Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva Author(s): Manishsagar Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 2
________________ जीवन में सभी को सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा - सुहन्साया दुक्खपडिकूला' | अतः हमें यह मानना चाहिए कि जैसे हमें दुःख प्रिय नहीं है, वैसे। ही सब जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है ।। जीवन-प्रबन्धन की नीति भी यही है कि हम किसी को दुःखी न करें और कोई कुछ भी। करे, हम दुःखी न हों । इसे ही जिओ और। जीने दो' (Live & Let Live) की नीति भी। कहते हैं । जीवन में संयोग और वियोग का सिलसिला लगा ही रहता है । इसमें कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ मिलती रहती है । इनमें कैसे जीना चाहिए, यह एक कला है । जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य इसी कला का शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान करना है । इसके अनुसार, व्यक्ति को जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, बन्धु-शत्रु और सूख-दुःख की परिस्थितियों में राग-द्वेष से। 'रहित होकर सम परिणाम रखना चाहिए। 'जिसे सामायिक कहते हा लाभालामे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।। समो निंदा-पसंसासु, तहा माणावमाणओ ।। मानव जीवन सर्व जीवनों में विशिष्ट जीवन है इसकी प्रामाणिकता तो इससे प्रकट होती है कि जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि सर्व आस्तिक धर्मों के सिद्धांतों में एक आवाज से इसके यशोगान गाये हैं। इस विशिष्ट जीवन का एक पल भी महान् कीमती है, क्योंकि एक पलभर भी किया गया प्रभु स्मरण अगणित पुण्य का संग्रह कर सकता है। 9 -स्व. प्रव. श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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