Book Title: Jain Center of America NY 2005 06 Pratishtha
Author(s): Jain Center of America NY
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 169
________________ OHORO केवलज्ञान प्रसूत जैन धर्म शोध की आवश्यकता : १ - Dr. Virendra Kumar Nahar यद्यपि जैन धर्म का दर्शन पूर्णरूपेण तर्कसंगत तथा अकाट्य है, तथापि जैन दर्शन के कुछ सिद्धांतो को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने एवं समझाने में हमारी मर्यादा यह है कि हम सिद्धांतो के स्पष्टीकरण को बदलने का साहस एवं वर्तमान परिवेश में उनका युक्तियुक्तकरण कर सकें ऐसी चेष्टा नहीं कर सकते । अमुमन होता यह है कि काल के परिवर्तन के साथ सिद्धांत एवं सूत्रादि तथा उनका स्पष्टिकरण बदल जाता है । विज्ञान में तो हर घटना और प्रत्येक पुद्गल (Matter) एवं ऊर्जा (Energy) के स्वरूप को समझाने के लिये भिन्नभिन्न और नये-नये प्रकार के स्पष्टिकरण तथा थ्योरी बनती है, उसकी कमजोरियां मालुम हो जाने पर, अथवा काल के अनुसार प्रेक्षण बदल जाने पर, दूसरी थ्योरी बनाता है । जब प्रगति बढ़ती है अथवा नवदृश्य सामने आते हैं तब दूसरी को बदलकर तीसरी थ्योरी बनाना पड़ती है । उदाहरणार्थ न्यूटन ने पदार्थ कण के द्रव्यमान को नियत स्थिर माना था, लेकिन आइन्स्टीन ने द्रव्यमान को वेग-निर्भर मानकर उसे सापेक्ष बतलाया । न्यूटन ने प्रकाश की प्रकृति समशाने हेतु कणिका सिद्धांत (Corpuscular theory) बनाया तो हाईगन नाम के वैज्ञानिक ने तरंग सिद्धांत प्रतिपादित किया । फिर भी प्रकाश का स्वरूप पूर्णरूप से नहीं समझ सके तो प्लांक ने क्वांटम सिद्धांत बनाया। पहले पदार्थ का सबसे छोटा अविभाज्य अंश परमाणु' समझा जाता था किसे अखंड माना जाता था । कालान्तर में परमाणु के भी खंड होते हैं ऐसा माना जाने लगा । इलेक्ट्रान की कल्पना की गई, फ़िर नाभिक में न्यूट्रान होने की बात चली, फ़िर क्वार्क (Quarks) का सिद्धांत आया । इस प्रकार सिद्धांतो तथा प्रकृति के नियमों के स्पष्टीकरणों को बदलने से ही हम सत्यान्वेष के निकट पहुंचते हैं । = लेकिन धर्म के दर्शन, सिद्धांत तथा उसके स्पष्टीकरण के साथ मुश्किल यह है कि हम कोई थ्योरी बदल नहीं सकते । देश और काल के साथ उसमें परिवर्तन अनुमत नहीं है। जैन धर्म का दर्शन सिद्धांत तो केवलज्ञानियों द्वारा प्रसूत माना जाता है इसलिये उसमें किसी परिवर्तन अथवा संशोधन की अनुमति नहीं होती । लेकिन प्रश्न उठता है के केवलज्ञान क्या है ? केवलज्ञान, अतीन्द्रिय ज्ञान है। केवल का तात्पर्य है शुद्धात्मा, सिद्धात्मा, सर्वज्ञ ज्ञान । इस प्रकार केवल ज्ञान आत्मीय ज्ञान है । वह हमारे कर्ण, चक्षु, स्पर्श घ्राण, आदि किसी द्रव्येन्द्रिय से अनुभूत नहीं है। वह आत्मा-अनुभूत है। चैतन्यस्वरूप आत्मा का संचेतन करना ही केवलज्ञान है। प्रवचनसार (गाथा २७) में आत्मा ही ज्ञान है तथा ज्ञान ही आत्मा है ऐसा बताया गया है। और आत्मा का जब शुद्ध ज्ञान प्रकट होता है तब यही शुद्धज्ञान, जो इन्द्रियों से परे है, केवलज्ञान कहलाता है। इसलिये केवलज्ञान को 'सकल प्रत्यक्ष ज्ञान' कहा गया है (तत्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र १२ ) । आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार के पूर्वरंग अधिकार की गाथा १६ के अनुसार 'दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तीनों आत्मा की ही पर्याये हैं ।' स्पष्ट है कि जब कर्म-पदार्थ का समूचा बन्धन समाप्त करके आत्मा, शुद्धात्मा हो जाती है तब वही ज्ञान, केवलज्ञान बन जाता है । समयसार की गाथा १११ एवं ११२ की टीका में कहा गया है, 'जब तक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तब तक ज्ञानज्योति केवलज्ञान के साथ शुद्धनय के बल से परोक्ष क्रीड़ा करती है; केवलज्ञान होने पर साक्षात् होती है । ज्ञानकला सहजरूप से विकास को प्राप्त होती जाती है और अन्त में वह केवलज्ञान रूपी परमकला बन जाती है । उसी प्रकार गाथा २०६ की टीकानुसार, 'ज्ञानमात्र आत्मा में लीन होना, उसी से तृप्त होना परमध्यान है और इस परमध्यान से ज्ञानानन्दस्वरूप केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।' गाथा २०५ के कलशकाव्य में लिखा है, 'जब तक केवलज्ञान (संपूर्ण ज्ञानकला) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनरूप ही है क्योंकि वह मतिज्ञानादि रूप इन्द्रिय ज्ञान है।' 1 केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्ध आत्मा ही है। जब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो तब तक (अर्थात् बारहवें गुणस्थानक तक) अज्ञान भाव ही बना रहता है । इसलिये प्रवचनसार की गाथा १९-२० में कहा है, 'आत्मा को पूर्ण ज्ञानमय और पूर्ण सुखमय होने में इन्द्रियों के निमित्त की आवश्यकता नहीं होती । अतीन्द्रिय द्वारा अनुभूत ज्ञान ही परमज्ञान है । और परमज्ञानियों (केवलज्ञानियों) के शरीर समबन्धी सुख या दुख नहीं है क्योंकि उनमें अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है।' आगे गाथा २१-२२ में लिखा है, 'वास्तव में केवलज्ञान रूप से परिणामित होते हुए केवली भगवंतो को सभी द्रव्य पर्याये प्रत्यक्ष होती है, वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते । इन्द्रिय गुण तो स्पर्शादिक एक-एक गुण को ही जानता है (जैसे चक्षु का गुण रूप को जानना मात्र हैं)' अर्थात इन्द्रियज्ञान क्रमिक है। लेकिन केवली भगवान इन्द्रियों के निमित्त के बिना समस्त आत्मप्रदेशों से स्पर्शादि सर्व विषयों को जानते हैं एवं समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव को क्रमरहित (अर्थात एकदेश, एकसाथ ) जानते है, इसलिये केवलज्ञानियों को कुछ भी 203 HOMON

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