Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 15
________________ - - - - - __ जैन-दर्शन जिस प्रकार बादल सूर्यको ढक लेते हैं तथा बादल के हटजाने पर सूर्यका प्रकाश प्रकट हो जाता है । उसी प्रकार ऊपर लिखी सातों प्रकृतियों के उपशम हो जाने पर आत्मा का जो सम्यग्दर्शन स्वरूप स्वभाव प्रकट हो जाता है वह भी एक प्रकार का अमूर्त श्रात्माका प्रकाश है । तथा जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार के पदार्थ दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार उस श्रात्मा के अमूर्त प्रकाश से आत्माका अमूर्त स्वरूप दिखाई पड़ता है । जिस प्रकार किसी अंधेरे कोठे में कई मनुष्यों के अनेक पदार्थ रक्खे हों तो बिना प्रकाश के कोई भी मनुष्य अपने किसी पदार्थ को नहीं पहिचान सकता तथा अंधेरा होने के कारण किसी दूसरे के पदार्थ को भी अपना समझ सकता है, उसी प्रकार जब तक यह सम्यग्दर्शन रूपी प्रकाश प्रकट नहीं होता है, तब तक यहात्मा अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूपको कभी नहीं पहचान सकता । अंधेरे के कारण आत्मा के स्वरूप की यथार्थ पहिचान के बिना यह आत्मा अपनेसे भिन्न राग द्वष मोह आदि पौद्गालक पदार्थोंको अपना कहने लग जाता है । यहां तक कि स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान, सोना, चांदी आदि जो पदार्थ श्रात्मा से सर्वथा भिन्न हैं उनको भी यह अपना मानने लगता है। यह सब उसका विपरीत श्रद्धान ज्ञान है । जब वह सस्यग्दर्शन रूपी आत्मा का प्रकाश प्रकट हो जाता है उस समय उसका वह विपरीत श्रद्धान ज्ञान दूर हो जाता है और वह अपने अात्माके स्वरूपको अपना समझ कर उसी को ग्रहण करता है। इस प्रकार जब यह आत्मा अपने आत्माको और आत्माके गणों को अपना समझने लगता है तब वह राग द्वष मोह आदि

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