Book Title: Jain Center of America NY 2005 06 Pratishtha
Author(s): Jain Center of America NY
Publisher: USA Jain Center America NY
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यह संसार जिसकी न कोई सरंचना करता है न कोई संहार, अनादिकाल से चला आ रहा है और इसका कोई अन्त भी नहीं है।
जैन धर्म मानवीय एकता का पोषक है वह एकैव मानुषी जाति, आचारेण विभज्यते को लेकर चलता है। वहां किसी तरह की वर्ण-व्यवस्था नहीं है। जाति से किसी को उंचा और किसी को नीचा मानना जैन दर्शन के विरूद्ध है। यहां पर मनुष्य की सत् असत् कर्म से ही उसकी उच्चता और हीनता आंकी जाती है।
जीवन-शुद्धि का साधन धर्म किसी आश्रम व्यवस्था के आधार पर नहीं किया जाता। धर्म में अवस्था, लिंग, वर्ण, रंग, जाति और परिस्थिति का कोई प्रतिबंध नहीं है।
आहार-शुद्धि जैन धर्म का उज्जवल पक्ष है। जैन धर्मावलम्बियों की यह पहचान है कि वे मांस, मदिरा जैसे अभक्ष्य और उत्तेजक पदार्थों से परहेज करते हैं।
आहार में और भी कई तरह की शुद्धाशुद्धि का विवेक परमावश्यक है। शुद्ध आहार से ही मन पवित्र रह सकता है और पवित्र मन ही पवित्र आत्मा का साक्षी है।
आचार संहिता का जहां तक प्रश्न है, मुनि और गृहस्थ दोनो ही वर्गों के लिए भिन्न भिन्न आचार, नियम बनाए गए हैं। फिर भी वहां बाह्य उपासना और क्रियाकाण्डों की अपेक्षा आन्तरिक तप पर विशेष बल दिया गया है।
कपितय लोगों की यह धारणा है कि जैन धर्म तो कायक्लेश और तपस्या पर ही बल देता है किन्तु यह धारणा सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है। जैन धर्म ने ध्यान, स्वाध्याय भावना-शुद्धि, समता भाव, मैत्री भाव, सहिष्णुता पर प्रमुखता से बल दिया है।
भगवान ने कहा- दो दिन भूखे रहकर जितने कर्म काटे जाते हैं, शुद्ध मन से एक क्षण का ध्यान करके उससे भी अधिक कर्म का निर्जरण किया जा सकता है।
इस रूप में जैन धर्म का यह संक्षिप्त विवेचन है।
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