Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ निषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते है। उसमे से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम रूप प्रेय को और विवेकवान पुरुष श्रेय को चुनता है । वासना की तुष्टि के लिए भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिए कर्म अपेक्षित है, इसी भोग-प्रधान जीवन दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ है । दूसरी ओर विवेक के लिए विगग (संयम) और विराग के लिए आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) अपेक्षित है, इसी आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से तप-मार्ग का विकास हुआ। इनमे पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और मरी मे निवर्तक धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा अतः उमने अपनी माधना का लक्ष्य सुखसुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया । जहाँ ऐहिक जीवन में उमने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि कामना की, वही पारलौकिक जीवन मे स्वर्ग (भौतिकमुष मुवि पाओ की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य घापित किया । आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलातिक एवं प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं के उपलब्धि के प्रयामो को मफल या विफल बना गकती है एवं उमकी सुख-सुविधाएं उसके अपने पुरुषार्थ पर ही नही अपितु इन शक्तियो की कृपा पर निर्भर है, तो इन्हे प्रमन्न करने के लिए वह एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो दूसरी ओर उन्हे बलि और यमो के माध्यम में मन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ-(१) श्रद्धा प्रधान भक्ति-मार्ग और (२) यज्ञ-याग प्रधान कर्म-मार्ग । दूमगे ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमग मे निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् शारीरिक वामनाओं एव लौकिक एपणानो में पूर्ण मुक्ति को मानव जीवन का लक्ष्य माना आर इम हेतु ज्ञान और विगगका प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन मामाजिक एव पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था, अतः निवर्तक धर्म मानव को जीवन के कम-क्षेत्र से कही दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि-कन्दगओं में ले गया, जहाँ एक और दैहिक मूल्यो एवं वामनाओं के निषेध पर बल दिया गया, जिसमें बैगग्यमूलक ना-मार्ग का विकास हा, दूमरी ओर उम एकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार ग्बुले, जिज्ञामा का विकास हुआ, जिसमे चिन्तनप्रधान ज्ञान मार्ग का उद्भव हुआ । इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो मुख्य शाखाओं में विभक्त हो गया-(१) ज्ञान-मार्ग और (२) तप मार्ग। मानव प्रकृति के दैहिक और चैतमिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न मारिणी के माध्यम में अधिक स्पष्ट किया जा सकता है

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