्प्रदाय, गण या गच्छ उत्पन्न हुए उनमें इतना आचार संबंधी कोई भेदभाव नहीं होने पाया। श्वेताम्बरोंमें वस्त्रकी मात्रा बढ़ने लगी। पहले दोनों सम्प्रदायोंमें तीर्थंकरोंकी नग्न समान रूपसे प्रचलित थीं, परंतु सातवीं-आठवीं शतीसे श्वेताम्बर मूर्तियोंमें कोपीनका चिह्न बनाया जाने लगा तथा मूर्तियोंको वस्त्र व अलंकारोंसे सजानेकी प्रवृत्ति भी बढ़ गयी। इस कारण इन दोनों के मन्दिर भी अलग अलग हो गये। दोनों सम्प्रदायोंमें एक और प्रवृत्तिने जन्म लिया। सामान्यतः वर्षाऋतु में
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१४ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
ही मुनिलोग एक स्थल पर ठहरते थे, परंतु पांचवीं छठीं शती से स्थायी रूपसे कुछ मुनि चैत्यालयों में ठहरने लगे। इस कारण वे चैत्यवासी कहलाये और भ्रमणशील मुनि वनवासी । चैत्यवासियों में आचारशिथिलता आ गयी और धीरे धीरे मंदिरोंमें मठों तथा श्रीपूज्यों और भट्टारकोंकी गद्दियाँ स्थापित हुयी और परिग्रहकी भावनाने जोर पकड़ा। एक स्थान पर ठहरनेका कारण था पठन-पाठन व साहित्यरचना में सुविधा प्राप्त करना । इससे एक लाभ अवश्य हुआ, अनेक शास्त्रभंडार स्थापित हुए। ये शास्त्र-भंडार सारे भारत में फैले हुए हैं, खास तौर से गुजरात, राजस्थान तथा मैसूर में ।
१५ वीं शती में मूर्तिपूजाविरोधी आन्दोलन शुरू हुआ और श्वेताम्बरोंमें अलग सम्प्रदायोंकी स्थापना हुयी । श्वेताम्बरों में लोंकाशाहने इस मतकी स्थापना की और वह आगे जाकर ढूंढिया और स्थानकवासी संप्रदाय कहलाया । इसमें मंदिरोंके बजाय स्थानक और आगमोंकी विशेष प्रतिष्ठा है। उनको ३२ आगम मान्य हैं तथा अन्य आगमोंको वे स्वीकार नहीं करते १८वीं शती में आचार्य भिक्षुने स्थानकवासी सम्प्रदायसे अलग हो कर तेरापंथी सम्प्रदायकी स्थापना की ।
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दिगम्बरों में तारण स्वामीने तारण पंथकी स्थापना १६वीं शती में की, जो मूर्तिपूजा का निषेध करता है । अन्य सम्प्रदायोंमें १७वीं शती में तेरा पंथ और १८वीं शती में गुमान पंथकी स्थापना हुयी । उनमें • बीस पंथ और तोटा पंथ भी प्रचलित है।
उत्तर भारत में जैन धर्म
जैन धर्मकी महावीरके काल तक प्राचीन समय में क्या स्थिति रही तथा आगे किस प्रकार के संभेद हुये उनका वर्णन करनेके पश्चात् अब भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्मका आगामी शतियों में किस प्रकार प्रसार हुआ उसका वर्णन किया जायगा ।
बिहार
बिहार के साथ जैन धर्मका सम्बन्ध इतिहासातीत कालसे रहा है। कई तीर्थकरोंने उसी प्रदेश में जन्म लिया तथा बीस तीर्थंकरोंका निर्वाण सम्मेतशिखर पर हुआ। महावीर के स्थल स्थल पर विहार करने के कारण इस प्रदेशका नाम ही विहार ( बिहार ) हो गया। वहाँसे उड़ीसा में जानेका रास्ता मानभूम और सिंहभूम से था । इन दो प्रदेशोंकी सराक जाति जैन धर्मको अविच्छिन्न परंपराकी द्योतक है। मानभूम के 'पच्छिम ब्राह्मण' अपनेको महावीर के वंशज मानते हैं। वे अपनेको प्राचीनतम आर्योंके वंशज मानते हैं, जिन्होंने अति प्राचीन कालमें इस भूमि पर पैर रखा था। वे वैदिक आर्यों के पूर्व इस तरफ आये थे। मानभूम और सिंहभूम जिलोंमें जैनावशेष काफी संख्या में प्राचीन कालसे ग्यारहवीं शती तक मिलते है । सम्राट खारवेल के कालमें मगध में फिरसे जैन धर्मने जोर पकड़ा था। वह गया के पास बराबर पहाड़ी तक आया था। शहाबाद में सातवीं से नवीं शताब्दी तक के पुरातत्त्व मिलते हैं। राष्ट्रकूटों और चन्देलोंने भी छोटा नागपुर में राज्य करते समय जैनोंके प्रति सहानुभूति रखी थी । ग्यारहवीं शती में राजेन्द्र चोलने बंगाल से लौटते समय मानभूमके जैन मंदिरोंको ध्वस्त किया था।
बंगाल
महावीरने स्वयं लाढ ( राध - पश्चिमी बंगाल ) में भ्रमण किया था और वहां पर लोगोंने उनको काफी सताया था। पहले यह अनार्य प्रदेश माना जाता था । परंतु महावीरके प्रभावमें आनेके पश्चात् इसे भी आर्य देश माना जाने लगा। प्रथम भद्रबाहुका जन्म कोटिवर्ष (उत्तरी बंगाल) में ही हुआ था ।
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जैन धर्मका प्रसार : १५
भद्रबाहु के चार शिष्योंने जिन चार शाखाओंकी स्थापना की उनके नाम बंगालके स्थानीय नामों परसे ही दिये गये हैं, जैसे कोटिवर्षिका, ताम्रलिप्तिका, पौण्डवर्धनिका और दासीखबडिका। तत्पश्चात् गुप्तकालीन पांचवीं शतीका पूर्वीबंगालमें पहाड़पुरसे एक ताम्रलेख मिला है जिसमें जिनमूर्तिकी प्रतिष्ठाका उल्लेख है। सातवीं शतीके चीनी यात्री ह्वेनसांगने लिखा है कि बंगाल के विभिन्न भागोंमें निर्ग्रन्थ काफी संख्यामें विद्यमान थे। पालवंशके राज्यकालकी नवीं और दशवीं शताब्दियों के आसपासकी प्रचुर मात्रामें जैन मूर्तियां खुदाई में निकली हैं जिनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस कालमें भी जैन बस्ती वहाँ पर काफी मात्रामें विद्यमान थी। पाल राजा स्वयं बौद्ध धर्मी थे परन्तु अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता रखते थे। उनके बाद सेनों के समयसे जैन धर्मका वहाँ पर हास होता गया। वे कट्टर ब्राह्मणवादी थे। पिछले करीब तीन सौ वर्षोंसे बंगाल में जैन लोग बसने लगे हैं परंतु मूल बंगाली जैनोंकी कोई अविच्छिन्न धारा नहीं दिखती।।
उज्जैन और मथुरा
उज्जैन के राजा और गणाधिपति चेटकके बीच महावीर के कालमें ही सम्बन्ध हो गया था। उसके पश्चात जैन धर्मकी वहां पर क्या स्थिति रही स्पष्टतः नहीं कहा जा सकता, परंतु ई० पू० की प्रथम शताब्दी में वहां पर जैन लोग विद्यमान थे यह हमें गर्दभिल्ल और कालकाचार्य के कथानकसे स्पष्ट मालूम होता है। गुप्तकालीन एक लेख के अनुसार उदयगिरि(विदिशा-मालवा)मे पार्श्वनाथकी प्रतिष्ठा करायी गयी थी। मथुरामें प्राप्त जैन पुरातत्त्व सामग्रीसे यह पता चलता है कि ई० पू० द्वितीय शताब्दीसे ई० स० १०वीं शताब्दी तक यह प्रदेश जैन धर्मका महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना हुआ था। यहाँ के लेखोंमें कुषाण राजाओं के उल्लेख हैं। गुप्त राज्य-कालके लेख भी प्राप्त हुए हैं। हरिगुप्ताचार्य तो गुप्तवंशके ही पुरुष थे जो तोरमाण (छठी शती)के गुरु थे। मथुरामें प्राप्त प्राचीन जैन स्तूप कोई कोई विद्वान् महावीरसे भी पूर्वका बतलाते हैं। कहा जाता है कि इसकी स्थापना सुपार्श्वनाथकी स्मृतिमें की गयी थी और पार्श्वनाथके समयमें इसका उद्धार किया गया था। मथुराके पंचस्तूपोंका उल्लेख जैन साहित्य में आता है। यहींसे पंचस्तूपान्वय भी प्रारंभ हुआ हो तो असंभव नहीं।
गुजरात
मथुराके साथ वलभीमें चौथी शती के प्रथम पादमें नागार्जुनीय वाचना तथा गुजरातके गिरनार पर्वतके साथ धरसेनाचार्य और पुष्पदन्त तथा भूत बलि(षटखंडागमके रचनाकार)के संबन्धसे यह प्रतीत होता है कि इस प्रदेशके साथ जैन धर्मका संबंध ईसाकी प्रथम शताब्दियोंसे है। इससे पूर्व भी जैन धर्मका इस प्रदेशके साथ संबंध रहा है। भगवान नेमिनाथकी चर्या और मुक्ति सौराष्ट्र के स्थलोंसे ही जुड़ी हुयी है। वलभीकी द्वितीय तथा अन्तिम वाचनासे सुस्पष्ट है कि पाँचवीं-छठी शती में जैन धर्म इस प्रदेशमें काफी सुदृढ़ हो गया था। सातवीं शतीके दो गूर्जर नरेशोंका इस धर्मसे अनुराग था ऐसा उनके दानपत्रों से सिद्ध होता है। वनराज चावडा-राजवंश के संस्थापक थे। उनसे जैन धर्मको यहाँ पर प्रोत्साहन मिला। मूलराजका बनाया हुआ अणहिलवाड़का जैन मंदिर आज भी विद्यमान है। राजा तोरमाणके गुरु हरिगुप्ताचार्यके प्रशिष्य शिवचन्द्र के अनेक शिष्योंने गुजरातमें जैन धर्मका प्रचार किया तथा अनेक जैन मन्दिर बनवाये।
सोलंकी राजा भीमके मंत्री विमलशाहने ११वीं शतीमें आबू पर जो मंदिर बनवाया वह अपनी कलाके लिए जगत्प्रसिद्ध है। उन्होंने ही चन्द्रावती नगरी बसायी थी। इससे राजा भीम की जैन धर्मके
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१६ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
प्रति कितनी सहानुभूति रही होगी यह प्रकट होता है। सिद्धराज और कुमारपालके समय में तो जैन धर्मका यहां पर सुवर्णयुग रहा। उसी समय हेमचन्द्राचार्य के कारण जैन धर्मकी जो सेवा हुयी उसका प्रभाव सदा के लिए रह गया और गुजरात जैन धर्मका एक बलशाली और समृद्ध केन्द्र बन गया । १३वीं शती में वस्तुपाल और तेजपाल नामक श्रेष्ठबंधुओंने आबू पर एक मंदिर बनवाया जो अपनी कला के लिए अद्वितीय है ।
शत्रुंजय और गिरनार के तीर्थक्षेत्रों को भी अलंकृत करनेमें अनेक सेठों और राजाओंका योग दान रहा है । खंभातका चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर भी १२वीं शती में बनवाया गया था और तेरहवीं शती के अन्तमें इसका जीर्णोद्धार किया गया था। राजस्थान के अनेक धर्मानुयायियोंने दान देकर इस मंदिर की समृद्धि बढायी है । तेरहवीं शती में दानवीर शेठ जगडूशाह हुए। वे कच्छ प्रदेशके रहने वाले थे। उन्होंने गिरनार और शत्रुंजय गिरिका संघ निकाला था। वे गरीबों को काफी आर्थिक सहायता करते थे और एक भारी दुष्कालमें राजा वीसलदेव के कालमें उन्होंने आसपास के राजाओंको सहायता करके प्रजाको भूख से मरने से बचाया था। पेथड़शाह भी इसी समय के आसपास हुए थे। पन्द्रहवीं शतीका समय सोमसुन्दर युग कहा जाता है। आचार्य सोमसुन्दर ने जैन धर्मकी प्रभावनाके लिए जैनोंको काफी प्रोत्साहित किया था । पन्द्रहवीं शती में ही लोकाशाहने स्थानकवासी सम्प्रदायकी स्थापना की थी। सोलहवीं शती में ही विजयसूरि जैसी एक महान विभूतिका जन्म पालनपुरमें हुआ था। उनका अकबर पर अच्छा प्रभाव पड़ा था जिससे जैन धार्मिक उत्सवोंके दिनों में पशुहिंसा निषेध के फ़रमान बादशाहने जारी किये थे । सोलहवीं शती जैनों में हैरक युग के नामसे प्रसिद्ध है ।
राजस्थान
राजस्थान में जैन धर्मका अस्तित्व मौर्य कालसे पूर्वका पाया जाता है। अजमेर के निकट बड़ली (नगरी) से जो शिलालेख मिला है वह भारतका प्राचीनतम लेख है । उसमें महावीर निर्वाणके ८० वे वर्षका उल्लेख है । इस प्रकार ई० पू० पांचवी, शती में वहां पर जैन धर्म विद्यमान था । चितौड़ के पास मध्यमिका नामक जो स्थान है उसके नामसे ई० पू० तृतीय शती में एक मुनिशाखाकी स्थापनाका उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है। मालवा में कालिकाचार्य के द्वारा शकांके लानेका उल्लेख है । उस समय अर्थात् ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में राजस्थानका दक्षिणी पूर्वी भाग मालवा में शामिल था । ईसा पूर्व और पश्चातकी एक-दो शताब्दियों में मथुरा में जैन धर्म बहुत सुदृढ़ था । इसके आधार से यह माना जाता है कि उस समय राजस्थान के उत्तर-पूर्वी भागमें भी जैन धर्म प्रचलित होगा । बुन्दी के पास केशोरायपट्टनमें जैन मंदिर के भग्नावशेषोंकी संभावना पांचवीं शतीकी की जाती है । सातवीं शती में ह्वेनसांग के वर्णन से भिन्नमाल और वैराटमें जैनोंका अस्तित्व प्रकट होता है । वसन्तगढ(सिरोही) में ऋषभदेवकी धातुकी मूर्ति पर छठीं शतीका लेख विद्यमान है। आठवीं शती के हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के निवासी थे । वीरसेनाचार्यने षटखंडागम तथा कषायप्राभृत एलाचार्यसे ८ वीं शती में चित्तौड़ में ही सीखा था। इसी शती में उद्योतनसूरिने आबू पर बृहद्गच्छकी स्थापना की थी ।
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राजपूत राजा मुख्यतः विष्णुभक्त और शैव थे फिर भी जैन धर्म के प्रति उनका सौहार्द हमेशा बना रहा है।
प्रतिहार राजा वत्सराज ( ८ वीं शती) के समयका ओसियाका महावीरका मन्दिर आज भी विद्य मान है। मंडौर के राजा कक्कुकने नवीं शतीमें एक जैन मंदिर बनवाया था। कोटा के पासकी जैन
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जैन धर्मका प्रसार : १७
गुफाएँ ८वीं-९वीं शतीकी हैं तथा ८वींसे ११वीं शती के जीर्ण मंदिर भी देखनेको मिलते हैं। आघाट(उदयपुर)का पार्श्वनाथ-मंदिर एक मंत्री के द्वारा १०वीं शतीमें बनवाया गया था। सिद्धर्षि उसी शतीमें श्रीमालमें जन्मे थे। लोदोरवा(जैसलमेर)में राजा सागरके पुत्रोंने पार्श्वनाथका मंदिर बनवाया था। परमारकालीन १०वीं शतीमें आबूके राजा कृष्णराजके समयमें दियाना(सिरोही)में एक जैनमूर्तिकी स्थापना की गयी थी। उसी समयके हथंडी(बीजापुर)के राठौड़ोंसे जैन धर्मको सहायता मिलने के उल्लेख हैं। विदग्धराजने तो एक जैन मंदिर बनवाया था। छठींसे बारहवीं शती तक शूरसेनोंका राज्य भरतपुर पर था और उस समयके कुछ राजा जैन थे। इस कालमें वहां पर बहुतसी प्रतिष्ठाएँ हुयीं। अलवर के मंदिरों के शिलालेख ११वीं-१२वीं शती के गूर्जर प्रतिहारोंके कालके प्राप्त होते हैं।
चौहान पृथ्वीराज प्रथमने १२वीं शती के प्रारम्भमें रणथंभौरके जैन मंदिरोंपर सुवर्णकलश चढाये थे। उसके वंशजोंका भी जैन धर्म के प्रति सौहार्द बना रहा। बीसलदेवने एकादशीको कतलखाने बंद करवा दिये थे। जिनदत्तसूरि बारहवीं शतीमें हुए थे। उनका स्वर्गगमन अजमेर में हुआ था। वे मरुधर के कल्पवृक्ष माने गये हैं। पृथ्वीराज द्वितीयने पार्श्वनाथ मन्दिरकी सहायता के लिए बिजोलिया नामक गाँव दान में दिया था।
वनराज चावडाने भिन्नमालसे जैनोंको बुलाकर पाटनमें बसाया था। हेमचन्द्र के काल में राजस्थान में भी जैन धर्मने काफी प्रगति की। सोलंकी कुमारपालने पाली (जोधपुर)के ब्राह्मणोंको यज्ञमें मांसके बदले अनाजका उपयोग करने के लिए बाध्य किया था। उसने जालौर में एक जैन मंदिर बनवाया था। आबूके जैन मंदिर भी उसीके कालमें बने थे तथा सिरोहीका डबागी गाँव उनकी सहायतार्थ दानमें दिया गया था।
सेवाडीके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि वहाँके राजघराने १०वींसे १३वीं शती तक जैन संस्थाओंको सहायता करते रहें। इसी प्रकार नाडौल, नाडलाई और सांडेरावकी जैन संस्थाओंको भी मदद मिलती रही। कुमारपालके अधीन नाडोलके चौहान अश्वराजने जैन धर्म स्वीकार किया था। १२वीं-१३वीं शतियोंमें जालौरके जैनोंको वहां के सामन्तोंसे सहायता मिलनेके लेख विद्यमान हैं। मेवाड़की एक रानीने १३वीं शतीमें चित्तोड़में पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया था। इसी शतीमें जगचन्द्रसूरिको मेवाड़ के राणाने तपाकी पदवी दी थी और उनका गच्छ तपागच्छ कहलाया। बारहवींसे चौदहवीं शती में झाड़ोली, चन्द्रावती, दत्तानी और दियाणा(सिरोही जिला)के मन्दिरोंके लिए भूमिदानके लेख मिलते हैं।
कालन्द्री(सिरोही के पूरे संघने १४वीं शती में ऐच्छिक मरणको अपनाया था। जिनभद्रसूरिने १५वीं शतीमें जैसलमेरमें बृहज्ञानभण्डार स्थापित किया था। राजस्थानमें शास्त्रको सुरक्षित रखनेका तथा उसकी अनेक प्रतियाँ करवानेका श्रेय इन्हीं को है। १५वीं शतीमें राणा कुम्भाने सादडी में एक जैन मंदिर बनवाया था। उन्हीं के कालमें जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ के किलेमें बना था। राणकपुरका जैन मंदिर भी उसी समय की रचना है जो स्थापत्य कलाका एक अत्यन्त सुंदर नमूना है। राणा प्रतापने तो हीरविजयसूरिको मेवाड़ में बुलाया था। अकबर के पास जाते समय वे सिरोहीमें ठहरे थे और उन्हें सूरिकी पदवीसे वहां पर ही विभूषित किया गया था। श्वेताम्बर लोकागच्छके प्रथम वेषधारी साधु भाणा थे जो अरठवाड़ा(सिरोही) के रहने वाले थे। वे १४७६में साधु बने थे। तेरापंथके प्रवर्तक भीकमजी भी मेवाड़ के ही थे जो १८वीं शती में हुए ।
१७वीं शतीमें औरंगजेबके कालमें कोटामें कृष्णदासने एक जैन मंदिर बनाकर बडी हिम्मत
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१८ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
दिखायी और जैनों के प्रभावका अच्छा परिचय दिया। समयसुन्दर १६वीं-१७वीं सदी में हए। वे राजस्थानीके अग्रलेखक माने गये हैं। दिगम्बर तेरापन्थके संस्थापक अमरचन्द सांगानेरके थे, जिनका काल १७वीं शतीका है। १८वीं शतीमें जयपुर के गुमानी रामने गुमानपंथ की स्थापना की थी।
पन्द्रहवीं शतीसे उन्नीसवीं शती तक राजस्थान में जैन धर्मका जो प्रभाव रहा वह संक्षेपमें इस प्रकार अंकित किया जा सकता है: स्थल-स्थल पर मन्दिर बनवाना, प्रतिष्ठाएं करना, राजपुरुषोंसे अनुदानके रूपमें जमीन प्राप्त करना इत्यादि; स्तूप, स्तम्भ, पादुकाओं तथा उपाश्रयों की स्थापना और मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करना। इसी कालमें राजस्थानी और हिन्दीके कई साहित्यकार भी हुए। जयपुर के कछवाहों के अधीन करीब ५० दीवान जैन थे, जिनके कारण जैन धर्मको सभी क्षेत्रोंमें प्रोत्साहन मिला।
मुस्लिम आक्रमणके कारण जैन मन्दिरोंकी मस्जिदें भी बनायी गयीं। १२वीं शतीका अजमेरका अढाई दिनका झोपड़ा व सांचौर और जालौरकी मस्जिदें जैन मन्दिर ही थे। जीरावला पार्श्वनाथ मंदिरको भी इसी प्रकार क्षति हुयी। १६वीं शतीमें बीकानेरके मन्दिर पर भी आक्रमण हुआ था। कोटाके शाहबादमें इसी प्रकार औरंगजेबने एक मस्जिद बनायी थी।
राजकारणमें जैनोंके योगदानके भी कई उदाहरण प्राप्त हैं। कुमारपालके राज्यकालमें विमलशाह आबूके प्रतिनिधि थे। जालौरका उदयन खम्भातका राज्यपाल था। १६वीं शती के वीर तेजा गदहीया ने जोधपुरका राज्य शेरशाहसे राजा मालदेवको वापिस दिलवाया था। दीवान मुहणोत नैनसी, रत्नसिंह भंडारी, अजमेरके शासक धनराज और कूटनीतिज्ञ इन्द्रराज सिंधीके नाम भी उल्लेखनीय हैं। करमचन्द बीकानरेके राजा का एक दण्डनायक था। मेवाड़ के आशाशाहने उदयसिंहको शरण दी थी। भामाशाह राणा प्रतापके दीवान थे जिन्होंने प्रतापको आपत्ति कालमें अद्भुत सहायता की थी। ११वीं शतीके आमेरके दीवान विमलदास युद्ध में लड़ते लड़ते मरे थे। दीवान रामचन्द्रने आमेरको मुगलोंसे वापिस लिया था। उनका नाम सिक्कों पर भी छा था।
इस प्रकार यह साबित होता है कि हिन्दू राजाओंके अधीन होते हुए भी राजस्थान में जैनोंका प्रभाव और प्रचार राजपूत कालमें काफी बढ़ा चढ़ा था और उसी परंपराके कारण राजस्थान में अब भी जैन मतके अनुयायी काफी संख्यामें पाये जाते हैं।
दक्षिण भारतमें जैन धर्म
उत्तर भारतमें अकाल पड़ जाने के कारण भद्रबाहु अपने विशाल मुनिसंघके साथ श्रवण बेलगोला गये। मौर्य राजा चन्द्रगुप्तने उनके ही शिष्यत्वमें वहां पर समाधिमरण किया था। परंपरासे यह भी जानकारी मिलती है कि भद्रबाहुने अपने शिष्य विशाख मुनिको आगे दक्षिणमें चोल और पाण्ड्य देशोंमें धर्मप्रचारार्थ भेजा था। इस घटनाके बल पर भद्रबाहुको दक्षिण देशमें जैन धर्म के प्रथम प्रचारकका श्रेय दिया जाता है। परंतु एक विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि भद्रबाहु के पूर्व उस प्रदेशमें जैनियोंका बिल्कुल अभाव था तो इतने बड़े मुनिसंघने किन लोगों के आधार व आश्रय पर अकस्मात एक अपरिचित देशमें जाने की हिम्मत की होगी। मालूम होता हैं कि उनके पहले भी वह परां जैन धर्म विद्यमान था और उनके प्रमाण भी मिलते हैं। अशोकके समय में बौद्ध धर्मका प्रचार लंकामें उनके पुत्र-पुत्री द्वारा प्रारंभ किया गया था, परंतु जैन धर्मका प्रचार तो उसके पहले ही लंकामें हो चुका था। अजैन साहित्य इसका साक्षी है। पालि महावंश तथा दीपवंशके अनुसार पाण्डुकाभय के राज्यकालमें अनुराधपुर में निर्ग्रन्थोंके लिए निवासस्थान बनाये गये थे। वह काल ई० पू० पांचवीं-शतीका है। इतने प्राचीन कालमें लंकामें जैन धर्म
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जैन धर्मका प्रसार : १९
कहाँसे पहुँचा होगा । इसका उत्तर खोजते समय स्वाभाविक तौरसे यही कहना पड़ता है कि ई० पूर्व पांचवीं और चौथी शती में कलिंग - आन्ध्र तथा तामिल देशसे होता हुआ वह लंकामें आया होगा । अतः भद्रबाहु दक्षिण देशमें जैन धर्म के आदि प्रवर्तक नहीं वरन् उसको पुनः जाग्रत करने वाले थे। जिस प्रकार एक धारा आन्ध्र देशसे दक्षिण देशमें गयी उसी प्रकार भद्रबाहुके कालसे दूसरी धारा कर्नाटकसे दक्षिण देशको जैन धर्मसे आप्लावित करती रही। इस धाराका ईसाकी प्रथम १०-१२ शताब्दियों तक दक्षिण में अविच्छिन्न स्रोत बहता रहा है। वहाँके अनेक ध्वंसावशेषों, मंदिर व मूर्तियोंसे यही सिद्ध होता है कि यह धर्म वहां पर लोकप्रिय रहा है। पूरे के पूरे राजवंशों के साथ इसका जिस प्रकारका दीर्घकालीन संबंध रहा है वैसा उत्तर भारत में भी नहीं रहा। इस दृष्टिसे दक्षिण देशके प्राचीन इतिहास में जैन युगों के दर्शन किये जा सकते हैं ।
द्रविड़ प्रदेश
चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र सम्प्रतिने जैनधर्म के प्रचारमें जो योग दिया था उसके कारण तामिल ( द्राविड़ ) देश में भी जैन धर्मको बल मिला था ऐसा साहित्यिक परंपरा बतलाती है । इस प्रसंगमें ई० पू० दूसरीतीसरी शती के ब्राह्मी लिपिके शिलालेख तथा ईसाकी चौथी पांचवीं शतीकी चित्रकारी उल्लेखनीय है ' । रामनद (मदुरा ), तिन्नावली और सितन्नवासलकी गुफाओंमें उपर्युक्त जैन प्रमाण मिलते हैं, जिनसे मालूम होता है कि ये स्थल जैन श्रमणोंके केन्द्र थे ।
ईसाकी करीब १५ शताब्दियों तक जैन धर्मने तामिल लोगों के साहित्य और संस्कृति के साथ गहरा संबंध बनाये रखा है । ईसाकी प्रथम शताब्दियों में तामिल देश के साहित्य पर जैनों का प्रभाव तो सुस्पष्ट है। तामिल काव्य कुरल और तोलकाप्पियम इस प्रसंगमें उल्लेखनीय है । कुरल के पश्चात्का अधिकतर शिष्ट साहित्य (Classical) जैनों के आश्रयमें ही फला फूला । पांच प्राचीन महाकाव्यों में से तीन कृतियां तो जैनोंकी हैं। सीलप्पदिकारम् ( दूसरी शती), बलयापदि और चिन्तामणि (१०वीं शती) ये तीन जैन ग्रन्थ हैं। अन्य काव्यों में नीलकेशी, बृहत्कथा, यशोधर काव्य, नागकुमार काव्य, श्रीपुराण आदिका नाम लिया जा सकता है । बौद्ध काव्य मणिमेकलइसे भी प्राचीन कालमें तामिल देश पर जैनोंके प्रभाव और वैभवका काफी दिग्दर्शन होता है ।
कुरलके अनुसार मैलापुर तथा महाबलिपुरम में जैनों की बस्तियां थीं। दूसरी शती में मदुरा जैन धर्मका मुख्य केन्द्र था। समन्तभद्रका इस नगरीसे जो संबंध रहा है वह सुविदित है। पांचवीं शती में ही वज्रनन्दीने यहां पर द्राविड संघकी स्थापना की थी । कांची प्रदेशके चौथीसे आठवीं शती तकके पल्लब राजाओंमें बहुत-से जैन थे । ह्वेनसांगने सातवीं शती में कांचीको जैनोंका अच्छा केन्द्र माना है । सातवीं-आठवीं शतीके जैन शिलालेख आरकोटके पास पंचपांडव मलय नामक पहाड़ी पर प्राप्त हुए हैं।
पांचवीं शती के पश्चात् कलभ्र राजाओंका अधिकार पाण्ड्य, चोल और चेर राज्यों पर हो गया था। यह जैनोंका उत्कृष्ट काल था क्यों कि कलभ्र राजाओंने जैन धर्म अपनाया था। इसी समय जैन नादिया की रचना हुई थी। इस प्रकार पांचवीं से सातवीं शताब्दी तक जैनोंका राजनीति पर भी काफी प्रभाव बना रहा। महान् तार्किक अकलंकाचार्य आठवीं शती में ही हुए थे । तत्पश्चात् शैव और
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Studies in South Indian Jainism. I. p. 33. & Jainism in South India. pp. 28, 31, 51, 53.
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२० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ वैष्णव मतोंके प्रचारसे जैन धर्म अवनतिकी ओर अग्रसर होने लगा। सातवीं शतीका पल्लव राजा महेन्द्रवर्मा जैन था, परंतु बादमें शैव हो गया। पाण्ड्य राजा सुन्दर पक्का जैनी था, परंतु उसकी रानी
और मन्त्री शैव थे उनके कारण तथा शैव भक्तकवि सम्बन्दरके प्रभावसे वह शैव हो गया। शैव नायनारोंके कारण सातवीं-आठवीं शतीसे जैन धर्मको काफी धक्का पहुंचा।
- आठवीं शतीसे वैष्णव अल्वारोंने भी जैनोंका जबरदस्त विरोध करना शुरू कर दिया था। फिर भी ८वीं से १२वीं शती तकके राजाओंने निष्पक्ष भावसे जैनोंके प्रति सहानुभूति भी बर्ती थी। सितन्नवासलमें ८वीं-९वीं शताब्दीके जैन शिलालेख तामिल भाषामें प्राप्त होते हैं। नवीं शती में ट्रावनकोरका तिरुच्छा नझुमलै श्रमणोंके पर्वतके रूपमें विख्यात था। १०वीं-११वीं शती में चोल
और पाण्ड्य देशोंमें सर्वत्र जैन लोग विद्यमान थे। १३वीं शतीमें उत्तर आरकोटमें जैनोंके अस्तित्वके बारेमें अच्छे प्रमाण मिलते हैं। तिरुमलै स्थानके १०वीं-११वीं और १४वीं शती तकके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि वह उस समयमें जैन केन्द्र बना हुआ था। १५वीं-१६वीं शतीका बड़ासे बड़ा कोशकार मंडलपुरुष हुआ जिसने निघंटू चूडामणिकी रचना की।
आन्ध्र प्रदेश (पूर्वकालीन दक्षिण उड़ीसा, कलिंगादि)
कलिंग देश(तोसलि)में स्वयं महावीर गये थे। नन्द राजाओंके समय में कलिंग-उड़ीसामें जैनोंका काफी प्रचार हो चुका था। खारवेल के समय ई० पू० दसरी शती में यहाँ पर जैन धर्मको बहत प्रोत्साहन मिला क्योंकि वे स्वयं जैन थे। यहांके उदयगिरि-खण्डगिरिकी गुफाओंमें १०वीं शती तकके जैन शिलालेख मिलते हैं। सातवीं शतीमें ह्वेनसांगने कलिंग देशको जैनोंका गढ़ बताया है। उसके बाद सोलहवीं शताब्दीमें भी उस क्षेत्र के राजा प्रताप रुद्रदेवके जैन-सहिष्णु होनेके उल्लेख हैं।
सम्राट सम्प्रतिके द्वारा आन्ध्र प्रदेशमें जैन धर्मको फैलाने के उल्लेख जैन साहित्यमें आते हैं। ईसाकी दूसरी शती में कुडापामें सिंहनंदिको दो राजकुमार मिले थे जिन्होंने कर्नाटकके गंगवंशकी स्थापना की थी। अतः उस समय इस प्रदेशमें जैन धर्म काफी प्रचलित होगा। कालकाचार्य के कथानकसे राजा सातवाहन हालकी जैनधर्मके प्रति सहानुभूति होनेकी झलक मिलती है। पूज्यपादके पांचवीं शतीमें आन्ध्र जानेके उल्लेख मिलते हैं। पूर्वी चालुक्योंने सातवीं शतीमें इस प्रदेशमें जैन धर्मको प्रगति प्रदान की थी। उस समय विजयानगर के पास रामतीर्थ जैनोंका केन्द्र बना हुआ था। आन्ध्र के कोमटी एक समृद्ध वणिक जाति है। वे मैसूरसे इधर आये थे। गोमटेश्वरके भक्त होने के कारण गोमटीसे वे कोमटी कहलाने लगे। ___ आन्ध्रमें जैन साहित्य उचित मात्रामें उपलब्ध नहीं हुआ है। मालूम होता है, वह नष्ट कर दिया गया है। क्योंकि पुराने में पुराने तेलगु महाभारतमें नन्नय भट्टनेने अपने पूर्वके लेखकोंका स्मरण क्यों नहीं किया। इसका कारण यह है कि उसके पूर्वके कवि जैन थे। इसके अतिरिक्त कर्नाटक के पम्प और नागवर्म जैसे बड़ेसे बड़े कवि या तो आन्ध्र देशके थे या वहां से सम्बन्धित थे। इसलिए आन्ध्रमें जैन साहित्यकी रचना अवश्य हुयी होगी जैसा कि तामिल और कन्नड भाषाओंमें स्रजन हुआ है। संस्कृत जैनेन्द्र कल्याणाभ्युदयकी रचना १४वीं शती में वेरंगल-अय्यपार्यके द्वारा की गयी थी।
कर्नाटक
भद्रबाहुके श्रवण बेलगोल जानेका उल्लेख ऊपर कर आये हैं। वहीं पर सम्राट चन्द्रगुप्तने समाधिमरण प्राप्त किया था। उस समयसे जैन धर्मका प्रवेश इस प्रदेशमें हो चुका था।
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जैन धर्मका प्रसार : २१
ईसा की दूसरी शताब्दी से तेरहवीं शती तक जैनधर्म कर्नाटकका प्रधान धर्म बनकर रहा है। वहाँ के जनजीवन, साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन पर इस धर्मका जो नाना क्षेत्रिय प्रभाव है वह अद्वितीय है । बड़े बड़े राजा-महाराजा, सामन्त, श्रेष्ठि और यहाँ तक कि सामान्य प्रजामें इस देश के कोने कोने में जैन धर्म प्रचलित होनेके प्रमाण मिलते हैं। तामिल साहित्य और भाषा के उद्धार और विकास में जैनोंने जो योग दिया उससे भी अधिक कन्नड भाषा और साहित्यके विकास में जैनों की विशेष देन रही है। इस साहित्य के किसी भी विभाग जैसे आगम, पुराण, सिद्धान्त, काव्य, छन्दः शास्त्र, व्याकरण, नीतिशास्त्र, भूगोल, गणित, संगीत इत्यादिको जैनोंने अछूता नहीं रखा। जैन कन्नड साहित्य - की शैलीका प्रभाव आन्ध्र देश पर भी पड़े बिना नहीं रहा ।
द्वितीय शती में गंगवंशकी स्थापना करनेमें जैन आचार्य सिंहनंदीका प्रमुख हाथ रहा है। माधव कोनगुणिवर्मा इस वंशके आदि संस्थापक हुए । पांचवीं शतीके पूज्यपाद दुर्विनीतके राजगुरु होने के उल्लेख मिलते हैं। शिवमार, श्रीपुरुष, मारसिंह इत्यादि नरेशोंने अनेक जैन मन्दिर बनवाये तथा मुनियोंको दान दिया। मारसिंह (१०वीं शती) ने तो जैन समाधिमरण किया था । वादि धंगल इसी शती - के तार्किक थे । राचमल्ल (चतुर्थ) के मंत्री चामुण्डरायने गोमटेश्वरकी जो विशाल और अद्भुत मूर्ति बनवायी वह अपनी कलाके लिए जगद्विख्यात है | चामुण्डराय पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका प्रभाव उल्लेखनीय है ।
इस वंश के अनेक राजा तथा उनके सामन्त, मंत्री और सेनापतियोंने जैन धर्मके विविधमुखी कार्यों में योगदान दिया। गंग महादेवी, पंपादेवी, लक्ष्मीमती इत्यादि राजमहिलाओं के नाम इस प्रसंग में लेने योग्य हैं। गंगों की समस्तिके बहुत पहले ही कदम्बों और राष्ट्रकूटोंने जैन धर्मको अपना लिया था ।
वनवासी के कदम्बों में ब्राह्मण धर्म प्रचलित था फिर भी कुछ राजा जैनधर्मी थे। उनमें चौथी शती - के कास्थवर्माका नाम उल्लेखनीय है। पांचवीं शती के श्रीविजय शिवमृगेश वर्मा और श्रीमृगेश द्वारा जैनों के श्वेताम्बर, निर्ग्रन्थ, यापनीय और कूर्चक आदि संघोंको अलग अलग भूमिदान करने के शिलालेख प्राप्त होते हैं । हरिवर्मा, रविवर्मा, देववर्मा इत्यादिके द्वारा भी समय समय पर मन्दिरों व संघों के लिए गाँव और भूमिदान करनेके उल्लेख मिलते हैं। इस प्रकार इस प्रदेशमें चौथी से छठीं शती तक जैन धर्म लोकप्रिय रहा और राज्य-सम्मान प्राप्त करता रहा ।
सातवीं शती से राष्ट्रकूटोंका काल प्रारंभ होता है। इस वंशके साथ जैनोंका बहुत निकटका संबंध रहा है। दन्तिदुर्ग खड्डावलोकने आठवीं शती में अकलंक देवको सम्मानित किया था । अमोघवर्ष प्रथम गुरु जिनसेन थे जिन्होंने आदिपुराण लिखा है। उनकी प्रश्नोत्तर रत्नमालिकासे प्रतीत होता है कि उन्होंने राज्य त्यागकर जैन दीक्षा ग्रहण की थी। उनकी एक अन्य रचना कन्नड में अलंकारशास्त्र पर पायी जाती है । शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति नामक टीका इनके ही नाम पर आधारित है । दशवीं शती में Good एक वीरांगना तथा सफल शासनकर्त्री थी, जिसने समाधिमरण किया था । इस वंशके अन्य राजाओंकी जैन धर्म पर महती श्रद्धा रही है। गुणभद्र, इन्द्रनन्दि, सोमदेव, पुष्पदन्त, पोन्न इत्यादि कवियोंका आविर्भाव इन्हीं के कालमें हुआ था। राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट जैनों का केन्द्र बन गया था क्योंकि इस वंशके राजाओंका इस धर्मके प्रति विशिष्ट प्रेम रहा है। अन्तिम राजा इन्द्र चतुर्थने श्रवणबेलगोला में भद्रबाहु की तरह समाधि मरण किया था ।
राष्ट्रकूटों के पश्चात् पुनः पश्चिमी चालुक्योंका कर्नाटक पर अधिकार हो गया था । परंतु इसके पूर्व भी चालुक्योंका जैन धर्म के प्रति प्रेम बना हुआ था । ऐहोलका रविकीर्तिका शिलालेख अपनी काव्यात्मक
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२२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव प्रन्थ शैलीके लिए प्रसिद्ध है। यह सातवीं शतीके पुलकेशी द्वितीयके समयका है। उस स्थानका मेघुटी मन्दिर रविकीर्तिने बनवाया था। बादामी और ऐहोलकी जैन गुफाओंकी रचना इसी समयमें हुयी थी।
पश्चिमी चालुक्य वंशके संस्थापक तैलप द्वितीय(१०वीं शती)को जैन धर्मके प्रति अच्छी आस्था थी। इसी के आश्रयमें कविरत्न रणने अजितपुराण कन्नड भाषामें लिखा था। दशवीं शतीकी एक सेनानायककी पुत्री अत्तिमब्बे अपनी दानशीलताके लिए उल्लेखनीय है। ११वीं शतीमें भी इसी प्रकारका सहारा जैनोंको मिलता रहा। वादिराजका पार्श्वनाथचरित उसी समयका है। श्रीधराचार्यकी ज्योतिषविषयक कृति कन्नडमें सबसे पुरानी रचना है, जो सोमेश्वर प्रथम के समय में रची गयी थी। इस वंशके अन्य राजाओंने भी जैनधर्मकी उन्नति के लिए पर्याप्त सहायता की। इस प्रकार यह राजवंश जैन धर्मका संरक्षक रहा तथा साहित्यसृजनमें इसने काफी प्रोत्साहन दिया। जैन मन्दिरों और संस्थाओंको दानके जरिये इनके द्वारा बल मिलता रहा।
होयसल राजवंशको ११वीं शती में संस्थापित करनेका श्रेय एक जैन मुनिको ही है। मुनि वर्धमानदेवका प्रभाव विनयादित्य के शासन प्रबन्ध पर काफी बना रहा। कितने ही अन्य राजाओं के द्वारा जैन संस्थाओं को लगातार सहायता मिलती रही है। कुछ राजाओंके गुरु जैनाचार्य रहे हैं। १२वीं शतीके नरेश विष्णुवर्धन पहले जैन थे परन्तु बादमें रामानुजाचार्य के प्रभावमें आकर विष्णु धर्म स्वीकार किया। उस समयसे विष्णु धर्मका प्रभाव बढ़ता गया, फिर भी शिलालेखोंसे उनका जैन धर्मके प्रति प्रेम झलकता है। उनकी रानी शांतलदेवीने तो आजन्म जैन धर्मका पालन किया। विष्णुवर्धन के कई सेनापति और मंत्री जैन धर्मके उद्धारक बने रहें। गंगराज, उनकी पत्नी लक्ष्मीमती, बोप्प, मरियाने, भरतेश्वर आदि इस संबंधमें उल्लेखनीय हैं। उसके बाद नरसिंह प्रथम, वीर बल्लाल, नरसिंह तृतीय तथा अनेक राजाओंने जैन मंदिर बनाये, दान दिया तथा जैन धर्मको समृद्धिशाली बनाया। इस प्रकार बारहवीं-तेरहवीं शती तक जैनों का अच्छा प्रभाव रहा है। नरसिंह प्रथमके चार सेनानायक तथा दो मंत्री जैन थे। वीर बल्लालके शासनमें भी कितने ही जैन मंत्री और सेनानायक थे।
इनके अलावा छोटे छोटे राजघरानोंने भी ८वींसे १३वीं शती तक जैन धर्मका पोषण किया। इस कारण यह धर्म सार्वजनिक बन सका तथा सभी दिशाओंसे इसको बल मिलता रहा। ऐसे घरानोंमें सान्तर नरेश, कांगल्व और चांगल्वों तथा करहाडके शीलहार राजपुरुषोंके जैनोपकारी कार्योको गिनाया जा सकता है। इनके साथ साथ अनेक सामन्त, मंत्री, सेनापति, सेठ, साहूकार और कई महिलाओंके धर्मप्रभावनाके विविध तरहके वैयक्तिक कार्योंको ध्यानमें लिया जा सकता है।
विजयानगर काल
_ विजयानगर साम्राज्यकी स्थापना १४वीं शती में हुयी। उस समय जैन धर्म अस्वस्थ अवस्थामें था। परंतु सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षताकी जो उदारनीति वहाँ के राजाओंने अपनायी इससे जैन धर्मको काफी राहत मिली। बुक्कराय प्रथम जैनों के शरणदाता थे। सेनानायक इरुगप्प जैन था, उसके कारण जैन धर्मको १४-१५वीं शती में प्रोत्साहन मिला। श्रवणबेलगोला, बेलूर, हलेबीड इत्यादि स्थानोंमें अन्य धर्मावलंबियोंने जैनों के साथ प्रेमभावना बढ़ायी। पन्द्रहवीं शतीके देवराव प्रथम तथा द्वितीयने जैनोंको सहायता दी थी।
विजयानगरकी मुख्य राजधानीमें जैनोंकी जड़ें इतनी मजबूत नहीं थी, परंतु जिलोंमें अधिकृत राज्यघरानोंके आश्रयमें जैन धर्मका पोषण अच्छी तरहसे होता रहा। १६वीं शतीके कवि मंगरसने
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जैन धर्मका प्रसार : २३
कितने ही जैन स्थल बनवाये तथा कन्नडमें कितने ही ग्रंथ रचें । १४वीं से १७वीं शती तक संगीतपुर, गेरसोप्पे, कारकल इत्यादि जैनोंके अच्छे केन्द्र रहे हैं । बेलारी, कुडाप्पा, कोयंबटूर आदि जिलोंमें तथा कोल्हापुर, चामराजनगर, रायदुर्ग, कनकगिरि इत्यादिमें भी जैनोंका प्रभाव बना रहा। शृंगेरीने १२वींसे १६वीं तथा बेलूरने १४वींसे १९वीं शती तक जैन धर्मकी रक्षा की।
उस कालके सिंहकीर्ति, वादी विद्यानंद आदि विद्वानोंके नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा कितने ही साहित्यकार और पंडित उस समय में हुए जो जैन धर्मकी सेवा करते रहें। इनमें पंडित बाहुबलि, केशववर्णि, मधुर, यशः कीर्ति, शुभचंद्र इत्यादिको गिनाया जा सकता है ।
यह है जैन धर्म के प्रसारका ऐतिहासिक सिंहावलोकन | अपने प्रारंभिक कालसे मध्ययुगीन काल तक जैन धर्म उचित रूप से पनपता रहा। वह पूर्व देशसे दक्षिण और पश्चिम की ओर उत्तरोत्तर विकास - शील होता गया, यहाँ तक कि दक्षिण में तो वह सुवर्ण युगों में पला । इन आधारों परसे जैनोंकी संख्या उस समय अन्य धर्मियोंके अनुपात में अधिक रही होगी ऐसा अनुमान लगाने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती । एक समय दक्षिण देशमें जैनों और बौद्धोंका ही बोलबाला था । उस प्रदेश में हिन्दू धर्मने बाद में प्रवेश किया है, पहले वहाँ पर हिन्दू धर्मका इतना प्रभाव नहीं था । वर्तमान स्थितिको देखते हुए जैन धर्मकी अवस्था बिल्कुल विपरीत सी लगती है। जैनोंकी संख्या अनुपात में कम हो गयी है। इस अवनति क्या कारण हो सकते हैं ? पूर्वकालमें अनेक उच्च कोटिकी विभूतियाँ विविध क्षेत्रो में हुयी, उनकी संख्या उत्तरोत्तर कालमें घटती ही गयी है। पहलेका शासनप्रेम, उदार वृत्ति और निस्वार्थ सेवा आजकल क्षीण होती जा रही है। सामान्य प्रजाकी अनुकूलता के अनुसार धर्मकी गतिशीलता बन्दसी हो गयी है, जबकि यह सर्वविदित है कि गति ही जीवन है। एक तरफ छोटी छोटी बातों में अधिक से अधिक सूक्ष्मदर्शी हो गये हैं जिनकी उपादेयता सीमित है, तो दूसरी ओर बड़ी बड़ी बातों में उदासीन वृत्ति घर कर गयी है जिनका कार्यक्षेत्र विस्तृत है और जो वास्तविक रूपमें जीवन के सह-अस्तित्वसे सम्बन्धित हैं। अनेकान्त और स्याद्वाद पुस्तकों और सिद्धान्त तक ही सीमित रह गया। सामाजिक और धार्मिक जीवनमें उसे पूर्ण शक्तिसे अपनाने के अनिवार्य प्रयास ही नहीं हुए। इधर देखें तो गृहस्थधर्म पर साधुधर्मका प्रभाव बढ़ गया है तो उधर साधुधर्ममें गृहस्थ कर्मोंका प्रवेश। दो विभिन्न क्षेत्रोंकी मर्यादाओंका अतिक्रमण होनेसे साधारण जीवन दुरूह सा हो रहा है। भगवान महावीरने उपासक आनन्दको गृहस्थधर्म के व्रतों को धारण करवाते समय यह कभी भी नहीं कहा था कि तुम कृषिकार्यका त्याग कर दो। उन्होंने तो इतना ही कहा था कि 'अहा सुहं' धर्माचार स्वीकार करो। अर्थात् अपनी शक्ति और मनके परिणामों के अनुसार धार्मिक मर्यादाओंका पालन करो। लेकिन अर्वाचीन धर्मका स्वरूप ही बदल गया है। कृषिकार्यको घृणास्पद समझा जाता है, उसमें हिंसा मानी जाती है जबकि ' विरुद्धरज्जाइकम्म' 'कूडतुलकूडमाण' और 'तप्पडिरूवगववहार' ( अर्थात् राज्यके कानूनों के विरुद्ध कार्य करना, झूठे तोल और झूठे नापका प्रयोग करना और नकली वस्तुओंको असलीके रूपमें चलाना) नामक अतिचारों के पोषण में गौरव समझा जाने लगा है । कृषिकार्य साधु तथा गृहस्थके जीवन के निभाने के लिए मौलिक आवश्यक्ता है, जिस प्रकार वायु प्राणधारण के लिए। उस हिंसाको हिंसा नहीं, माना गया है। प्रथम तीर्थकर ऋभने तो स्वयं ही कृषिकार्यका उपदेश दिया था । इस दृष्टिको ध्यान में रखते हुए कृषिकार्य - विरोधी उपदेश कहाँ तक उचित और योग्य ठहरते हैं। ऐसी ही अनेक बातें और मुद्दे हैं जिन पर गृहस्थ, साधु, विद्वान् और आचार्य समुदायको विचार करना चाहिए तथा उन मूल कारणोंको हूँढ निकालना चाहिए जिनके फलस्वरूप जैन धर्मका ह्रास होता जा रहा है, जबकि आबादीकी संख्या के
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________________ 24 : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ अनुपातसे काफी अधिक मात्रामें साहित्यभंडार, कलाकृतियाँ और अन्य सांस्कृतिक सामग्री प्रस्तुत धर्मावलम्बियों के पास में विद्यमान हैं। संदर्भ ग्रंथ : 1 Studies in South Indian Jainism by M. S. R. Ayyangar & B. S. Rao, Madras, 1922. 2 Jainism in North India by C.J. Shah, 1932. 3 Mediaeval Jainism by B. A. Saletore, Bombay, 1933. 4 Jainism in Gujrat by C. B. Sheth, Bombay, 1953. 4 Jainism in Bihar by P. C. RoyChoudhury, Patna, 1956. 6 Jainism in South India by P. B. Desai, Sholapur, 1957. 7 Jainism in Rajasthan by K. C. Jain, 1963. 8 Mahavira Jayanti Week - 1964. Bharat Jain Mahamandal, Calcutta. 1 भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, व्या० 1, डा. ही. ला. जैन, भोपाल, 1962 / 10 जैन साहित्यका इतिहास, पूर्व पीठिका, पं० के० च० शास्त्री, वाराणसी 1963 / PHULP