Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 11
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 23
________________ ચટપટી અજબ મીઠાઈ. उ५७ उत्भूत होने लगा। निदान एक ऐसी संस्था की आवश्यकता थी जो दुःखांकुर को नष्ट कर दे। इसके लिये चाहे जैनधर्म नामक संस्था स्थापित हुई हो या और कोई, परन्तु धर्मसंस्था कायम हुइ । मानव जीवन में आते हुए विकारों को रोकने में वह प्रयत्नशील रही । वास्तव में सभी धर्मों का एक लक्ष्य यही है कि सुखशान्तिका विस्तार हो। मानव को क्या प्राणिमात्र को सुखशान्ति प्राप्त हो, बस इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रख कर जो निवृत्ति मार्ग का दर्शक हो वही सार्वधर्म कहाने योग्य है। शमिति । चटपटी अजब मिठाई का स्वाद चाखिये। ___ लेखकः मुनी भद्रानंदविजय. बिलाड़ा (मारवाड़.) .. प्यारे पाठकों, आज हम आपके सामने एक ऐसी अनोखी मिठाई लेकर उपस्थित होना चाहते हैं, जिसे पाने की मनिषा समस्त प्राणीमात्र के मानस भवन में एकसी लगी रहती है, जिसे प्राप्त करनेके लिये बड़े २ सिद्ध महात्मा तक सर्वथैव लालायित रहते है, जिसके लिये घोरातिघोर तप का आचरण करते हैं, जिसके लिये घरदार तक को तिलांजलि देने में तनिक भी नहीं सकुचाते हैं, और जिसके लिये समस्त सुखसाजों को लात मारकर परिषहोपसर्ग को सहर्ष स्वीकार करते हैं। तो भी. इस अनुठी मिठाई की माधुरी को बिरले ही चख पाते हैं। वाहरी मिठाई, धन्य है महिमा तेरी, जिसे देखो वही तुझे पाने के लिये पागलसा बना जाता है-समस्त सांसारिक व्यापारों को भुलाकर फकीर बन जाता है। क्यों ? है न अलबेली अनोखी मिठाई। क्यों, नहीं जानपाये, तो लो मैं ही तुम्हें चखा दूं और उसके स्वर्गसे भी ऊंचे नाम को बतला दूं। क्या कहा ? स्वर्ग से भी बढकर है। हां, हां, स्वर्ग से करोड़ों गुना बढकर हैं। तो वह क्या है ? एक मात्र मोक्ष है इसे ही मुक्ति भी कहते हैं। बस, यही तो हमारो प्यारी मिठाई है। अहाहा ! ! ! कितना श्रुतिसुंदर शब्द है, इसके नाद ही से मन मयूर मत्त हो नाच उठता है। मानस सरोवर आनंद की उप्ताल तरंगो से लहलहाने लगता है, और इसे चखने के लिये चित्त रुपी चातक आठों याम छटपटाया करता है। जब इसके नादही में इतना गजब भरा हुवा है तो इसकी प्रत्यक्षता में कितना अवर्णनीय रस भरा होगा, जिसकी पूर्णतया कल्पना करना शक्ति से परे है। यदि २ इसे एक बार भी चखलिया तो "यावत्चन्द्रदिवाकरौ" तक तृप्त हो गये न फिर कभी खाना है न, पीना, न भूख रहती है न प्यास ही:

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