Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन किया है जिसकी प्रायः छः भूमिकायें हो सकती हैं :(क) वेदों की प्रार्थनात्मक भूमिका यहां देव-सर्वज्ञत्व का सिद्धान्त स्वीकार कर देवताओं की प्रशंसात्मक प्रार्थनायें प्रस्तुत की गयी हैं। सम्पूर्ण वेदों में 'सर्वज्ञ' या 'सर्वज्ञत्व' शब्द एक बार भी प्रयुक्त नहीं हुए हैं किन्तु इनके अनेक पयाय, जैसेः विश्ववेदस्', विश्ववित्', विश्वानिविद्वान्, सर्ववित् आदि' आये हैं। (ख) उपनिषदों की मात्मज्ञता की भूमिका उपनिषद्-दर्शन का मूल तत्त्व आत्मा है अतः सर्वज्ञ का अर्थ आत्मज्ञ माना गया है। "मात्मान विद्धि ही इसका मूलमंत्र है। १२० उपनिषदों में ३१ बार सर्वज्ञता शब्द प्रयुक्त हुआ है। (ग) धर्म शास्त्रान्तर्गत धर्मशता की भूमिका स्मृतियों एवं पुराणों में ही नहीं महाभारत एवं रामायण में भी धर्मज्ञता का महत्त्व बताया गया है। इन शास्त्रों में सर्वज्ञता का अर्थ प्रायः धर्म के सभी सूक्ष्म तत्त्वों का ज्ञान है। साथ-साथ यह देव-सर्वज्ञता का भी वर्णन है । जैनागमों में भी कहीं-कहीं 'सर्वज्ञता' एवं 'धर्मज्ञता' एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । प्रज्ञाकार गुप्त ने भी सुगत को सर्वज्ञ एवं धर्मज्ञ दोनों माना है जिसका शांतरक्षित ने भी समर्थन किया है। (ब) बुद्धिवादी भूमिका बौद्धों में शांतरक्षित एवं प्रज्ञाकर गुप्त तथा जैनों में उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, अभयदेव सूरि, हरिभद्र, १. ऋग्वेद १/२१/१; सामवेद १/१/३ । २. अथर्ववेद १/१३/४, ऋग्वेद १०/९१/३ । ३. ऋग्वेद ९/४/८५, १०/११२/२ । ४. भथर्ववेद ७, I. ११ । ५. जातवेदस्-अथर्व. १/७/२; १/७/५; १/८/२; २/१२८; २/२९२ आदि, सहस्राक्ष-अथर्व २/२८/३; सामवेद ३/१/१, यजुर्वेद ३९/९, विश्वचक्षु-ऋग्वेद १०/८१/३, विश्वद्रष्टा:-अथर्व ९/१०७/४ । ६. बृहदारण्यक ४/५/६ । ७ छान्दोग्य ७/१/१; ६/१/१-३; बृहद् ३/७/१; मुंडक १/१/३९ । ८. महाभारत-शांतिपर्व ५५/११ से आगे। ९. षड्खंडागम सूत्र ७८ (अमरावती प्रकाशन) । १०. प्रमाणवातिकालंकार पृ० ३२९ । ११. तत्त्व-संग्रह-का. ३३२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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