Book Title: Jain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund
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जाणे जिनधर्म सारहो ॥ न० ॥ जा० ॥४॥ मान मेलि पेलाकने मागणं, खेमु रहेवे मोहो टी शरम हो ॥१०॥ अवसर अटकल वली जुगतिशृं, धन्य तेणे तज्यो संसार हो ॥न०॥ जा०॥५॥ जाचना परिसह जीतीने, गया अ नंता मोद हो ॥ न०॥ हमणां गया ने जाशे खरा, कर करमारो सोख हो ।न०॥जा॥६॥
दुहा॥अलान परिसह पंनरमो, मुंडामिलि यां शोग न थाय ॥ आगे मिलियां हरखे नही, इम नाखे जिनराय॥१॥अथ अलान परिसह ॥
ढाल १५ मी ॥ पन्नरमे परिसहे संत, साध महोटा निग्रंथ ॥ अलान नामें कह्योए, मुनिव र महोटा सह्योए ॥१॥ अशनादिक वोहोरण जाय, गृहस्थीने घरमाय ॥ हरखे नाई ने बाइ ए, नहि मिले जोगवाइए ॥२॥ साध पधारी या धन्न, पम्युं असूजतुं अन्न ॥ श्रावक शोच करेए, पबतावा करेए ॥ ३॥ कोइक तो नट जाय, वसतु नहिं घरमाय ॥ मन नहि देणरोए, कूडो केयरोए ॥४॥ कोइक तो गुण नहि जाण, नहि देवे अन्न ने पाण॥ पिंडने नहि पा

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