Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 7
________________ जैन-भक्तिकाव्यको पृष्ठभूमि वह है, जिसमें मनका अन्तर्द्वन्द्व मिट सके और अपने भीतर ही होनेवाले तनाव . या संघर्षकी स्थितिसे बचकर मनकी सारी शक्ति एक ओर ही लग सके। जिस प्रकार बालक माताके दूध के लिए व्याकुल होता है और जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अनके लिए क्षुधित होकर सर्वात्मना उसीको आराधना करता है, वैसे ही अमत देवतत्त्वके लिए जब हमारी भावना जाग्रत हो, तभी भक्तिका विपुल सुख समझना चाहिए । भक्तिका सूत्रार्थ है भागधेय प्राप्त करना । यह भागधेय कौन प्राप्त करता है और कहां, इन दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंका उत्तर यह है कि एक ओर मयं मानव है और दूसरी ओर अमृत देवतत्त्व। इन दोनोंका सम्बन्ध विश्वविधानकी ओरसे ही नियत है। मानवको ही अपना उचित अंश प्राप्त करना है और जिसमें वह अंश प्राप्तव्य है, उसोकी संज्ञा देव है। उस अनन्त अमृत आनन्दरूप देवकी अनेक संज्ञाएं भारतीय धर्मसाधनामें पायी जाती हैं । नामोंके भेदके पीछे एक स्वरूपकी एकता स्पष्ट पहचानी जाती है । देवोंमें छोटे और बड़ेकी कल्पना अतात्त्विक है । जो महान् है वही देव है । जो अल्प है वही मानव है। भूमाको देव और सीमाको मानव कह सकते हैं। सीमा दुःख और अभावका हेतु है, भूमा आनन्द और सर्वस्व उपलब्धिका । इस प्रकारके किसी भी देवतत्त्वके लिए मानवके मनकी भविचल स्थिति भक्तिके लिए अनिवार्य दृढभूमि है। .. मनुष्य जीवनकी किसी भी स्थितिमें हो, सर्वत्र वह अपने लिए भक्तिका दष्टिकोण अपना सकता है। पिताके लिए पुत्रके. मनमें, पतिके लिए पत्नीके मनमें, गुरुके लिए शिष्यके मनमें जो स्नेहकी तीव्रता होती है, वही तो भक्तिका स्वरूप और अनुभव है। उस प्रकारका सम्बन्ध कहाँ सम्भव नहीं ? वही दिव्य स्थिति है, उसके अभावमें हम केवल पार्थिव शरीर रह जाते हैं और हमारे पारस्परिक व्यवहार यन्त्रवत् भावशून्य हो जाते हैं । अतएव मानवके भीतर जो सबसे अधिक मूल्यवान् वस्तु है अर्थात् हृदयमें भरे हुए भाव, उनके पूर्णतम विकासके लिए भक्ति आवश्यक है। जिसमें हृदयके भाव तरंगित नहीं होते, वह भी क्या कोई जीवन है ? सत्य तो यह है कि मानवको अपनी ही पूर्णता और कल्याणके लिए भक्तिको आवश्यकता है। यह भी कहा जा सकता है कि जैसे मानव देवके लिए आकांक्षा रखता है, वैसे ही देव भी मानवसे मिलनेके लिए अभिलाषी रहता है। विना पारस्परिक सम्बन्धके भक्ति सम्भव नहीं। किन्तु उसके लिए तैयारीकी आवश्यकता है। अभीप्सा होनी ही चाहिए । जिस प्रकार स्फटिकको मूर्यकी आवश्यकता है, उसी प्रकार सूर्य-रश्मियोंकी सार्थकता स्फटिकमें प्रकट होती है । स्फटिकके समान ही मनकी स्वच्छता बाह्य भक्तिचर्याका उद्देश्य ... . aiMESM-9: 11 A Arera

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