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PRINT ONLY 250 cap JAB MURDE BHI JAGATE HEIN! (Hindi Play) *
ONLY A FEW By Prof. Pratapkumar J. Toliva CORO
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umar J. Toliya CORRECTIONS
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Copyright Publishers Vardhman Bharati International Foundation Prabhat Complex, K.G. Road, Bangalore-560009
*Parul 1580, Kumarswami Layout, Bangalore-5600095 (Phone : 080-26667882 / Mobile : 09611231580 / 09845006542) E-mail : pratapkumartoliya@gmail.com
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First Edition : 2018-Without Prior Written permissio)
Copies 500 250 Price : Rs. 52=00 Abroad : $ 5500
SOS
(शहीदों की वेदना का क्रान्तिकारी नाटक)
प्रा. प्रतापकुमार टोलिया
Typoset & Printing : Vinayak Printers, Ahmedabad-380001. Mobile : 9979206060
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जब मुर्दे भी जागते हैं !
... . . (जलियाँवाला बाग एवं समग्र भारत के .. शहीदों की वेदना का क्रान्तिकारी एकांकी नाटक)
प्रा. प्रतापकुमार टोलिया
वर्तमान के महाभ्रष्ट शासक नेताओं से पूछते हैं मुर्दास्थानों से जाग कर आते हुए सभी शहीद : "क्या यही है हमारे सपनों का भारत ? कि जिसके लिये हमने जान बिछाये थे ?"
zna Proor. UI. 15.6.18 - मुख्य कलाकार
साहित्य, संगीत, कला, योगेन के पात्र में विद्युत् त्रिवेदी
निसर्गोपचारादि की प्रमुख कलानिर्देशक
जीवन लक्षी सांस्कृतिक शिक्षा-संस्था श्री रामकुमार राजप्रिय एवं प्रा. प्रतापभाई।
सर्वोदय-प्रतिष्ठान टोलिया के संचालन-निर्देशन में
अमरेली-अहमदाबाद प्रस्तोता एवं प्रधान-प्रवक्ता - .. श्री उमेशभाई जोशी
(जिस के मूल में विनोबाजी का . संगीत : श्रीमती सुमित्रा टोलिया
सर्वोदय विचार रहा है ऐसा पार्श्व-संगीत, ध्वनि, वाणी नियोजक - एक राष्ट्रीय नाटक)
प्रा. अनूपचन्द्र भायाणी संगीत-वृंद संचालक
(दूसरा ऐसा नाटक है गांधीजी श्री हिमांशु देसाई
एवं उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक कला-निर्माता
श्रीमद् राजचंद्रजी विषयक श्री चंपकभाई मुलाणी
"महासैनिक", कला-दृश्य-नियोजक
सर्वोदय प्रतिष्ठान श्री कमल त्रिवेदी प्रकाश नियोजक
प्रस्तुत करता है: श्री नटुभाई
गुजरात के सुप्रसिद्ध कला-दिग्दर्शक स्टेज व्यवस्था-संचालक श्री रामकुमार राजप्रिय के मार्गदर्शन में देवचन्द्र रामाणी, नटु शुक्ल, किरीट पटेल | दृश्य, प्रकाश, ध्वनि, संगीत, कथा, इस नाटक के अभिनीत प्रयोग: हैदराबाद | संवाद एवं अभिनय के नूतन विनियोग (आन्ध्र), अहमदाबाद, अमरेली और अब से पूर्ण करुणान्त हिन्दी नाटकप्रस्तुत हैं आगामी प्रयोग
__जब मुर्दे भी जागते है !" • अहमदाबाद : ३० अप्रैल, १९६२ • हैदराबाद (आन्ध्र) : ५, ६, ७, मई, १९६२
(जलियांवाला बाग के शहीदों की • मद्रास : १०, ११, मई, १९६२
तथ्यानुभूतियुक्त संवेदन-कथा) • बेंगलोर : १२, १३, १४, मई, १९६२
लेखक दिग्दर्शक संगीत नियोजक • मेंगलोर : १९, २, मई, १९६२
श्री प्रतापभाई ज. टोलिया, • कोचीन : २१, २२ मई, १९६२
एम.ए., साहित्यरत्न • बम्बई : २,३, जून, १९६२
| प्राध्यापक, प्रतापराय आर्ट्स कॉलेज, और विशेष में :- पूना, कलकत्ता, बड़ौदा,
(1961-1962) सूरत, भावनगर, राजकोट, सर्वत्र ।
अमरेली,
नियामक, सर्वोदय-प्रतिष्ठान, ..... मेरे लिए वतन का
अमरेली-अहमदाबाद. हर जरी देवता है!"
उन शहीदों की याद में जिन्होंने अपने कमर्शियल प्रिन्टींग प्रेस, बेगमबाज़ार, | खून से हिन्दोस्तों के बाग को सींचा ।
हैदराबाद
"ए मेरे वतन के लोगों ! ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो कुरबानी।"
प्रकाशक वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउन्डेशन प्रभात कोम्पलेक्स, के.जी. रोड, बेंगलोर-560009. (फोन : 080-26667882/09611231580) E-mail: pratapkumartoliya@gmail.com
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। समर्षण इस अनूठे क्रान्तिकारी नाटक के प्रेरणा-स्रोत स्वर्गीय अनुज स्वयं
क्रान्तिकार कीर्तिकुमार टोलिया नूतन भारत - भ्रष्टाचारमुक्त अभिनव भारत के आर्षद्रष्टा
क्रान्तदर्शी कवि मनीषि प्रधानमंत्री .
श्री नरेन्द्र मोदी एवं ऐसे भ्रष्टाचार मुक्त, अहिंसक, सर्वोदयी भारत के सारे स्वप्नद्रष्टा ।
अभिनव भारतीय नवयुवानों को
प्राक्कथन. मेरे स्वर्गीय क्रान्तिकार अनुज एवं शहीद भगतसिंह के अंतेवासी सरदार पृथ्वीसिंह आझाद के प्यारे शिष्य श्री कीर्तिकुमार टोलिया के कठोर साधनामय जीवन और उसके असमय जीवन-समापन ज्ञानपंचमी 5 नवम्बर 1959 के तुरन्त पश्चात् यह नाटक लिखा गया ।
लिखते समय बडी भारी अंतर्वेदना थी । क्रान्तिकार दिवंगत अनुज की अदम्य क्रान्ति - पीड़ा थी । उसने आद्यान्त बाह्यांतर संघर्षों से बीताये हुए जीवन, आदर्शों और अधूरे क्रान्तिस्वजों की प्रतिछाया थी । उसीके एवं स्वर्गीय महान शहीदों के अंतर्लोक में, अंतस्तल की गहराई में, पैठकर यह नाटक शब्दबद्ध हुआ, लिखा गया । लिखा क्या, अगम्य प्रेरणा से फूटता, प्रतिबिंबित, प्रतिध्वनित होता गया ! इतना ही नहीं, अंतस् में भरी हुई इस घनीभूत पीडा को मंचीय अभिव्यक्ति भी प्रदान करने यह तुरन्त ही स्वर्गीय अनुज की देहत्याग की धरती हैदराबाद - आंध्र के उस्मानिया विश्वविद्यालय में सामान्य प्राथमिक रुप में खेला भी गया, मंचन भी किया गर्या ।।
नाटक के कथनों एवं संवादो की दिलो - दिमाग पर फिर तो ऐसी धूम मची, सर पर ऐसी धून सवार रही कि बाद में वह शीघ्र ही अहमदाबाद, गुजरात के टाउनहोल में 1960 में एवं तत्पश्चात् पुनः हैदराबाद की धरती पर 1962 में, सोये हुए मुर्दो को जगाता हुआ, अपना विशाल प्रभाव बिछाता हुआ अनेक मंचो पर प्रस्तुत हुआ । कुल मिलाकर तब 12 (बारह) सफल प्रयोग संपन्न हुए।
इस नाटक में स्वर्गीय क्रान्तिकार अनुज के अनूठे क्रान्त-संक्रान्त जीवन का इंगित इतिहास है, जो उसकी गहराई से पठनीय जीवनी 'क्रान्तिकार कीर्तिकुमार' से वर्णित है । प्रारम्भ में हिंसक क्रान्ति का यह पुरस्कर्ता अंत में अहिंसक क्रान्ति में इतना तो अध्यान्वित हुआ कि उसने अपना अनुकरणीय देहत्याग भी अहिंसानिष्ठ ढंग से "मेरे देह में हिंसक औषधि की एक बूंद भी जाने न पाये ।" - का संकल्प स्वजनों से करवाकर किया । अहिंसा -प्रेम-करुणा के अंतिम संदेश प्रदाता इस नाटक का 'आमुख' लिखने के लिये मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र प्रा. गिरिजाशंकर शर्मा का मैं आभारी हुँ। अंत में यह नाटक दिशाहीन संभ्रान्त नवयुवकों को जीवन-क्रान्ति देनेवाला बने, यह अभ्यर्थना । ॐ शान्तिः । बेंगलोर, 21-2-2018
प्रतापकुमार टोलिया
परिचयात्मक आमुख जब मुर्दे भी जागते हैं ! सन् १९१९ का खूनी दिवस !
पाशविक शक्ति के प्रतीक तथा साम्राज्य लिप्सा में चूर मानव रूपी दानवों की क्रूरतम हिंसा का नंगा नाच । निहत्थे भारतीय, स्त्री, पुरुषों तथा बच्चों को जिस दिन गोरे डायर की गोलियों का आलिंगन करना पड़ा । जिस दिन हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी आदि सारी भारतीय जातियों का गरम खून एक जगह पर जमा हो कर भारत की ऐकता का पुंजीभूत प्रतीक बन गया । सबके दिलों में एक ऐसी ज्योति जल उठी जिसने उनकी निराशा को क्रोध में बदल दिया । सबका एक ही लक्ष्य था - उस जालिम विदेशी को अपनी जन्मभूमि से निकाल फैकना, उस पाशविक शक्ति को भारत से समाप्त करना जो व्यापारियों के रूप में आयी और शासक बन बैठी। सन् १९१९ की तेरहवीं अप्रैल !
जर्जर तथा निरीह भारतीयों में जिस दिन साहस तथा आशा का प्रबल संचार हुआ, जिस दिन उनके हृदय में जलती हुई चेतना की मशाल ने ज्वलन्त रूप ग्रहण किया तथा एक दिन विदेशी आक्रमकों की राज्य-लोलुपता को भस्मीभूत कर दिया । भारतमाता की गुलामी की जंजीरें झनझना कर ट्टने लगीं । भारतमाता की हथकड़ी की कड़ियों को तोड़ने का जितना श्रेय पवित्रात्मा बापू की अहिंसा को है, उतना ही उन वीर पुरुषों के दिलों में जल रही उस आग को भी है जिसके कारण उन्होंने हँसते-हँसते फाँसी की रस्सी को पुष्पमाला समझ कर अपने हाथों गले में पहन लिया तथा बन्दूकों की गोलियों को स्वतन्त्रता-देवी की पूजा के फूल समझ कर अपनी छातियों पर झेला । स्व. सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद प्रभृति वीरों को हम भारतवासी भूल-से गये हैं, और शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो भारत के स्वातंत्र्य-यज्ञ का उल्लेख करते समय, स्टेज पर भाषण देते समय इन महान वीरों का तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम लेता हो ।
"दिन खून के हमारे यारों ! न भूल जाना ।"
- यह उन्हीं वीरों में से एक ने कहा था और हम उनके महान बलिदानों को भूल गये हैं - उन व्यक्तियों के बलिदानों को, जिन्होंने हमें खुश रखने के लिए दुखों को गले लगाया तथा इस लोक से प्रयाण करते समय न जाने कितनी हसरतें दिलों में ले कर चले गये, वह हसरतें जो कि आशीर्वाद के रूप में हमें इन शब्दों में प्राप्त हुई -
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"दरों-दीवार पर हसरत की नज़र करते हैं। खुश रहो अहले वतन ! हम तो सफर करते हैं।"
और वे सभी लम्बे सफर के लिए रवाना हो गये । उस लम्बे सफर पर, जहाँ से लौटा नहीं जा सकता । आज सिर्फ उनकी याद ही बाकी रह गई है। अफसोस है कि उन दीवानों की भावनाओं का किसी ने ख्याल नहीं रखा । हम सब सिर्फ लकीर पीटना जानते हैं । अन्धविश्वास और रूढ़ियों के प्रभाव में हम आज भी हैं। जिस भारत के उन दीवानों ने सपने देखे थे, उस भारत की तस्वीर कहीं दिखाई नहीं देती । अखण्डता, ऐक्य, सहिष्णुता, पारस्परिक प्रेम आज दिखाई नहीं पड़ते। इनके स्थान पर देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली प्रान्तीयता, भाषान्धता, जातीयता, स्वार्थ तथा कुनबापरस्ती के रूप हर जगह दिखाई देते हैं । एक प्रकार से कहा जा सकता है कि हम सब आझाद तो हुए विदेशी शासकों के चंगुल से. किन्तु अपनी संकीर्णता के इतने गुलाम हो गये हैं कि इनके लिए हम देश की सांस्कृतिक चेतना का गला तक घोंट देने से नहीं हिचकते, देश की उन्नति को प्रमुखता नहीं देते हैं और स्वार्थ के लिए हम क्या-कुछ करने को तैयार नहीं ?
"शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा ।"
हाँ! आज भी मेले जुड़ते हैं जलियांवाला बाग स्थित उन महान वीरों की समाधियों तथा कबरों पर । आज भी वहां एकत्रित होते हैं देशवासी उनकी समाधियों पर दीपक जलाने के लिए । राष्ट्र के स्तम्भ नवयुवक भी जाते हैं वहां उन वीरों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने, किन्तु वहाँ क्या होता है ? किस प्रकार की बातें होती हैं वहां, इसका स्वरूप आपको इस नाटक में देखने को मिलेगा । रस्म-अदायगी के रूप में वहाँ जाने से लाभ क्या है जब हम उन वीरों की भावनाओं का आदर नहीं कर सकते?
अमर-शहीद सरदार भगतसिंह की वृद्धा माता की जो स्थिति रही, सब जानते हैं। जनता तथा सरकार, किसी ने भी उनकी वृद्धावस्था की ओर ध्यान नहीं दिया। जरा-सी मासिक वृत्ति बाँध देने से क्या उसकी सहायता हो गई?
जनता में राष्ट्र-प्रेम की भावना जाग्रत करने, देश की अखण्डता को महत्व देने, सांस्कृतिक-चेतना तथा पारस्परिक प्रेम को बढ़ाने की प्रेरणा को ज्वलन्त रूप देने के लिए "जब मुर्दे भी जागते हैं।" एक साधारण-सा प्रयोग है। कहीं-कहीं लेखक की भावना इतनी तीव्र हो गयी है कि वह हम पर व्यंग्य करता है, विद्रूप की हंसी हंसता है और कटु भावनाओं को व्यक्त करता है जो इतनी तीव्र होती है कि हम तिलमिला कर रह जाते हैं किन्तु आत्मा निश्चित रूप से लेखक की भावना का समर्थन करती है और सत्य चाहे कितना ही कडुआ क्यों न हो, आत्मा उसके अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकती । नाटक आरम्भ होता है और दर्शकों की आँखों के सामने अंग्रेजों की बर्बरता तथा आज़ादी के दीवानों की लगन का सच्चा स्वरूप
दिखाई देने लगता है। योगेन एक शहीद का पुत्र है। घर में उसकी माता बीमार पड़ी है जिसके इलाज के लिए योगेन के पास पैसे नहीं । अपने शहीद पिता के कोट को बेच कर या गिरवी रख कर वह कुछ रुपये लेने के लिए जाता है लेकिन उसे निराश होना पड़ता है। सब प्रकार से निराश हो कर वह अपने पिता की समाधि पर जा कर बैठ जाता है। उस दिन विभिन्न व्यक्ति वहाँ आते हैं, वीरों की समाधियों पर दीप जलाने के लिए, वहाँ वह उनकी बातें सुनता है तथा उनसे बातें भी करता है। योगेन सुशिक्षित ग्रेज्युएट है और उसकी आत्मा को एक गहरा धक्का लगता है। उधर घर में उसकी बीमार माँ की मृत्यु हो जाती है।
हमारे यहाँ जीवित व्यक्ति की कोई कदर नहीं होती । मरने के पश्चात् ही उसका महत्त्व स्वीकार किया जाता है, गोया हम उनके मरने की प्रतीक्षा किया करते हैं कि कब वह मरें और कब हम उन्हें श्रद्धाज्जलियाँ अर्पित करने के बहाने अपना महत्व प्रदर्शित करें । क्षमा करें, ऐसे अनेक उदाहरण हैं । महान उपन्यासकार प्रेमचन्द खून की उल्टियाँ करते हुए भरे, महाप्राण निराला को कितना दु:ख उठाना पड़ा ? ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं रही जिन्होंने अपना महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए उन महामनुजों की शोक-सभाओं का आयोजन किया । बुरा तो लगता है किन्तु यह एक कटु सत्य है।
नाट्य-नायक योगेन की आत्मा चीत्कार करती रहती है देश की वर्तमान स्थिति देखकर । वह उन स्वर्गीय आत्माओं से प्रार्थना करता है और वे स्वर्गीय आत्माएँ प्रकट होती हैं । स्टेज पर इस दृश्य को देख कर दर्शक मौंचक्का-सा रह जाता है । इन स्थानों पर जो परस्पर वार्तालाप होता है, वह गंभीर चिन्तन तथा मनन का विषय है।
नाटक में क्रान्तिकारियों के कार्य का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। उनकी कार्य-प्रणाली का एक प्रखर रूप हमारी आँखों के सामने आ जाता है तथा उनके प्रति हृदय में श्रद्धा जागृत होती है । उनके सपने साकार तो हुए, देश आझाद तो हुआ, किन्तु भारत के वर्तमान स्वरूप को देखकर उनकी आत्मा को अवश्य दुःख हो रहा होगा । कहाँ है वह आग जो सबको एकता की भावना में बांध कर, जातीयता, धर्मान्धता तथा सब प्रकार की संकुचित भावनाओं से ऊँचे उठा कर प्राणों तक का बलिदान करने की प्रेरणा देती थी।
देश भक्ति से भरे हुए इस अभिनव नाट्य-संगीत-ध्वनि-रूपक का उद्देश्य किसी पक्षपात अथवा दलबन्दी की भावना का उन्मेष करना नहीं है । लेखक का उद्देश्य तो उन शहीदों के स्वर में यही है"दिन खून के हमारे यारों ! न भूल जाना ।"
-प्रा. गिरिजाशंकर शर्मा, "गिरीश" हैदराबाद
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जब मुर्दे भी जागते हैं !
(1960-62) शहीदों के संवेदनों से युक्त करुणान्त हिन्दी नाटक
लेखक-दिग्दर्शक-संगीत-निर्देशक :
प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया (एम.ए : हिन्दी, एम.ए. अंग्रेजी), साहित्य रत्न भूतपूर्व आचार्य, नेशनल कोलेज, अहमदाबाद)
जब मुर्दे भी जागते हैं !
कलाकार पात्रसूची
अभिनेता-वृंद
(1961-62) (अतीत के अमर कलाकार) (अनागत के भावी अनाम कलाकार) योगेन
विद्युत त्रिवेदी सरला दीदी
रंजना भट्ट करणसिंह
कनुभाई भट्ट पृथ्वीसिंह
देवचंद रामाणी प्रीतमसिंह
रमेश व्यास सैयदुल्ला
वीरु अकबरी रामजसजी
चुनीभाई रावल मेजर डायर
रमेश भाई आझादसिंह
घनश्याम जोशी संदेशवाहक
रमेश भट्ट क्रान्ति सहगल निहालसिंह
रमेशभाई वीरेन्द्र मिश्र
भीखुभाई हरियाणी देवीप्रसाद
अनूपचन्द्र भायाणी बूढ़े चाचा
चुनीभाई रावल चपरासी भोलाराम उपेन्द्र पाठक मि. खन्ना"
कनु पंचाल, मि. आंटिया
- .. रमेश भट्ट मि. देवेन्दर
भीखुभाई हरियाणी भजनिक
नटु शुक्ल
संगीत-वृंद श्रीमती अमृत भायाणी
प्रा. अनूपचन्द्र भायाणी बी. ए.
एम. ए. श्रीमती सुमित्रा टोलिया
प्रा. प्रतापभाई टोलिया बी. ए. कु. विभा वैष्णव
प्रा. निरंजन राजासुबा
___एम. ए.
श्री हिमांशु देसाई बी. म्युजि. श्रीमती रंजन, श्रीमती ज्योति, श्री जितेन्द्र त्रिवेदी : वायलिन, श्री केशुभाई पंड्या : बाँसुरी, श्री देवशी भाई वांजा : तबला ।
(७)
नाटक : अन्यों की दृष्टि में - प्रथम प्रयोग (१९६०-६१): (श्री स्वामिनारायण कोलेज वार्षिकोत्सव : अहमदाबाद, टाउनहोल)
I HEARTILY CONTRATULATE YOU FOR YOUR EXCELLENT SCRIPT AND ABLE DIRECTION OF THIS HINDI PLAY "JAB MURDE BHI JAGATE HEIN" ! PLEASE CONVEY MY CONGRATULATIONS TO ALL STUDENTS WHO PARTICIPATED IN THIS PLAY..... I WOULD VERY MUCH WISH TO REPEAT THE PERFORMANCE OF THE ABOVE PLAY ON 26TH JANUARY, 1961 IF POSSIBLE. 22.12.60 - PREMSHANKAR H. BHATT : PRINCIPAL, SWAMINARAYAN COLLEGE, AHMEDABAD. द्वितीय प्रयोग (१९६१): (गुजरात लॉ सोसायटी की अंतर्महाविद्यालय एकांकी नाट्य - प्रतियोगिता में विशिष्ट पुरस्कार पाते समय : अहमदाबाद टाउनहोल)
“આ એકાંકીના લેખક આ જ (સ્વામિનારાયણ) કોલેજમાં કામ કરતા હિન્દીના પ્રાધ્યાપક શ્રી ટોલિયા હતા. સંગીત પણ શ્રી ટોલિયાએ સંભાળ્યું હતું. નાટકમાં લેખકે
बी. ए.
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હાલની નેતાગીરી, અમલદારશાહી, લાંચરૂશ્વત, ઈત્યાદિ સામે સારા એવા કટાક્ષો કર્યા હોવાથી પ્રેક્ષકો કેટલીકવાર એ સંવાદો સાંભળી ગેલમાં આવી જતા હતા. બીજું, પ્રકાશ-આયોજન પણ ઘણું સુંદર મળેલું હોઈ નાટકની રજૂઆતને એ ઘણો ઓપ આપતું હતું. ખાસ કરીને સ્વપ્ન-દેશ્યો ઘણાં સુંદર હતાં. છાયાદેશ્ય તથા સિલ્કાઉટની ટેકનિક સુંદર હતી. આમ રંગરોગાન અને જોતી વખતે રુચે એવા સ્વાદિષ્ટ તત્ત્વો આ નાટિકા ધરાવતી હતી એનાથી પ્રેક્ષકો એને રસપૂર્વક નીરખી રહ્યાં.
“આ નાટકમાં કેટલાક પાત્રોએ તો સુંદર અભિનય આપ્યો. ખાસ કરીને યોગેનનું પાત્ર ભજવતા ભાઈ વિદ્યુત ત્રિવેદીનો અભિનય પણ સુંદર હતો. શહીદના ચીંથરેહાલ બનેલા પુત્રના પાત્રને એમણે સારી રીતે દીપાવ્યું....
સહુનું હિન્દી ઉચ્ચારણ સારું હતું. નાટકનું સંગીત પણ સાચું કહી શકાય તેવું હતું. સૂર સ્પષ્ટ સંભળાતો હતો, જ્યારે વાજિંત્રોનો અવાજ ધીમો હતો, જેથી ગીતો સાંભળવા યોગ્ય બની રહેતાં હતાં.”
16.1.61 "जनसत्ता" (गुजराती दैनिक पत्र : अहमदाबाद) तीसरा-चौथा-पांचवाँ प्रयोग : जनवरी-फरवरी-६२ (सर्वोदय प्रतिष्ठान, अमरेली)
‘જલિયાનવાલા બાગના હત્યાકાંડથી માંડીને ૧૯૪૨ના સ્વાતંત્ર્ય સંગ્રામ સુધીના ઈતિહાસને આવરી લેતા આ નાટ્યપ્રયોગમાં ભારતની પરિસ્થિતિનું હૃદયસ્પર્શી આલેખન કરવામાં આવ્યું હતું. સ્વાતંત્ર્ય પછી હેતુવિહીન અને છિન્નભિન્ન થયેલ જનતા અને સમાજનું પ્રતિબિંબ ઝીલવામાં આવ્યું હતું. વિદ્રોહની આગ તરફ ઘસડાતા ભારતને, બાપુના વિસારે પડાતા ભારતને, ફરી એકવાર એક કર્મયોગીનું માર્ગદર્શન સાંપડ્યું અને શ્રી વિનોબાનો સર્વોદય-સંદેશ ભારતને ખૂણેખૂણે ગુંજી ઉઠ્યો એ નાટકનાં અંતિમ દૃશ્યોમાં આવરી લેવાયું હતું.
વેશભૂષા, ટૅકનિક અને દિગ્દર્શનની દૃષ્ટિએ નાટક ઉત્તમ કક્ષાનું ગણાયું હતું. હિન્દીમાં નાટક રજૂ કરવાનો (અમરેલીમાં) આ પ્રથમ પ્રયાસ સફળ નીવડ્યો હતો. પ્રમુખશ્રીએ પોતાના પ્રવચનમાં નાટકનાં હૃદયવિદારક દેશ્યોનું સુરેખ વિવેચન આપ્યું तुं. !"
11.2.62 - सौराष्ट्र समाचार : (गुजराती दैनिक पत्र : भावनगर)
छट्ठा-सातवा-आठवाँ प्रयोग : ( श्री गुजराती प्रगति समाज हैदराबाद आंध्रप्रदेश के लिए सर्वोदय प्रतिष्ठान की ओर से गांधीभवन, हैदराबाद में ५, ६, ७ मई, १९६२ को प्रस्तुत)
"जब मुर्दे भी जागते हैं !" - राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत संगीत नाट्य-रूपक
"गुजराती प्रगति समाज हैदराबाद की सहायतार्थ सर्वोदय प्रतिष्ठान, अमरेलीअहमदाबाद के कलाकारों ने ५, ६, ७ मई को गांधीभवन में जो संगीत-नाट्यरूपक “जब मुर्दे भी जागते हैं !" और गायनादि का सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, उससे समाज को आशा से अधिक धनराशि की प्राप्ति हुई। ___ "जब मुर्दे भी जागते हैं !" एक नूतन प्रयोग है जिस में लेखक ने रेडियोरूपक, रंगमंचीय नाटक एवं गायन-तीनों का मिश्रण अत्यन्त सफल रूप से, एक नई टेकनिक द्वारा प्रस्तुत किया है। कथानक भारत की स्वतन्त्रता के लिए बलिदान देनेवाले शहीदों की अतीत की स्मृति को जीवित करने तथा सामाजिक भ्रष्टाचार तथा गिरावट को दूर करने का सराहनीय प्रयास है .... अगले दृष्यों में एलेक्ट्रिकएफॅक्ट, रंगमंच-सज्जा, तथा अभिनय का सुन्दर रूप देखने को मिला । योगेन के रूप में विद्यार्थी कलाकार (विद्युत त्रिवेदी) ने अत्यंत सुन्दर अभिनय किया । ___ "नाटक की मूल भावना वस्तुतः सराहनीय है और राष्ट्रप्रेम की ज्वलन्त प्रेरणा जो इस की आत्मा से झांकती है, वन्दनीय है।
"श्री प्रतापराय टोलिया धन्यवाद के पात्र हैं जिन के प्रयास स्वरूप विद्यार्थियों की टीम राष्ट्रीय विचारधारा जनता में प्रवाहित करती है।" . - 13.5.62 - "मिलाप" : (हिन्दी साप्ताहिक पत्र : हैदराबाद, आंध्रप्रदेश)
(अन्य प्रयोग मिलकर कुल १२ प्रयोग अब तक प्रस्तुत)
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CHARANJIT
CHIEF PRODUCER (DRAMA)
क्रम / No. 27/9/73-P6
2nd Proof. Dt 15.6.18
PLAYWRIGHT 13-11-1973
Encl: As above
OFFICE OF
आकाशवाणी
DIRECTOR GENERAL ALL INDIA RADIO BROADCASTING HOUSE PARLIAMENT STREET
NEW DELHI-1
Dear Shri Toliya,
Kindly refer to your letter No. 299/73/P Dated 3.8.1973 forwarding me a play entitled "JAB MURDE BHI JAGATE HEIN !" in Hindi. I could not reply earlier as the play was sent to different AIR units for consideration. I am really happy to receive a letter from an aminent playwright and broadcaster like you. I am greatly impressed by your achievements as a writer and singer. It is a pity that you are posted in an area where your outstanding talent in Hindi and Gujarati can not be fully utilized.
Prof. Pratap Kumar J. Toliya
“ANANT”, 12, Cambridge Road,
Ulseer,
BANGLORE-8.
I received your play in the Month of August, 1973, which was the closing month of the Silver Jubilee Year. By then, all the programmes concerning the Independence Silver Jubilee had already been scheduled and recorded. As such, I could not make use of your play. Moreover, it was found out that plays and features of the same theme had already been scheduled and broadcast. Nevertheless, I fully appreciate the merits of your play. Due to the reasons explained above, I hereby reluctantly return your script of the above-mentioned play.
With kind regards,
दिनांक / Dated 13th Nov., 73
(13)
Yours sincerely, (CHIRANJIT)
उन शहीदों की याद में, जिन्होंने अपने खून से हिन्दोस्ताँ के बाग को सींचा......
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2nd Proof Ut. 15.6.18
(रंगमंच पर अंधकार, धुँआ, दूर एक लघु दीप, दीवारें, पेड़, मंच के आगे एक अन्तर्पट- प्रायः पौधे आदि का प्राकृतिक दृश्य जिसकी ओट में छिपी हुई समाधियाँ और कबरें, जलियानवाला बाग अमृतसर के शहीद समाधिस्थान का दृश्य / पार्श्वभूमि में वाद्यसंगीत )
वाद्यस्वर और गान
• स्वर्गादपि गरीयसी जननी जन्मभूमि ।
जब मुर्दे भी जागते हैं ! (शहीदों की वेदना का क्रान्तिकारी नाटक)
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जग-जन वंदिता प्रणमामि, हे मातु भारत भूमि ॥
अल्लाह-ओ-अकबर
(प्रतिध्वनि)
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हरिः ॐ तत् सत्
घंट ध्वनि वाद्य वादन
( प्रतिध्वनि)
प्रवक्ता
( १ ) आज आती है यह आवाज़ - अंबर चुंबित हिमाचल की उन्नत चोटियों से, घने नभमंडप में सैर करते हुए धीर गंभीर बादलों से और नीले सागर तट से झूलती इठलाती आती हुई समीर की लहरियों से : “वन्दे मातरम् ” ( समूह घोष )
गंधर्वों के नर्तन से, भक्तो के कीर्तन से, कणकण से : "वन्दे मातरम् ” ( समूह घोष ) (३) आज उठती है यह ललकार समाधियों और कबरों में सोये हुए शहीदों की खोयी हुई याद लेकर लौटती हुई रूहानी जुबान से : "वन्दे मातरम् ”
(समूह घोष)
(२) आज गूंजती है यह झंकार संतों के चिंतन से और इस धरती के
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पन्द्रह वर्ष .... । आज पंद्रह वर्ष बीत चुके हैं - (स्वर्ग से भी सुंदर इस "सुजलाम् सुफलाम्" भारत भूमि की मुक्ति के ।) बहिश्तसे भी बेहतर इस हिन्दोस्ताँ की आज़ादी के !!! वह आज़ादी, वह कि जिसके लिये कितनोंने अपनी जानें कुर्बान कर दी.... कितनों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया... । तवारीख ले चलती है हमें मुक्ति के संग्राम और बलिदान के उन खून से भरे हुए दिनों पर... आज से बयालीस साल पहले; प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, उन्नीस सौ उन्नीस की तेरहवीं अप्रैल के रोज़ वीरभूमि पंजाब के अमृतसर के एक स्थान पर आज़ादी के नुमाइंदों की कसौटी हुई थी ।
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यही है वह स्थान जलियानवाला बाग मुक्ति संग्राम का आरंभस्थान (प्रकाश दर्शन) उस दिन यहाँ भारत माँ के बीस हज़ार लाडले एक साथ इकट्ठे मिले थे- दिल में सरफरोशी की तमन्ना लेकर और सर पर कफ़न, बाँधकर ।
(पात्र प्रवेश और गान : 'इन्किलाब जिंदाबाद' के नारों के साथ युवक, युवतियाँ, बच्चों- बूढ़ों का मंच पर प्रवेश प्रायः पंजाबी वस्त्र परिधान। सभी का धीरे धीरे बैठ जाना सभा के रूप में और एक युवक नेता का खड़े होकर हाथ में एक खंजरी लिये गाना और भाषण करना। सभी के द्वारा गीत को दोहराना । गीत का प्रसारण पार्श्वभूमि से ।) 5
वृंदगान :
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"सर पर बाँध..... सर पर बाँध कफ़न जो निकले; बिन सोचे परिणाम रे वीरों की.... वीरों की यह बाट है भाई ! कायर का नहीं काम रे (३) - वीरों की (३)
दिल का घोड़ा कसकर दौड़ा मार चला मैदान रे (२) - चलता मुसाफिर ही पायेगा मंज़िल और मुकाम रे वीरों की
मंज़िल और मुकाम रे
आओ साथी साथ चलें, साथ चलें
आओ साथी साथ चलें, इस साथ से देश के साथ रहें,
भारतमैया मांग रही है, तेरा अब बलिदान रे..... तेरा अब बलिदान रे वीरों की
( दुखायल )
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वीर करणसिंह (आवेश के साथ)
मेरे प्यारे भाइयों और बहनों!.... आप सब जानते हैं, हम यहाँ आज क्यों इकट्ठे हुए हैं। सभी को मालूम है कि लाहौर कोंग्रेस ने अंग्रेज़ सरकार को चुनौती दी है और एलान किया है कि हिन्दुस्तान के लोग अब जाग जायें। इन कमबख़्त अंग्रेज़ों ने हमें लूटने में कोई कसर नहीं रखी। (आक्रोश ) उन दिलों को तोड़ दिया गया जो मुल्क के माहिर थे; उन नयनों को फोड़ दिया गया जो देश के एहलेवतन के साहिर थे उन हाथों को काट दिया गया जो कला-कारीगरी के मालिक थे। और लाखों गरीबों को, मजदूरों को आज तक पीटा गया, लूटा गया, चूसा गया !! ( रुककर और सभा से एक बच्चे को उठाकर ) देखिये, देखिये यह मासूम बच्चा ! टूटी फूटी हड्डियों का ढाँचा है यह !! ऐसे एक दो नहीं, लाखों और करोड़ों बच्चे हैं इस देश में न सीने पर खून न आँखों में रोशनी !! उनके बदन पर खून तब चढ़ सकता है जब हम आज़ाद हों, जब हमारे हाथ में अपना राज हों । इस लिये आज हमें जान की भी बाज़ी लगाकर फैसला करना है कि यह अत्याचारी ब्रिटिश सल्तनत इस देश में रहणी चाहिये या नहीं ।
सभाजन नहीं, नहीं हरगिज नहीं ।
करणसिंह : तो अब देरी करने का वक्त नहीं है मेरे दोस्तों, आप बीस हज़ार लोग...... ! ( सभाजनों को दिखाकर ) क्या नहीं कर सकते आप ? हिन्दोस्ताँ की तकदीर आप बदल दे सकते हैं, मुठ्ठी भर अंग्रेज़ों की आप धज्जियाँ उड़ा दे सकते हैं। बोलिये, कितने तैयार हैं सरकार से टक्कर लेने के लिये ?
सभाजन : मैं.... ( दूसरा ) मैं.... ( तीसरा ) मैं.... ( चौथा ) हम सब.....
हम सब
करणसिंह : (ऊपर देखकर) शुक्र है खुदा का ! तो दोहराइये मेरे साथ (जोर से ) इन्किलाब -
सभाजन : जिन्दाबाद |
करणसिंह : वन्दे -
सभाजन : मातरम् ।
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murroun. ULI0.0.10
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aurivion 1.0.10 करणसिंह : लेकिन ख्याल रखें कि यह लड़ाई हमें शांति से करनी है, क्योंकि बापू गांधी का यह प्रस्ताव है।
(पार्श्वभूमि में घोड़-दौड़ की, गोलियों की आवाजें) मेजर डायर (प्रवेश करते हुए) : यू रास्कल हिन्दुस्टानी लोग ! टुम को इन्डिपेन्डन्स होना ? आ हा हा हा - सिपाही ! घोड़े दौड़ाव, लाठी चलाओ, गोली छोड़ाव, एक भी सुअर बचना नहीं मांगटा। करणसिंह : चलाओ गोली, ए कायर कुत्ते ! यह कफ़न तैयार ही है.... करणसिंह : .... ( गोलियाँ झेलते हुए) चलाओ गोली और चलाओ ! ए जालिम और चलाओ !! गोलियाँ नहीं, ये तो फूल हैं फूल, भारत माँ के भेजे हुए..... ! (जख्मी होकर गिर पड़ना) आज़ादसिंह : गोरे बन्दर ! मुझ पर भी गोली क्यों नहीं चलाता ? देख, मेरे पास भी हथियार नहीं । चला.... चला... सोचता क्या है ? गोली चला..... । डायर : ए-हट....! हा हा हा हा । करणसिंह : ( मरते हुए) गोलियाँ नहीं, ये तो फूल हैं फूल .... भारत माँ के भेजे
प्रीतमसिंह : प्रीतमसिंह । नज़दीक के..... गाँव में मेरे बूढ़े माँ-बाप हैं और है मेरी.... बहू ! अभी कल ही हमारी शादी हुई .....! आज़ादसिंह : कल ही शादी हुई है आप की ? हे भगवान् ! यह क्या ? प्रीतमसिंह : तो, तेरी हथकड़ी की एक कड़ी को तोड़ने की कोशिश की है माँ ! जय भा... ... ... मै... या । मादरे वतन (अंत) आज़ादसिंह : शेरे पंजाब सरदार करणसिंह ! वीर पृथ्वीसिंह ! प्यारे प्रीतमसिंह ! और आपके साथ लहू बहाकर लेटे हुए अय महान शहीदों ! दिल दहल उठता है आप के इस खून को देखकर ! जी मचल उठता है आपके इस बलिदान को देखकर, लेकिन हम इत्मीनान दिलाते हैं कि आप की शहादत के चिराग को हम कभी बुझने नहीं देंगे । आप की कबर के दियों को हम सदा ही जलता हुआ रखेंगे ..... निहत्थों पर गोलियाँ बरसाने वाली सितमगर गोरी सल्तनत ! इन वीरों को शैतानियत से कुचलकर तू अब चैन की नींद सो नहीं सकेगी । इनके रक्त की बूंद बूंद का तुझे हिसाब देना होगा । आज यहाँ सोया हुआ एक एक वीर हज़ार हज़ार नये वीरों के रूप में फिर से जिन्दा होगा । तेरी बोटी बोटी काटेगा । तेरा नामो-निशाँ मिटा देगा। पार्श्वगीत : अकेला स्वर
"अगर कुछ मर्तबा चाहो, मिटा दो अपनी हस्ती को। ..
कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलज़ार होता है ।" प्रवक्ता : मिटा दी. हँसते हँसते गोलियाँ खाकर मिटा दी इन्होंने अपनी हस्ती। अपने को मिटाकर, अपने लहू से हिन्दोस्तों के बाग को सींचकर, वे अमर हो गये। उनके रक्त की बुंद बुंद से जलियान बाग में ही नहीं, हिंद के कोने कोने में हज़ारो वीर जन्में - लाखों गुल खिल उठे और.....
(अन्त)
आज़ादसिंह : वीर करणसिंहजी ! आप का जीवन भी महान और मौत भी ! हँसते हुए, गोलियों को फूल समझते हुए शेर की भाँति सामना करके आप सोये' और....
और..... आप के पीछे आप ही की तरह निर्भय बन, लहू बहाकर लेटे हुए ये सब वीर.....! प्रीतमसिंह : आजाद भैया, इधर आइये, जल्दी इधर आइये । मैं खुशनसीब हूँ मेरे भाइयों कि मेरा यह नाचीज़ शरीर भी मादरे वतन की खिदमत में काम आया । लेकिन..... लेकिन दोस्तों, मेरा एक काम करना - मेरे घरवालों को संदेश देना कि वे मेरे लिये आँसू न बहायें । ऐसी मौत किसे मिलती है ? आजादसिंह : आप का नाम ?
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दूसरा दृश्य प्रवक्ता : १९१९ के जलियान वाला बाग-के-से घोर हत्याकांडों के बाद ब्रिटिः सल्तनत के विरुद्ध भारत भर में विद्रोह का ज्वार उमड़ पड़ा।
१९२३ में क्रान्तिकार वीर शहीद भगतसिंह एक अन्य क्रान्तिकारो को फांसी के बाद...
१९३० का सत्याग्रह संग्राम : गांधीजी की दांडीयात्रा १९३६ सुभाषबाबु के अध्यक्ष पद का हरिपुरा कोंग्रेस सम्मेलन और अंत में, १९४२ का 'भारत छोड़ो' आंदोलन
- ये तीन बड़े सोपान थे भारत की तत्कालीन मुक्तियात्रा के। प्रधानतः बापू गांधी ने भारत का नेतृत्व सम्हाला और सत्य, अहिंसा तथा प्रेम की उनकी अद्वितीय नीति से भारत के इस संग्राम ने नया ही मोड़ लिया ।
यह है १९४२ का एक दर्दनाक ऐतिहासिक प्रसंग । पंजाब के क्रान्तिकारों का एक अड्डा - आज़ाद हिन्द रेडियो स्टेशन । सरदार निहालसिंह : क्या है क्रान्ति दीदी ? है कोई खास मेसेज ? impor क्रान्तिः धीरेन बाबू एक 6(इम्पोर्टन्ट) काम लेकर अभी यहाँ पहुँच रहे हैं। सरदार : तो खबरें उनके आने के बाद ही ब्रोडकास्ट करेंगे । क्रान्तिः यह तो बराबर है मगर अब ब्रोडकास्ट का वक्त हो रहा है। सरदार : आइये, धीरेन बाबू, आइये। क्रान्ति: नमस्ते, धीरेन दा! धीरेन : नमस्ते दीदी.... आज मैं बड़ी जल्दी में हूँ। निहाल भैया, एक खास काम लेकर आया हूँ। धीरेन : सबसे पहले तो हमें शीघ्र ही देवीप्रसादजी को समझाना है कि केवल अहिंसक ढंग से यह Quit India Movement (क्वीट इन्डिया मुवमेन्ट) सफल नहीं हो सकती। ____ अब देखिये यह प्लान । इसमें हिन्दुस्तान के दस बड़े बड़े शहरों की सभी सरकारी कोठियों को इन दो दिनों में एक साथ बम से उड़ा देने की योजना है। क्रान्तिः मगर धीरेन बाबू, एक साथ यह सब कैसे होगा?
marroor. Dr. 10.8.18 धीरेन : सरदार भैया, इस की चिंता मत कीजिये । भारत के आठ बड़े बड़े शहरों का इन्तज़ाम हो ही गया हैं। अब बाकी है जालन्धर और अमृतसर । अमृतसर के लिये बड़ा अरजन्ट इम्पोर्टन्ट प्लान है और बड़ी सावधानी से काम करना है। सरदार : क्या है ? क्रान्तिः कैसे और क्या करना है ? जल्दी बताइये। धीरेन : देखिये, स्टीवन्सन यहाँ रेसिडेन्ट की कोठी पर पहुँच गये हैं। उसकी यह 700 सिक्रेट विझीट है इसलिये वह कोठी से दिनभर बाहर नहीं निकलेगा। लेकिन कोठी पर लोगों की हलचल बढ़ जायेगी। संध्या के छ: बजे उसने मिलिटरी अफसरों की शस्त्रों के साथ प्राइवेट मिटींग कोठी पर बुलायी है। ठीक उसी समय स्टीवन्सन ओर रेसिडेन्ट के साथ सारी कोठी उड़ जानी चाहिये । फिक्र मत कीजिये । लीजिये, खास इस काम में आ सके ऐसा यह टाइम बोम्ब । होशियारी से सम्हालिये । क्रान्तिः अरे यह तो नये ही ढंग का है! धीरेन : देखिये, ठीक छः बजे रेसिडेन्ट की कोठी उड़ ही जानी चाहिये।
सरदार : इसके लिये अब आप बेफिक्र रहिये । सब बन्दोबस्त करता हूँ, लेकिन । हाँ, यह काम देवीप्रसादजी के साथ सोचे बिना नहीं होगा । उनकी सहायता लेना
बहुत ही ज़रुरी हैं। क्रान्तिः अहिंसक देवीप्रसादजी मानेंगे? धीरेन : हम उन्हें समझायेंगे। सरदार : हाँ, बिल्कुल ठीक है। मैं उनको शीघ्र ही बुलाकर आता हूँ तब तक दीदी तुम संज्ञाएँ ब्रोडकास्ट कर दो। क्रान्ति : अच्छी बात है, कर देती हूँ।
"००० वन्दे मातरम् । यह आज़ाद हिन्द रेडियो है। अब आप बाब, धीरेन मित्र जो कि बंगाल के क्रान्तिकारी नेता हैं उनसे खास खबरें सुनेंगे । लीजिये..... सुनिये..... यह हैं धीरेन बाबू ।" धीरेन : "वन्दे मातरम् । हिन्दुस्तान की आज़ादी के दीवाने दोस्तों, आदाब अर्जु। . नाचीज़ अंग्रेजों के अत्याचारों का बदला लेने का अब मौका आ गया है। अब कत्ल की रात है। होशियार हो जाइये । दिल में आग जलाइये । ज़रूरत हो तो अपना खून बहाइये लेकिन मौका छोड़िये मत । आज और कल के दो दिन । आठ
और नव अगस्त कत्ल के हैं। इनके प्रोग्राम की खास सूचनाएं सुन लीजिये । सुनिये, हिन्दभर में सरकार के खिलाफ़ सभाएं होंगी । आप सब......
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2nd Proor. Ut. 15.6.18 निहालसिंह : रोको..... जल्दी करो..... हरी अप.. हरी अप । धीरेन : क्यों क्या बात है? सरदार : किसी गद्दार ने सी.आइ.डी. को हमारे रेडियो स्टेशन की इत्तिला दे दी है और अब वह यहां छापा लगाने आ ही रही है। जल्दी कीजिये, ट्रान्समीटर रिसीवर ठाकर भाग निकलें। क्रान्ति : मगर यह पता चला कैसे? सरदार : (भागते हुए) अब कुछ सोचने का वक्त नहीं है दीदी, जल्दी करें । भाग निकलें। सी.आइ.डी. रमेश : सब बदमाश नौ दो ग्यारह हो गये। सी.आइ.डी. नवल : सुनो तो किसी के आने की आवाज़ । ज़रा यहाँ छिप जायें। देवीप्रसाद : (प्रवेश) अरे, कोई है यहाँ ? सरदार भैया.... क्रान्ति दीदी..( अचानक गोली झेलते हुए) ओ माँ ! यह क्या ? 'यह सर जावे तो जावे, पर आज़ादी घर आवे' (घायल होकर भी गाते हुए) धीरेन : अरे प्रसादजी, आख़िर वही हुआ जिसका अंदेशा था । देवीप्रसाद : (मरते हुए) "धीरेन भैया, खून का बदला खून से नहीं, प्रेम से लेना है। वैरियों से भी प्रेम.... प्रेम । .... मेरे शरीर को जलियान बाग के शहीदों के चरणों में ही जलाना । बेटा योगेन....! बेटी सरला...!! मेरी अंतिमयात्रा के समय तुम दोनों पास नहीं, लेकिन चिन्ता नहीं, मरने के बाद भी मैं सदा ही तुम्हारे साथ रहूँगा, तुम्हारे काम के साथ रहूँगा, भारत माता की जय ।" (प्राणत्याग) (करुणवाद्य) .
तोसर दृश्य
(१९४२ और १९४७ के बाद १९६१ में) प्रवक्ता : ऐसे अनेक बलिदानों के कारण सदियों की गुलामी की हाए से भरा हुआ भारत का गुलशन महक उठा - आज़ादी की खुशबू से । गिरे हुए, पिछड़े हुए, दासता में जकड़े हुए दरिद्रनारायण इस आजादी के आगमन से जाग उठे और आज़ादी के गान तथा मस्ती की तानों के साथ, रामराज्य के सुखों की ठान लिये वे दिन काटने लगे।
फिर तो भारत के प्रजाजनों ने उन शहीदों की समाधियों और कबरों पर फूल चढ़ाकर उनका बहुमान करना शुरू किया। गान. अकेला स्वर :
"शहीदों की चिताओं पर, जुड़ेंगे हर बरस मेले ।
वतन पर मिटनेवालों का, यही बाकी निशाँ होगा।" प्रवक्ता : यह वही जलियानवाला बाग है १९६१ अप्रैल की १३ तारीख: शहीद दिन । लोगों का आज यहाँ मेला लगा है शहीदों की पूजा करने, लेकिन शहीद देवीप्रसाद का एक दुःखी देशभक्त पुत्र योगेन दूर खड़ा कुछ और सोच रहा है। योगेन ( अत्यन्त व्यथापूर्वक): शहीदों की समाधि पर इस देश के लोग फूल चढ़ाने आते हैं, लेकिन शहीद पिताजी के इस कोट पर किसी ने मेरी मरती हुई माँ की दवाई के लिये एक रुपया उधार तक नहीं दिया । न मेरे पिता की शहादत की ओर देखा, न मेरी मित्रता और सेवा की ओर .... माँ घर पर तड़प रही होगी... मगर अब घर भी किस मुँह को लेकर जाऊँ।
(गहन अंतर्वेदना और स्मृति-संवेदना सह) “वही भूमि...! वही पेड़...!! वही दीवारें...!!! यहाँ चली होंगी गोलियाँ और यहीं सो गये होंगे सब वीर.....!!
ओह !.... शायद यहीं सोये सरदार करणसिंह - सर पर कफ़न बाँधकर निकलनेवाले, हँसते हँसते, फूल समझकर गोलियाँ खानेवाले....! हाँ, यहीं यहीं । और यही है पिताजी की समाधि.... ! कितना बड़ा बलिदान इनका ! कितना बड़ा अहेसान ! और हम?
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ma Proor. Dr. 10.6.18 लालाराम (मस्ती-मज़ाक में गाते हुए प्रवेश कर के):
"सर पर कफन बांध कफ़नवा हो, बहादुर निकले लड़ने को...."
का करत हो बाबूजी ? शहीदा-दी पूजा कर दी कि नाही ? योगेन : पूजा ? कैसी पूजा ? समाधि पर यह फूल चढ़ाने से पूजा हो जाती है क्या ? लालाराम : हाँ, हाँ योगेन्दरजी ! हमारे मिनस्टर सा'ब तो माणते हैं कि शहीदों की समाधि पर फूल चढ़ाणे से देश की भारी सेवा होती है ! हमारे साब जितणी बार दिल्ली जाते हैं, उतणी बार राजघाट जाकर गांधी बापू की समाधि की पूजा करते हैं, और बापूजी को याद तो दिनमें कितणी दफा करते हैं तम जाणदा? योगेन : नहीं तो। लालाराम : अरे माला ही फेरते हैं बापू के नामदी । बापू....बापू....बापू..... बापू....! कल की ही बात । एक स्कूल में लेक्चर दिया तो पचास दफ़ा याद किया, पचास दफ़ा ! योगेन : पचास दफा याद किया ? लालाराम : हाँ, हाँ पचास दफ़ा । योगेन : सिर्फ जबान से ही, या दिल और कार्य से भी ? लालाराम : है.... ? क्या कहणदा बाबू सा'ब ? कित्ते बड़े देशभगत हैं हमारे सा'ब ! वे तो बापूदा ही काम करते हैं न ? और काम भी कित्ता ! जब भी देखो तब काम ही काम । वाहे गुरुजी दी किरपा.... बाबूजी, गुरुजी दी किरपा । अरे, शाम हों दी ? अब मैं जाऊंगा । नहीं तो मिनस्टर साब कहणगे कि इत्ती देर काहे लगा दी? योगेन (व्यथा-व्यंग प्रतिभाव सह) : हूँ.... लोगों ने समाधि पर फूल रख दिया और कबर पर दिया । घर में फोटो लटका दिया और बाज़ार में पुस्तक । मुँह से नाम ले लिया बापू का और काम करते रहे अपना ! मगर दिल से तो बापू को कहते रहे होंगे कि -
"बूढ़े ! सोते रहना समाधि में जुग जुग तक । उठना मत ।
फिकर मत करना हम तुम्हें कभी भूलेंगे नहीं । तुम्हारे नाम पर सब काम कर लेंगे, सब.....!"
_2nd Proor. UL. 10.8.18 लालाराम : का बोलत हो बाबूजी, का? योगेन : चपरासीजी ! जाइये देर होगी आपको, फिर कभी मिलना.... । (जाता है, लालाराम : जरुर मिलांगा, जरुर मिलांगा योगेन्दरजी, सत सिरी अकाल । योगेन : कहाँ उन शहीदों का बलिदान और कहाँ इन शासकों की सेवा ! कहाँ इन भारतवासियों की पूजा.....! मि. खन्ना : क्या रे, मि. आंटिया (युवकों का प्रवेश)! फिर उस लड़की का क्या हुआ कल? मि. आंटिया (पारसी बोली में): अरे शं ठवावें हे ? एज की आज सायकलमा पंक्चर करियो के गई बिचारी रोटी रोट्टी। खन्ना : शाबाश मगर तूने तो एक उसीकी साइकिल को पंक्चर किया होगा मि. आंटिया । इस बन्दे ने तो पच्चीस पंक्चर किये पच्चीस । आंटिया : एकसलंत मि. खन्ना एकसलंत । तू बी क्या कम है ? देवेन्दर (प्रवेश करते हुए): गुड इवनिंग मि. खन्ना। दोनों : गुड इवनिंग देवेन्दर, गुड इवनिंग । देवेन्दर : अच्छा, यह बताओ कल स्टेडियम पर कैसी रही? खन्ना : बहुत खूब - बहुत खूब.... । क्या कहना ? अपने साब को शिकार बहुत मिल गये ! देवेन्दर : ह...? क्या....? आंटिया : केम न मिले ? आय लोगोंनो दरोड़ो पण कितनो? आय (बाफ पच्चीस हजार..... आवड़ो मोटो मैच आ अमरतसरमां कभी नहीं देख्यो। देवेन्दर : पच्चीस हज़ार ! My God !! खन्ना : हाँ, हाँ पच्चीस हज़ार प्रेक्षक थे और रेडियो पर कोमेन्ट्री तो देशभर के लाखों लोगों ने सुनी होगी ! और वह भी लगातार तीन रोज़ तक। देवेन्दर (कटाक्ष से): क्रिकेट का मेच हो या संगीत नाटक का फैस्टीवल । हज़ारों देखने वाले और लाखों सुनने वाले जमा हो जायेंगे इस देश में । बेशक खेल और संगीत कोई बुरी चीज़ नहीं, लेकिन यह बताओ कि साथ मिलकर देश के निर्माण का कोई काम करना हो तो कितने लोग मिलेंगे इस आजाद भारत में ? खन्ना : तो क्या खेल और नाटक से देश का निर्माण नहीं होता?
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zna Proof. Dt. 15.6.18 आंटिया : अरी जवा दे नी बावा फालटू वाट ने । चालनी, जल्दी करनी । आज शहीदोंने फूल चढ़ावीने चलनी स्टेशन.... आं य गाडीनो टाइम थइ गयो छ । खन्ना : तो क्या, आज भी ट्यूशन क्लास नहीं भरेंगे? ..
आंटिया : नहीं । आवडो ग्रेत एक्टर रोज रोज थोड़ो मिलवानो है ? देवेन्दर : क्यों किसे देखने जाना है ? .. खन्ना : मालूम नहीं ? आज राजकपूर आ रहे हैं। देवेन्दर : Oh, I see ! आंटिया : चलनी टू बी डेवेन्डर I N.C.C. केम्पने आज मार नी गोली । देवेन्दर : एक्सक्यूज़ मी । आप दोनों जाइये । मेरे लिये एन.सी.सी. का फर्ज़ बड़ा है, राजकपूर नहीं । मुझे पंजाबी सूबेवालों के इन्तज़ाम में ड्यूटी पर जाना है। गुड बाय । ( जाता है) खन्ना : अरे जरा ठहर । शहीदों की समाधि पर यह फूल तो चढ़ा। देवेन्दर : एन.सी.सी. का फर्ज़ ही मेरे लिये शहीदों की पूजा है? आंटिया : मोटो एन.सी.सी. वालो देख्यो न होय टो। अमे पण डेशनुं काम करिये छ । देशना प्रोतंक्शननो मोनोपोली तें ज राख्यो है। खन्ना : "हम भी तो है जवान, इस मुल्क के बागबान।
हमें भी है आज़ादी की पिछान, क्या हम हैं लोग महान् !" आंटिया : महान.... महान ! ग्रेत बावा ग्रेत । चलनी जल्दी करनी । “जहाँ शहीदों की पूजा होती है।" हम इस देश के वासी हैं । (मज़ाक में गाता है) योगेन ( वंदनाभरा कटाक्ष): ये हैं इस देश के शहीद-पूजक नवजवान, भावि भारत के बागबान । राजकपूर है इनके इष्टदेवता और शरारतें हैं इनकी साधना । फिर भी वे आते हैं शहीदों पर फूल चढ़ाने - उन बड़े लोगों की तरह !
मगर नहीं, उनकी इस अवस्था के लिये ज़्यादा जिम्मेदार वे नहीं, जिम्मेदार है इस देश के समाज का ढाँचा और तालीम का ढंग । आज़ादी के कितने वर्ष गुज़र गये, लेकिन इस देश में वही बेढंगी बदतर तालीम-शिक्षा हो, सैंकड़ों लोग ऐश करते हों, करोड़ों लोग भूखों मरते हों। __ इस देश के लोगों के पास है विलायती सरज़मीं की योजनाएँ, विदेशी पाँखें
और अंधेरी आँखें; तंग दिल और बंद दिमाग । क्षुद्र मन और जर्जर जीवन । कैसे हैं ये जीत जागते भारत के इन्सान ? गांधी बापू...! प्यारे पिताजी ! तुम यह सब
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2nd Proor. UL. 10.6.18 . नहीं देखते क्या ? तुम फिर से जागकर यहाँ नहीं आ सकते ? क्या तुम भी इन भारतवासियों की तरह सो गये, तुम भी? V(अद्भुत स्वप्न द्रश्य) योगेन : पंछी ! गांधी बापू का संदेश तु लाया है ? क्या लिखा है बापू ने ? पार्शवगीत : "पंछी लेकर आया मेरे बापू का संदेश । कैसे हैं मेरे अनुयायी, मैं ने गद्दी जिन को दिलवायी ? सेवा का जो दम भरते है मुझको याद किया करते हैं। उनको मेरी ओर से कहना : अपने वचन पर कायम रहना। भूल न जाये मरते दम तक, जनसेवाका उद्देश्य... पंछी जनसेवा का उद्देश्य.... पंछी पंछी मेरे बापू का लाया है संदेश । उनके परों पर लिखा है : कैसा अपना देश....? कैसा भारत देश ? कैसा अपना देश?" योगेन : जवाब भी क्या दूँ बापू ! आप नहीं जानते इस देश की हालत ? फिर भी जवाब चाहते हो तो लिख देता हूँ । सुनिये -- पार्शवगीत :
"आप के अनुयायी जीते हैं, कुछ अच्छा खाते-पीते हैं । खादी भी पहना करते हैं, आप को याद किया करते हैं। अब तक राम का राज्य न आया, वह तेरा स्वराज्य न आया। भूखों और नंगों का भारत, तेरा भिखमंगों का भारत । झूठन पर झगड़ा होता है, कुत्ता और बच्चा लड़ता है। मन में बहुत ही कुछ आता है, संदेशा पर बढ़ जाता है। जाने में नहीं देर लगाना, जाकर सारा हाल सुनाना । पंछी ! बापू को दे देना हम सब के प्रणाम -
बापूजी से कहियो पंछी मोरी राम राम !" सरला दीदी : (प्रवेश) योगेन... ओ योगेन अरे इसका कोट यहाँ है, लेकिन वह कहाँ गया ? ओह ! यहाँ सोया पड़ा है ! भैया - ओ भैया ! पंछी ! आ गया ? आ गया ? योगेन : (भावावेश में : स्वप्न पंछी से) बापू को पत्र दे दिया?
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2na Proor. DL 15.8.18 दीदी : यह क्या बक रहा है योगेन ? कौन पंछी ? कौन बापू ? और कैसा पत्र ? सपना देख रखा है क्या? उठ जल्दी, तेरा काम है। योगेन : पंछी... पंछी....!! अरे दीदी ! तू यहाँ ? मेरा पंछी कहाँ गया ? दीदी : कैसा पंछी ? योगेन : वह.... वह बापू का पंछी जो अभी मेरे सर पर बैठा था। दीदी : यहाँ तो कोइ पंछी-बंछी नहीं है, मैं हूँ मैं तेरी बहन, योगेन ! चल होश में
आ! योगेन : तो क्या सपना ही था वह ? दीदी : ( वेदना सह) ह.... पहले तो यह बता कि तू कल सारा दिन और रात कहाँ भटकता रहा? घर क्यों नहीं आया ? योगेन : (व्यथा सह) आऊँ भी तो कैसे ? उधार तो क्या, पिताजी के इस कोट पर भी किसी ने एक पैसा तक नहीं दिया। फिर मेरी उस अप्लीकेशन के सिलसिले में एम्प्लायमेन्ट एक्सचेन्ज पर भी गया, लेकिन पता चला कि मुज़े चुना नहीं गया, दीदी ! दीदी : क्यों ? मौकरी तो तुझे मिलनेवाली ही थी- नम्बर भी सबसे अधिक तेरे थे और समाज का कार्य भी लगातार तूने ही किया है....! योगेन : (कटाक्ष से) बड़ी भोली हो तुम दीदी ! यहाँ ज्ञान की और कार्य की कोई कीमत नहीं । इस देश में नौकरी उनको मिलती है जो अक्सर बाबुओं को घूस और रिश्वत दे सकते हैं !!! इस देश में नौकरी उनको मिलती है जो भरचक झूठ बोल सकते हैं। दूसरों की वहाँ दाल तक नहीं गल पाती, दीदी दाल नहीं गल पाती। दीदी : कोई हर्ज नहीं योगेन ! ऐसी नौकरी नहीं मिली यही अच्छा हुआ । लेकिन - योगेन ! हाँ, तुम ठीक कहती हो दीदी, बिल्कुल ठीक । हम जैसे हिन्दुस्तान के नौजवान नौकरी के पीछे ही पागल बनकर दौड़ते हैं । सभी को 'बाबू' बनना है।
भारत के युवा की कीमत भी क्या है ? सिर्फ साठ रुपये का गुलाम !
नहीं दीदी; नहीं, मैं कभी ऐसा गुलाम नहीं बनूंगा, कभी नौकरी नहीं करूंगा...... कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाऊंगा.....
2na rroor. L. 1.6.18 (पाश्वगीत : "माँगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख। । मांगने से मरना भला, है सतगुरु की सीख ॥")
-कबीर
(कुत्ते के रोने की ध्वनि) योगेन : दीदी ! माँ की सेहत कैसी है ? मैं तो.... अरे दीदी तू रोती है ? क्या बात है ? क्या हुआ दीदी ! बोल, क्या हुआ है ? दीदी : (महा व्यथा से) और क्या होता ? वही...... योगेन : क्या, माँ चली गई ? चली गई ? अब तक तू बोली क्यों नहीं ? नहीं, नहीं, यह हो नहीं सकता। मां मर नहीं सकती । दीदी, तू झूठ बोलती है, सच बता (कुत्ते का रोना, अट्टहास्य) योगेन : मगर दीदी, इतनी जल्दी यह कैसे हो गया ? कुछ समझ में नहीं आता। (दर्द से ) खैर, गई माँ । पर दीदी, तूने उसे थोड़ी देर रोका भी नहीं ? कम से कम मैं उसे मिल तो सकता । उसकी कुछ... दीदी : (व्यथा से) माँ भी तुझे मिलने के लिये कितनी तड़पती रही, लेकिन तू नहीं आया । और फिर भगवान के घर के बुलावे को कौन रोक सकता है भैया ? योगेन : घर लौटने की मेरी छटपटाहट भी कोई कम न थी दीदी, मगर किस मुंह को लेकर लौटता । इसे (कोट दिखाकर) लेकर मैं दर दर भटकता रहा, लेकिन ये साहूकार, ये पूंजीपति, ये मित्र, ये स्वार्थी लोग; किसी ने मरती हुई मां की दवाई के लिये फूटी कौड़ी भी नहीं दी । "दिल की तमन्ना..." फिर मैं यहीं पड़ा रहा - पिताजी और इन शहीदों की समाधियों के बीच; यह सोचकर कि यही एक ठौर है मेरे लिये, शायद यहीं से कोई मार्ग मिल जाय, मगर इतने में तो..... पाश्वगीत :
"दो दिन का जग में मेला, सब चला चली. का खेला । कोई चला गया कोई जावे, कोई गठरी बांध सिधावे... दो दिन का जग में..." योगेन : 'दो दिन का जग में मेला । आख़िर सभी को चलना है, इसी मिट्टी में जाकर मिलना है। यहाँ कोई भेद नहीं रहता दीदी, कोई भेद नहीं रहता । भेद तो है उन दुनिया वालों के पास ! यहाँ तो सब बराबर, सब समान .....(गंभीर व्यथा)
"लाखों मुफलिस हो गये, लाखों तवंगर हो गये, मिल गये मिट्टी में जब, दोनों बराबर हो गये।" ।
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2nd Proot, Ut. 15.6.18
ठहरो ! अय पूंजपतियों, ठहरो !! तुम्हारा भी एक दिन आता है जब मजबूरन बराबर हो जाना पड़ेगा ।
दीदी योगेन चल अब घर चल ।
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योगेन घर ? अब मैं घर चलकर क्या करूँ ? वहाँ तेरे सिवा अब कौन है मेरा ? अब तो यही मेरा घर बनेगा। पिता गये, माता गई, अब मैं भी... ( रुद्रध्वनि) दीदी : यह क्या बक रहा है योगेन ? चल स्वस्थ हो जा। ऐसा पागलपन नहीं किया करते। माँ तो गई, अब हम पीछे रहनेवालों को अपना कर्तव्य करना होता
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है अपनी बड़ी माँ के लिये, भारत माँ के लिये। देख, माँ हमारे लिये काम छोड़ गई है।
योगेन : क्या दीदी अंतिम समय पर माँ कुछ कह गई है क्या ?
दीदी हाँ, यही कि तुम दोनों साथ मिलकर इस दरिद्र देश का काम करना और अपने पिता का नाम रोशन करना ।
योगेन : इस दरिद्र देश का काम और पिता का नाम .....( कटाक्ष से )
दीदी : पिताजी भी बयालीस में गुरुद्वारा के पास जब गोली खाकर पड़े तो ऐसा ही कहते थे ।
योगेन अच्छा, और क्या कहा था माँ ने ?
दीदी : यही कि अगर तुम ऐसा कर सकोगे तो मेरी आत्मा को ही नहीं, पिताजी की आत्मा को भी बहुत शान्ति मिलेगी। भगवान तुम्हारा कल्याण करे ! योगेन : ( आक्रोश में ) देश का काम और पिता का नाम देश का काम और पिता का नाम हो ।
माँ...! माँ ! तू कहती है देश का काम करने के लिये मगर करें भी कैसे ? पावगीत : “सुलग रही है आग । "
(पार्श्ववाणियाँ)
नटु अखबार आज का ताझा अखबार 'पंजाब समाचार' ।
प्रताप : अखबारों से खबरें निकल रही हैं।
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इंदिरा : आग देश भर में आग
प्रताप : पंजाबी सूबे के लिये अकालियों का विद्रोह । इंदिरा : दिल्ली के करोड़पति की भारी टैक्सचोरी ।
(29)
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2nd Proof. Dt. 15.5.18
अनूप : भारत की सरहद पर उड़ते हुए चीनी गिद्दड़ ।
प्रताप कलकत्ता पुलिस के एन्टी करप्शन अक्सर को दी गयी रिश्वत । इंदिरा : बम्बई में टी.बी. के रोगियों की बाढ़ |
अनूप अश्लील सिनेमाओं ने भ्रष्ट किये हुए छात्र ।
इंदिरा आग देश भर में आग ।
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प्रताप : ( गीत ) "सुलग रही है आग रे बाबू सुलग रही है आग ।
शोषण से लाचार है भारत शासन से बेज़ार है भारत । दुश्मन से हैरान है भारत चीख रहा चीख रहा, चीख रहा है जलता भारत"
जागो....! अब नव युग के मानव निकल पड़े बेलाग सुलग रही है आग । दीदी आग ! चारों और आग !! और फिर भी इसके बीच होते हुए भी भारत आज सोया पड़ा है !!! यह आग उसे भस्म न कर डालेगी ? क्या वह जल जाना चाहता है ? जलकर भस्म हो जाने के बाद ही जागना चाहता है ? योगेन : (आक्रोश से ) जल जाने दे... ! जलकर भस्म हो जाने के बाद ही शायद वह जागे...... ! हं आग! देश का काम, पिता का नाम..... !!! मगर माँ.... माँ 1 दीदी : भैया, देख उधर देशभर में आग लगी हुई है और तू यहाँ शोक में डूबा रहा है ! अभी तू पूछता था न माँ से कि देश का काम कैसे करूँ ? तो देख, माँ ही इस आग की ओर उंगली दिखा रही है । देख रहा है या नहीं इस आग को ?
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योगेन : देखता हूँ दीदी, देखता हूँ कि देशभर में आग लगी हुई है। लेकिन - दीदी : लेकिन क्या ? चल उठ, हमें देश को जगाना है, इस आग से बचाना है। माँ और बापू की इच्छा को पूरी करना है। V
योगेन (क्रोध और कटाक्षपूर्वक ) किनको जगाना है, इन भारतवासियों को ? असंभव दीदी, असंभव । ये अब नहीं जागेंगे। ये जागनेवाले नहीं जागेंगे। यह तो गीता का देश ठहरा दीदी ! इन्होंने 'या निशा सर्वभूतानाम्' के सूत्र का आकंठ
पान कर लिया है- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"। उसके नशे से वे अब कैसे जाग सकते हैं दीदी ? अब तो इन शहीदों को ही जगाना है,
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2nd Proof UL 16.8.18
इन सोनेवालों को ही जगाना होगा । ( ज़ोरों से) जागो....। अब समाधिस्य वीरात्माओं !! जागो ! कबरों में सोये हुए अमर शहीदों ! जागो वीर करणसिंह ...! जागो प्यारे पिताजी !! जागो "जागो फिर एक बार "
दीदी : यह क्या बचपना है योगेन ? उधर देश सारा बिलख रहा है और हाँ मसान में भूत जगाने बैठा है, जिंदे इन्सानों को छोड़ कर तू इन मुर्दों को जगा रहा है ? योगेन : हाँ, दीदी ! आज मुर्दे ही जागेंगे, पत्थर ही पिघलेंगे, जड़ ही चेतन बन जायेंगे ! इन समाधियों से वीर जागेंगे और कबरों से शहीद !! लेकिन ये जीते-जागते भारतवासी नहीं जागेंगे, जरा भी नहीं जागेंगे !!! (कटाक्ष, घोर कटाक्ष-अभियोग )
दीदी : योगेन ! दिमाग ठिकाने पर है या नहीं ? किस दुनिया में जी रहा है ? आसमान से नीचे उतर, छोड़ यह पागलपन और कदम बढ़ा धरती पर नये हिन्द का निर्माण करना है हमें !
योगेन : (अति आवेशभरा प्रतिभाव) निर्माण १ नये हिन्द का निर्माण ? इस देश का निर्माण १ अगर मुझसे यह पूछा जाय कि नूतन हिन्द का निर्माण कब और कैसे होगा तो जवाब में उंगली दिखाऊँ सिर्फ हायड्रोजन बम की ओर 1
दीदी : यह क्या, यह क्या योगेन ? तू और यह सब "? किधर जा रहा है तू ? योगेन : ( आक्रोशपूर्ण 'पागलपनपूर्वक) मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ दीदी ! आज तू यह नहीं समझ सकेगी। जा... जा ..... चली जा यहाँ से तू घर चली जा । दीदी : यह क्या हो गया योगेन को ? यह क्या ? मैं जाकर बूढ़े चाचा को भेजती हूँ - यह पागल ऐसे नहीं मानेगा। (जाती है)
योगेन : (विद्रोहपूर्ण) बम ... ! विध्वंस ... ! विनाश ! विनाश चाहिये इस देश को तभी पृथ्वी का भार हल्का होगा। तभी देश का परिवर्तन होगा, तभी भारत का नवनिर्माण होगा । मिटा दो ! मिटा दो ! मिटा दो इस दुनिया को, जला दो इस दुनिया को..... ।
पावगीत - "जला दो जला दो इसे फूंक डालो..... ये दुनिया ।" ( 'प्यासा' गीत ) (शहीद घोष ) नहीं, अहिंसा, प्रेम, करुणा (२)
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पाश्वध्वनि : समूह घोष
2nd Proof. Dr. 15.6.18
चौथा दृश्य
(अंतिम)
"दीनों की भूख जागेगी । (२) शहीदों की रूह जागेगी । (२) धधकती आग बरसेगी । (१) धरा को भस्म कर देगी । (१) "
( गंभीर दिव्य दृश्य : शहीदों का आगमन )
योगेन : मेरा कोट..... मेरा कोट..... कहाँ जा रहा है मेरा कोट ? कोन....? कौन? कौन खींच रहा है मेरा हाथ ?
पिता
पिता देवीप्रसाद - प्रेत डरो मत! बेटा योगेन, डरो मत : मैं तुम्हारा देवीप्रसाद हूँ ।
योगेन : कौन पिताजी ? आप ? पिताजी..... पिताजी ? पिता : हाँ, बेटा मैं । तेरा सारा हाल हम जानते हैं। तेरी दर्दभरी आवाज़ सुनकर हमारे पत्थर के हृदय भी पिघल गये हैं। लेकिन बेटा ! 'नाश नहि, निर्माण' । सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा के द्वारा निर्माण । हिंसा नहीं, अहिंसा, प्रेम..... सभी से प्रेम..... नफरत करनेवालों से भी प्रेम !! योगेन प्रेम ? प्रेम का बदला इस देशने तीन गोलियों से दिया हे बापू गांधी को ! V पिता : यदि ऐसा न होता तो प्रेम की कीमत क्या रहती बेटा ? गांधी बापू तो मरकर भी नहीं मरे। वे जी रहे हैं अपनी अहिंसा के जरिये । योगेन : अहिंसा ? झूठ, पिताजी ! बिल्कुल झूठ । इस देशने बापू का खून करने के बाद उनकी अहिंसा का भी खून किया है । भारत का पत्थर पत्थर भी कहेगा कि गांधी के देश में भी अहिंसा के नाम पर गोलियाँ चली हैं। यहाँ अहिंसा नहीं, सत्य नहीं हिंसा है, झूठ है, दंभ है, अंधेर है.... ।
(32)
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2nd Proor. UL. 15.6.18 पिता : सब्र कर बेटा ! सन्न कर....
"ईश्वर के दबार में होती है देर,
मगर कभी नहीं अन्धेर...!" योगेन : सन ? कब तक सब पिताजी ! कब तक?
अब मुझे आशा नहीं, विश्वास नहीं - आप के ईश्वर की इस दुनिया में । पिताजी ! मैं आप के उसी भगवान को पूछना चाहता कि क्या यह भारत और विश्व कभी प्रेम, सत्य और अहिंसा को जगा सकेगा ? पिता : ज़रुर जगा सकेगा बेटा, ज़रुर ! इस धरती पर एक दिन प्रेम और अहिंसा का राज्य होगा : सत्य, श्रम और संयम का शासन होगा । योगेन : (व्यंग-आक्रोश सह) प्रेम और पवित्रता का राज ! सत्य, श्रम और संयम का शासन !! .... ये लोग प्रेम और पवित्रता; सत्य और अहिंसा को जगायेंगे? बेचारे, जो कि अपनी सारी पवित्रता चाय के एक प्याले पर बेच सकते हैं। पिता : कोई बात नहीं, योगेन ! एक दिन ऐसा आयेगा जब सारा विश्व बापू को दिल से चाहेगा, उनके पीछे पीछे चलेगा.... और ऐसे विश्व का निर्माण होगा । पाश्वगीत : "जहाँ प्रेम की गंगा बहती है।
और सृष्टि आनंदित रहती है। सब ही यहाँ एक रहती है, कुछ कमी नहीं परवाह नहीं ... हम ऐसे ।
हम ऐसे देश के वासी हैं।" पिता : सुन बेटा ! ऐसा होगा । वह विश्व, प्रकाश का देश || पवित्रता का देश || जहाँ सारा विश्व एक नीड़ बनकर रहता है, परिवार बनकर रहता है । रहेगा। पाश्वमंत्र घोष : “यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्" पिता : यहाँ सब बराबर है, सब समान..... ! योगेन : सब बराबर सब समान । लेकिन कब? पिता : थोड़ी ही देर, बस थोड़ी ही देर... । जहाँ प्रेम की गंगा बहती है.....
znd Proor. UL. 10.6.18 योगेन : कितनी देर पिताजी ? कितनी ? मुझे वहाँ कब ले चलोगे ? क्या सपनों का वह देश मेरे लिये सपना ही बना रहेगा? पाश्वध्वनि : "दीनों की भूख जागेगी,
वीरों की रूह जागेगी, धधकती आग बरसेगी,
धरा को भस्म कर देगी।" प्रेत शहीद पृथ्वीसिंह : नक्षत्रों से नवज्योति ले, फिर धरती पर आयेंगे ।
निद्रित भारत की भूमि को, फिर जागरित बनायेंगे । - हम प्रकाश के उस देश से आ रहे हैं.... यहाँ पर फिर नया प्रकाश, देश रचने । पाश्वगीत :. "दीनोंकी भूख जागेगी
शहीदों की रूह जागेगी।" प्रेत करणसिंह : (अतीत की स्मृति सह) चलाओ, गोली और चलाओ.... अय जालिम ! गोलियाँ नहीं, ये तो फूल हैं फूल भारत माँ के भेजे हुए । (आँखे टटोलकर) भाग गया ? गोली चलानेवाला कुत्ता कायर डायर भाग गया ? (Pose) क्या यही वह जलियानवाला बाग है? क्या यही भारत है? हमारे सपनों का भारत ? (जोरों से वेदनापूर्ण प्रश्न) योगेन : हाँ, यही वह भारत है । तुम्हारे सपनों का भारत । १९६९ का भारत | आज का भारत । करणसिंह : यह भारत ? योगेन : हाँ, यह भारत । करणसिंह : जहाँयोगेन : जहाँ मासूम बच्चों को होटेलों के बर्तन धोने पड़ते हैं. जहाँ जगह जगह पर झूठ, अंधेर और अन्याय है । करणसिंह: (महा वेदना सह) अफसोस । हमने सोचा नहीं था ऐसा आज़ाद भारत । कभी नहीं सोचा था । पृथ्वीसिंह : हमने भारत को प्रकाश और पवित्रता का देश बनान्न चाहा था । करणसिंह : अब तक ऐसा मेल ही न हुआ। लेकिन अब हम फिर से जागेंगे, नया जनम लेंगे, नूतन जन्म लेकर आयेंगे ।
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________________ जब मुर्दे भी जागते हैं। आवश्यकता है - ' इस "जब मुर्दे भी जागते हैं !" के शहीदों की अंतर्वेदना प्रतिबिंबित कर्ता नाटक द्वारा "भ्रष्ट भारत" को बदलने की कामना रखनेवाले . नूतन क्रांतिकारी दिमागों की - / पृथ्वीसिंह: अक्षत्रों से नवज्योति ले फिर धरती पर आयेंगे / निवित भारत की भूमि को चिर जागरित बनायेंगे / " * पिता : अब थोड़ी ही देर है, बहुत थोड़ी। पृथ्वीसिंह: अब हम जायेंगे, वापिस वहाँ जहाँ कोई भेद नहीं, जहाँ सब बराबर है, सब समान है। पार्शवगीत : "जहाँ प्रेम की गंगा बहती है...।" योगेन: सब बराबर, सब समान / वहीं मुझे भी ले चलें / वहाँ ले चलें, मुझे ले चलें। करणसिंह : (महा अंतर्वेदना सह) अफसोस ! सोचा नहीं था ऐसा आजाद भारत, कभी सोचा नहीं था। पृथ्वीसिंह : कम से कम यह देश हमें दिल के दर्द के साथ याद तो करता ! करणसिंह : हम न सही, हमारे खून के दिनों को तो याद करता !! पाश्वगीत : "दिन खून के हमारे, यारों / न भूल जाना / खुशियों में अपनी हम पर आँसू बहाते जाना / सैयाद ने हमारे चुन चुन के गुल को तोड़े वीरान इस चमन में अब गुल खिलात जाना / गोली 4 गोली खाके सोये जलियान बाग में ...... ./ सूनी-(३) सूनी पड़ी कबर पे दिया जलाने जाना / " (शहीदों के प्रेतो का ऊर्ध्वगमन, साथ में पीछे पीछे योगेन का भी ऊपर जाना पिता की उंगली पकड़कर... उसके जाते जाते दीपक का बुझ जाना, दीपनिर्वाण हो जानासांकेतिक मृत्यु हो जाना / हिला देनेवाला, जगा देनेवाला, करुणतम-प्रेरक दृश्य अंत में।) ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः // समाप्त जो (1) इस नाटक को सर्वत्र प्रसारित करें / (2) भारतभर में इस का मंचन करें, है कोई माई के लाल ? प्रतीक्षा है लेखक को लेखक की प्रेरक-क्रान्ति-आत्मा को ! आज के "भ्रष्टाचारमुक्त भारत" निर्माण की दिशा में विशेषकर / लेखक संपर्क : 09611231580 E-mail : pratapkumartoliya@gmail.com (35) (36) RERE