Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 11 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 6
________________ ३४० જૈન ધર્મ વિકાસ सरिअव्व नीअगमणा-कस्स वि रमणी कयावि णो जाया ॥ ते चेव सुही भुवणे-जे रामासंगपरिहारी ॥१०६॥ निव्याणगमणणाणी-धरति सीलं पहू वि जह मल्ली॥ णेमी ता पालिज्जा-सामण्णा तत्थ किं चोजं ॥१०७॥ जुत्तीहिं सीलवई-सीलं पाली विप्पपमुहाणं ॥ उइअंदाही सिक्खं-पडिबोही अंगणा जंबू ॥१०८॥ राईमईइ विहिओ-दढो चरित्तम्मि साहुरहणेमी ॥ सिक्खाहिं पवराहि-सा चउसयवरिसगिहवासा ॥१०९॥ छउमत्थत्तिगवासा-पंचवरिससयपमाणकेवलिया ॥ सिद्धा पुण्णिकुत्तर-नव वरिससयप्पमाणाऊ ॥११०॥ आवतीइ वि हिट्टा-तह मलयासुंदरीइ नियसीलं ॥ . अवि रक्खियं विइण्णा-कंदप्पनिवस्स सुहसिक्खा ॥१११॥ उत्तमपुरिसा पावे-अलसा पंगू पराइवायखणे ॥ बहिरा परनिंदाए-हवंति णिव्याणदढकंखा ॥११२॥ जम्मंधा पररमणी-निरिक्षणे देहसहलया सीला ॥ जस कित्ती जल मग्गी-सुहगा सुहसीलहरभव्या ।।११३॥ जिणवइसोवण्णघर-एगो कारेइ देइ कणयाणं ॥ कोडिं तयहियपुण्णं-सीला सव्वट्ठसिद्धिदया ॥११॥ पंचमसग्गसुहत्ती-कायासीलेण भावविअलेणं ॥ जइ ता सन्मावेणं-मुत्ती सीलेण निच्छयओ ॥११५॥ सील भूसणपरमं-सील मणुत्तरधणं सुरलयाहं ॥ अणुवमपहावनिलयं-जयावहं सोहियगुणोहं ॥११६॥ सिरिथूलिभद्दसमणा-कोसावसहे वि मयणकरणड्डे । संपडिबोहियवेसा-सीलं पालीअ सग्गगया ॥११७॥ तीसं वरिसे गेहे-चउवीसद्दे ठिया अपयचरणे ॥ पणयालद्दे ठाउं-जुगप्पहाणत्तभावम्मि ॥११८॥ नवनवइवरिसमाणे-पुण्णे सध्याउअम्मिसिरिवीरा ॥ पणदसहियद्ददुसए-गए धरियदेवभावा ते ॥११९।। तं धण्णा गेण्हंते-विसुद्धपरिपालणा महाधण्णा ॥ जिणसासणं विजयए-सीलहरा जम्मिविहरते ॥१२०॥Page Navigation
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