Book Title: Jain Center of America NY 2005 06 Pratishtha
Author(s): Jain Center of America NY
Publisher: USA Jain Center America NY
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केवलज्ञान प्रसूत जैन धर्म : शोध की आवश्यकता : २
मममममममममम
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परोक्ष (इन्द्रियरूप) नहीं है ।' आगे गाथा ३३ में लिखा अनन्त की ओर अग्रेषित-विस्तारित हो रही है, और इस है, 'भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिये ही वे ' तारतम्य में प्रकृति के सत्य को सापेक्ष ही माना जा सकता है, केवली' नहीं कहलाते, अपितु केवल अर्थात् शुद्ध आत्मा को तो फ़िर केवलज्ञानी द्वारा प्रसूत भेद को ब्रह्मसत्य या निरपेक्ष जानने और अनुभव करने के कारण से वे 'केवली' कहलाते सत्य कैसे माना जाता है? हैं। अधिक जानने की इच्छा का क्षोभ छोड़कर स्वरूप में ही
दूसरी ओर, केवलज्ञानी प्रभू भगवंतो ने जो प्रसूत निश्चल रहना, यही केवलज्ञान की प्राप्ति का उपाय है।' किया वह श्रुतेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया गया । उस ज्ञान का प्रवाह
यद्यपि तत्वार्थ सूत्र (अध्याय १, सूत्र २९) के आज के काल तक शब्दश: शुद्धत: ज्यों का त्यों बना हुआ है अनुसार, समस्त द्रव्य और उसकी समस्त पर्यायों को एक साथ यह कैसे हो सकता है? हमारे समस्त वंदनीय आचार्य, जिनके प्रत्यक्ष रूप में जानने वाला ज्ञान ही केवलज्ञान है । इस प्रकार साहित्य पर वर्तमान जिन दर्शन टीका हुआ है, ईसा की पहली केवलज्ञान धारकों को, जानने-समझने का वाछा से आधक से दसवीं सदी के मध्य हुए तथा इसी काल में उन्हों ने आत्मा में वर्तना ज्यादा रुचिकर, सुखकर होता है।
जिनदर्शन को पुस्तकबद्ध किया । केवली भगवंत महावीर ज्ञान तथा केवलज्ञान के इस स्वरूप के वर्णन के
स्वामी आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व हुए । पूर्वोत्तर पश्चात यह बात अवश्य सामने आती है कि यदपि ज्ञान सत्तारूप
तीर्थकर और भी पहले हुए । क्या उनके द्वारा उद्धत ज्ञान-दर्शन है और सतारूप वस्तु का कभी नाश नहीं होता इसलिये अन्य
पूर्ण, अविकल, शुद्ध और अविकृत रूप में आज विद्यमान है? ज्ञानों की भांति केवलज्ञान भी अविनाशी है; तथापि चूंकि ज्ञान,
लेखक का तात्पर्य इतना मात्र है कि एक तरफ़ तो हम आत्मा की परम गुप्ति है और केवलज्ञान तो शुद्ध आत्मज्ञान है,
जैन दर्शन के सिद्धांतो को वैज्ञानिक कसौटी पर तोलना चाहते इसलिये केवलज्ञान को तो स्वयं निरन्तर नि:शंक वर्तते हुए (प्रवाह में) रहना चाहिए । फ़िर, ज्ञान नाम ही अनंत
हैं, वहीं दूसरी तरफ़ विज्ञान सम्मत् अनुशीलन से कतराना भी अथाह है । कोई ज्ञानी, परमज्ञानी कैसे हो सकता है?
चाहते हैं । इसलिये हम असत्य, अतर्क तथा अविवेकपूर्ण मार्ग केवलज्ञानी को कर्मबंध के समाप्त हो जाने से शुद्ध
में विज्ञान का थोथा आलम्ब लेकर केवल अंधेरे में भटक रहे आत्मज्ञान - परमज्ञान अवश्य होता है लेकिन ज्ञान चाहे
हैं । यदि हमें जैन दर्शन का सही अनुशीलन करना है और उसे अतीन्द्रिय हो या इन्द्रिय, ज्ञानी की सीमा तो अवश्य होती ही
जन-जन तक पहुंचाता है तथा विशेषत: आज की पीढ़ी को है। साथ ही, जिसे पूर्ण ज्ञान (समस्त सृष्टि के समस्त द्रव्य
जैन धर्म के सिद्धांत समझाना है, तो धर्म को आज की तथा उनकी पर्यायों का ज्ञान) हो गया हो वही केवलज्ञानी है
परिस्थितियों (आज का विज्ञान, आज का तक) के अनुसार तथा केवलज्ञानी को लोकज्ञान जानने से अधिक शद्ध आत्मत्व विश्लेषित करना होगा । हमारे मूल नियम, मूल दर्शन तथा मूल का अनुभव करने में ज्यादा रुचि और सख होता है. इसलिये आचार नहीं बदलना है अपितु उनके स्पष्टीकरण का कहा जा सकता है कि पूर्णज्ञान से तात्पर्य 'तात्कालिक और तरीका और उन्हें समझने-समझाने की थ्योरी बदलना होगी । समकालिक पूर्णता' से ही होता है । तात्कालिक परिस्थितियों, जीव के साथ अनादिकाल से संलग्न कर्मबंध का तात्कालिक दर्शन और तात्कालिक अनुभव आदि से जो पूर्ण हमारा सिद्धांत समूची पृथ्वी के साहित्य में बेमिसाल है। हम तत्वज्ञान हो वह केवलज्ञान है । तो, केवलज्ञान भी 'तात्कालिक आत्मा को चैतन्य ऊर्जा मानते हैं तथा उसके साथ कर्म शब्द के वशीभूत है । जिस काल में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उस परमाणुओं का बंधन भी स्वीकार करते हैं । इस अद्वितीय काल के प्रेक्षणों और दर्शनों की पूर्णता तो केवलज्ञानी में हो सिद्धांत पर जितने खोज और शोध किये जाएं उतने कम सकती है, लेकिन अतीन्द्रिय ज्ञान होने के बावजुद, पूर्णता के हैं। तब हमने जैन धर्म-दर्शन पर ज्यादा से ज्यासा शोध केन्द्र सापेक्षरूप होने के कारण, भविष्य की पर्यायों का भेद और खोलने और उन्हें पल्लवित करने पर जोर क्यों नहीं दिया? हम भविष्य के सत्य का अन्वेषण केवलज्ञानी के स्वरूप में नहीं हो मंदिरों की भव्यता में जितना पैसा बहाते रहे, उसका चन्द सकता क्योंकि ऐसा होने पर केवलज्ञानी के लिये 'काल' नाम प्रतिशत ही शोध कार्यों में व्यय करते तो हमारा दर्शन आज के के द्रव्य का अस्तित्व समाप्त हो जावेगा और तब केवलज्ञानी विज्ञान की बराबरी में आकर खड़ा हो जाता । हमें इस त्रुटि की को षद्रव्य सृष्टि के बजाय 'पंचद्रव्य सृष्टि' पर विचार करना स्वीकारोक्ति कर लेना चाहिए और हमारे प्रत्येक धार्मिक स्थल होगा जो धर्मसंगत नहीं होगा । काल के अनुसार प्रेक्षण बदलता पर एक-एक शोध विकास केन्द्र स्थापित करने की बात पर है, अन्वेषण बदलता है, विधि-विधाएं बदलती हैं. पर्यायें
षण बदलता है, विाध-विधाए बदलता ह. पयाय गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। बदलती है; विज्ञान के अनुसार तो संपूर्ण सृष्टि ही हर पल
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