Book Title: Jab Murdebhi Jagte Hai
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 4
________________ "दरों-दीवार पर हसरत की नज़र करते हैं। खुश रहो अहले वतन ! हम तो सफर करते हैं।" और वे सभी लम्बे सफर के लिए रवाना हो गये । उस लम्बे सफर पर, जहाँ से लौटा नहीं जा सकता । आज सिर्फ उनकी याद ही बाकी रह गई है। अफसोस है कि उन दीवानों की भावनाओं का किसी ने ख्याल नहीं रखा । हम सब सिर्फ लकीर पीटना जानते हैं । अन्धविश्वास और रूढ़ियों के प्रभाव में हम आज भी हैं। जिस भारत के उन दीवानों ने सपने देखे थे, उस भारत की तस्वीर कहीं दिखाई नहीं देती । अखण्डता, ऐक्य, सहिष्णुता, पारस्परिक प्रेम आज दिखाई नहीं पड़ते। इनके स्थान पर देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली प्रान्तीयता, भाषान्धता, जातीयता, स्वार्थ तथा कुनबापरस्ती के रूप हर जगह दिखाई देते हैं । एक प्रकार से कहा जा सकता है कि हम सब आझाद तो हुए विदेशी शासकों के चंगुल से. किन्तु अपनी संकीर्णता के इतने गुलाम हो गये हैं कि इनके लिए हम देश की सांस्कृतिक चेतना का गला तक घोंट देने से नहीं हिचकते, देश की उन्नति को प्रमुखता नहीं देते हैं और स्वार्थ के लिए हम क्या-कुछ करने को तैयार नहीं ? "शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा ।" हाँ! आज भी मेले जुड़ते हैं जलियांवाला बाग स्थित उन महान वीरों की समाधियों तथा कबरों पर । आज भी वहां एकत्रित होते हैं देशवासी उनकी समाधियों पर दीपक जलाने के लिए । राष्ट्र के स्तम्भ नवयुवक भी जाते हैं वहां उन वीरों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने, किन्तु वहाँ क्या होता है ? किस प्रकार की बातें होती हैं वहां, इसका स्वरूप आपको इस नाटक में देखने को मिलेगा । रस्म-अदायगी के रूप में वहाँ जाने से लाभ क्या है जब हम उन वीरों की भावनाओं का आदर नहीं कर सकते? अमर-शहीद सरदार भगतसिंह की वृद्धा माता की जो स्थिति रही, सब जानते हैं। जनता तथा सरकार, किसी ने भी उनकी वृद्धावस्था की ओर ध्यान नहीं दिया। जरा-सी मासिक वृत्ति बाँध देने से क्या उसकी सहायता हो गई? जनता में राष्ट्र-प्रेम की भावना जाग्रत करने, देश की अखण्डता को महत्व देने, सांस्कृतिक-चेतना तथा पारस्परिक प्रेम को बढ़ाने की प्रेरणा को ज्वलन्त रूप देने के लिए "जब मुर्दे भी जागते हैं।" एक साधारण-सा प्रयोग है। कहीं-कहीं लेखक की भावना इतनी तीव्र हो गयी है कि वह हम पर व्यंग्य करता है, विद्रूप की हंसी हंसता है और कटु भावनाओं को व्यक्त करता है जो इतनी तीव्र होती है कि हम तिलमिला कर रह जाते हैं किन्तु आत्मा निश्चित रूप से लेखक की भावना का समर्थन करती है और सत्य चाहे कितना ही कडुआ क्यों न हो, आत्मा उसके अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकती । नाटक आरम्भ होता है और दर्शकों की आँखों के सामने अंग्रेजों की बर्बरता तथा आज़ादी के दीवानों की लगन का सच्चा स्वरूप दिखाई देने लगता है। योगेन एक शहीद का पुत्र है। घर में उसकी माता बीमार पड़ी है जिसके इलाज के लिए योगेन के पास पैसे नहीं । अपने शहीद पिता के कोट को बेच कर या गिरवी रख कर वह कुछ रुपये लेने के लिए जाता है लेकिन उसे निराश होना पड़ता है। सब प्रकार से निराश हो कर वह अपने पिता की समाधि पर जा कर बैठ जाता है। उस दिन विभिन्न व्यक्ति वहाँ आते हैं, वीरों की समाधियों पर दीप जलाने के लिए, वहाँ वह उनकी बातें सुनता है तथा उनसे बातें भी करता है। योगेन सुशिक्षित ग्रेज्युएट है और उसकी आत्मा को एक गहरा धक्का लगता है। उधर घर में उसकी बीमार माँ की मृत्यु हो जाती है। हमारे यहाँ जीवित व्यक्ति की कोई कदर नहीं होती । मरने के पश्चात् ही उसका महत्त्व स्वीकार किया जाता है, गोया हम उनके मरने की प्रतीक्षा किया करते हैं कि कब वह मरें और कब हम उन्हें श्रद्धाज्जलियाँ अर्पित करने के बहाने अपना महत्व प्रदर्शित करें । क्षमा करें, ऐसे अनेक उदाहरण हैं । महान उपन्यासकार प्रेमचन्द खून की उल्टियाँ करते हुए भरे, महाप्राण निराला को कितना दु:ख उठाना पड़ा ? ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं रही जिन्होंने अपना महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए उन महामनुजों की शोक-सभाओं का आयोजन किया । बुरा तो लगता है किन्तु यह एक कटु सत्य है। नाट्य-नायक योगेन की आत्मा चीत्कार करती रहती है देश की वर्तमान स्थिति देखकर । वह उन स्वर्गीय आत्माओं से प्रार्थना करता है और वे स्वर्गीय आत्माएँ प्रकट होती हैं । स्टेज पर इस दृश्य को देख कर दर्शक मौंचक्का-सा रह जाता है । इन स्थानों पर जो परस्पर वार्तालाप होता है, वह गंभीर चिन्तन तथा मनन का विषय है। नाटक में क्रान्तिकारियों के कार्य का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। उनकी कार्य-प्रणाली का एक प्रखर रूप हमारी आँखों के सामने आ जाता है तथा उनके प्रति हृदय में श्रद्धा जागृत होती है । उनके सपने साकार तो हुए, देश आझाद तो हुआ, किन्तु भारत के वर्तमान स्वरूप को देखकर उनकी आत्मा को अवश्य दुःख हो रहा होगा । कहाँ है वह आग जो सबको एकता की भावना में बांध कर, जातीयता, धर्मान्धता तथा सब प्रकार की संकुचित भावनाओं से ऊँचे उठा कर प्राणों तक का बलिदान करने की प्रेरणा देती थी। देश भक्ति से भरे हुए इस अभिनव नाट्य-संगीत-ध्वनि-रूपक का उद्देश्य किसी पक्षपात अथवा दलबन्दी की भावना का उन्मेष करना नहीं है । लेखक का उद्देश्य तो उन शहीदों के स्वर में यही है"दिन खून के हमारे यारों ! न भूल जाना ।" -प्रा. गिरिजाशंकर शर्मा, "गिरीश" हैदराबाद

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