Book Title: Jain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund
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१७७
मोठाम, चमे चली धूजणी ॥ रूंवाटा उना हु वेरे ॥ २॥ तोहि न बंडे साध, अग्नी सेव ए॥ अडग रहेवे भेरु जिसारे ॥३॥ वाजे सीतल वाय, तो होवे माबटो ॥ तोहि जमे न हिं किवामनेरे ॥४॥ तीन पडी मांहिरे, रेहे एं साधु ने, चोथी पण वं नहिं रे ॥ ५॥ चा ले नवराणे पाय, मस्तक नहिं ढांकणं, हिंडतां लेवे नहिं रे ॥६॥ श्रीनद्रबाहुना शिष्य, चतु र चारे जणा ॥ शीत परिसह तिहां सह्योरे ॥ ॥७॥ कालकरी तिण ठाम रे, हुवा देवता॥ ऋद्धि संपदा पामी घणी रे ॥ ८॥ शीत परि सह जीतिरे, तिरिया अति घणा॥ पार न श्रा वे केहेवंतारे ॥९॥ इति सीत परिसह ॥३॥
दुहा ॥ उनाले अातापना,सेवे परिसह साध॥ तप सेवे तरप्या थकां, वेदे नही विखवाद॥१॥ .. ढाल ४ थी ॥ अरणक मुनिवर चाल्या गो घरी॥ए देशी ॥ जपण परिसह अति वली
आकरो, सेवे मोहोटा मुनिराजो रे॥ निजका याने जाणे कारमी, सारे प्रातम काजो रे॥ ॥ष्ण ॥१॥ ग्रीष्मकाले तपे अति तावत,

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