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जैन धर्मका प्रसार : १३
श्रुतकी परंपरा मौखिक रूपसे आ रही थी। दो-तीन वाचनाओं के द्वारा उसे समय समय पर नष्ट होनेसे . बचाया गया। अन्तिम वाचना देवद्धि गणिके सभापतित्वमें छठी शतीमें वलभीमें हुयी। उस समय श्रुतको लिखित रूप दिया गया। इस लिखित रूपसे श्वेताम्बरों और दिगम्बरोंकी भेदभावनाको और भी शक्ति मिली। इस प्रकार उत्तरोत्तर कालमें यह भेद प्रबल बनता ही गया और इसके पल-स्वरूप गुरुपरंपरा भी भिन्न भिन्न हो गयी तथा दोनोंका साहित्य भी अलग अलग।
श्वेताम्बर-दिगम्बर के अलावा यापनीय नामक एक अन्य सम्प्रदाय भी प्रचलित हुआ जो दक्षिण में ही पनपा। कहा जाता है कि दूसरी शती में एक श्वेताम्बर मुनि श्रीकलशने कल्याण नगरमें यापनीय संघकी स्थापना की। यापनीयोंका उल्लेख बादकी कई शतियों तक साहित्य और लेखोंमें होता रहा है। यह संघ श्वेताम्बर-दिगम्बरका समन्वय रूप था। इसका मुख्य अड्डा कर्नाटकमें बना रहा। पांचवीं-छठी शती में वह वहां पर सुदृढतासे जम गया था।
दिगम्बर सम्प्रदायका विविध संघोंमें विभाजन इस प्रकार हुआ है। उनका पुराने में पुराना मूल संघ है जिसकी स्थापना दूसरी शताब्दीमें हुयी थी। पुष्पदंत और भूतबलि के गुरू आचार्य अर्हद्बलिने मूल संघकी चार शाखाएँ स्थापित की थी। वे थी सेन, नंदी, देव और सिंह।
पांचवीं शतीमें मदुरा (दक्षिण) में वजनं दिने द्राविड संघकी स्थापना की थी। कुमारसेन मुनिने सातवीं शतीके अन्तमें नंदीतट ग्राममें काष्ठा संघको स्थापित किया। मदुरा(उत्तर)में माथुर संघकी स्थापना नवीं शतीके अन्त में रामसेन मुनिने की थी। भिल्लक संघका उल्लेख भी आता है। विन्ध्यपर्वतके पुष्कल नामक स्थानपर वीरचन्द्र मुनिने दशवीं शती के प्रारंभमें इस संघकी स्थापना की थी। इससे भीलों द्वारा जैन धर्मको अपनानेका प्रमाण मिलता है।
श्वेताम्बरोंमें भी कई गच्छोंकी उत्पत्ति हुयी। गगधर गौतमके पश्चात् पट्ट-परम्परा गणधर सुधर्माने संभाली थी। उनकी परंपरामें छठे आचार्य यशोभद्र हुए। उनके दो शिष्य थे संभूतिविजय और भद्रबाहु, जिनसे दो भिन्न शिष्यपरंपराएँ चलीं। संभूतिविजयकी परंपरामें नाइल, पोमिल, जयन्त और तापस शाखाएँ चल पड़ी तथा भद्रबाहुकी परंपरामें ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिका, पौण्ड्रवर्धनिका और दासीखबडिका। सातवें आचार्य के शिष्योंकी परंपरामें तेरासिय शाखा तथा उत्तर बलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उडुवाडियगण, वेसवाडियगण, माणवगण और कोटिकगण स्थापित हुए और उनका कई शाखाओं और कुलोंमें विभाजन हुआ। . आगेके वर्षों में गच्छोंकी स्थापना होने लगी। उनमें से मुख्य मुख्य इस प्रकार हैं : आठवीं शताब्दीमें उद्योतनसूरिने वृहद्गच्छकी स्थापना की। खरतरगच्छका उद्भव ग्यारहवीं सदी में हुआ।. बारहवीं शतीमें अंचलगच्छका प्रादुर्भाव हुआ और इसी शतीमें आगमिक गच्छकी स्थापना की गयी। तपागच्छ १३ वीं शती में स्थापित हुआ था।
उत्तरकालीन संघभेद
श्वेताम्बर-दिगम्बर भेदके कारण मुनियोंके आचार पर काफी प्रभाव पड़ा तथा उसमें भेदभाव बढ़ा। बादमें अन्य सम्प्रदाय, गण या गच्छ उत्पन्न हुए उनमें इतना आचार संबंधी कोई भेदभाव नहीं होने पाया। श्वेताम्बरोंमें वस्त्रकी मात्रा बढ़ने लगी। पहले दोनों सम्प्रदायोंमें तीर्थंकरोंकी नग्न समान रूपसे प्रचलित थीं, परंतु सातवीं-आठवीं शतीसे श्वेताम्बर मूर्तियोंमें कोपीनका चिह्न बनाया जाने लगा तथा मूर्तियोंको वस्त्र व अलंकारोंसे सजानेकी प्रवृत्ति भी बढ़ गयी। इस कारण इन दोनों के मन्दिर भी अलग अलग हो गये। दोनों सम्प्रदायोंमें एक और प्रवृत्तिने जन्म लिया। सामान्यतः वर्षाऋतु में
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