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। समर्षण इस अनूठे क्रान्तिकारी नाटक के प्रेरणा-स्रोत स्वर्गीय अनुज स्वयं
क्रान्तिकार कीर्तिकुमार टोलिया नूतन भारत - भ्रष्टाचारमुक्त अभिनव भारत के आर्षद्रष्टा
क्रान्तदर्शी कवि मनीषि प्रधानमंत्री .
श्री नरेन्द्र मोदी एवं ऐसे भ्रष्टाचार मुक्त, अहिंसक, सर्वोदयी भारत के सारे स्वप्नद्रष्टा ।
अभिनव भारतीय नवयुवानों को
प्राक्कथन. मेरे स्वर्गीय क्रान्तिकार अनुज एवं शहीद भगतसिंह के अंतेवासी सरदार पृथ्वीसिंह आझाद के प्यारे शिष्य श्री कीर्तिकुमार टोलिया के कठोर साधनामय जीवन और उसके असमय जीवन-समापन ज्ञानपंचमी 5 नवम्बर 1959 के तुरन्त पश्चात् यह नाटक लिखा गया ।
लिखते समय बडी भारी अंतर्वेदना थी । क्रान्तिकार दिवंगत अनुज की अदम्य क्रान्ति - पीड़ा थी । उसने आद्यान्त बाह्यांतर संघर्षों से बीताये हुए जीवन, आदर्शों और अधूरे क्रान्तिस्वजों की प्रतिछाया थी । उसीके एवं स्वर्गीय महान शहीदों के अंतर्लोक में, अंतस्तल की गहराई में, पैठकर यह नाटक शब्दबद्ध हुआ, लिखा गया । लिखा क्या, अगम्य प्रेरणा से फूटता, प्रतिबिंबित, प्रतिध्वनित होता गया ! इतना ही नहीं, अंतस् में भरी हुई इस घनीभूत पीडा को मंचीय अभिव्यक्ति भी प्रदान करने यह तुरन्त ही स्वर्गीय अनुज की देहत्याग की धरती हैदराबाद - आंध्र के उस्मानिया विश्वविद्यालय में सामान्य प्राथमिक रुप में खेला भी गया, मंचन भी किया गर्या ।।
नाटक के कथनों एवं संवादो की दिलो - दिमाग पर फिर तो ऐसी धूम मची, सर पर ऐसी धून सवार रही कि बाद में वह शीघ्र ही अहमदाबाद, गुजरात के टाउनहोल में 1960 में एवं तत्पश्चात् पुनः हैदराबाद की धरती पर 1962 में, सोये हुए मुर्दो को जगाता हुआ, अपना विशाल प्रभाव बिछाता हुआ अनेक मंचो पर प्रस्तुत हुआ । कुल मिलाकर तब 12 (बारह) सफल प्रयोग संपन्न हुए।
इस नाटक में स्वर्गीय क्रान्तिकार अनुज के अनूठे क्रान्त-संक्रान्त जीवन का इंगित इतिहास है, जो उसकी गहराई से पठनीय जीवनी 'क्रान्तिकार कीर्तिकुमार' से वर्णित है । प्रारम्भ में हिंसक क्रान्ति का यह पुरस्कर्ता अंत में अहिंसक क्रान्ति में इतना तो अध्यान्वित हुआ कि उसने अपना अनुकरणीय देहत्याग भी अहिंसानिष्ठ ढंग से "मेरे देह में हिंसक औषधि की एक बूंद भी जाने न पाये ।" - का संकल्प स्वजनों से करवाकर किया । अहिंसा -प्रेम-करुणा के अंतिम संदेश प्रदाता इस नाटक का 'आमुख' लिखने के लिये मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र प्रा. गिरिजाशंकर शर्मा का मैं आभारी हुँ। अंत में यह नाटक दिशाहीन संभ्रान्त नवयुवकों को जीवन-क्रान्ति देनेवाला बने, यह अभ्यर्थना । ॐ शान्तिः । बेंगलोर, 21-2-2018
प्रतापकुमार टोलिया
परिचयात्मक आमुख जब मुर्दे भी जागते हैं ! सन् १९१९ का खूनी दिवस !
पाशविक शक्ति के प्रतीक तथा साम्राज्य लिप्सा में चूर मानव रूपी दानवों की क्रूरतम हिंसा का नंगा नाच । निहत्थे भारतीय, स्त्री, पुरुषों तथा बच्चों को जिस दिन गोरे डायर की गोलियों का आलिंगन करना पड़ा । जिस दिन हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी आदि सारी भारतीय जातियों का गरम खून एक जगह पर जमा हो कर भारत की ऐकता का पुंजीभूत प्रतीक बन गया । सबके दिलों में एक ऐसी ज्योति जल उठी जिसने उनकी निराशा को क्रोध में बदल दिया । सबका एक ही लक्ष्य था - उस जालिम विदेशी को अपनी जन्मभूमि से निकाल फैकना, उस पाशविक शक्ति को भारत से समाप्त करना जो व्यापारियों के रूप में आयी और शासक बन बैठी। सन् १९१९ की तेरहवीं अप्रैल !
जर्जर तथा निरीह भारतीयों में जिस दिन साहस तथा आशा का प्रबल संचार हुआ, जिस दिन उनके हृदय में जलती हुई चेतना की मशाल ने ज्वलन्त रूप ग्रहण किया तथा एक दिन विदेशी आक्रमकों की राज्य-लोलुपता को भस्मीभूत कर दिया । भारतमाता की गुलामी की जंजीरें झनझना कर ट्टने लगीं । भारतमाता की हथकड़ी की कड़ियों को तोड़ने का जितना श्रेय पवित्रात्मा बापू की अहिंसा को है, उतना ही उन वीर पुरुषों के दिलों में जल रही उस आग को भी है जिसके कारण उन्होंने हँसते-हँसते फाँसी की रस्सी को पुष्पमाला समझ कर अपने हाथों गले में पहन लिया तथा बन्दूकों की गोलियों को स्वतन्त्रता-देवी की पूजा के फूल समझ कर अपनी छातियों पर झेला । स्व. सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद प्रभृति वीरों को हम भारतवासी भूल-से गये हैं, और शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो भारत के स्वातंत्र्य-यज्ञ का उल्लेख करते समय, स्टेज पर भाषण देते समय इन महान वीरों का तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम लेता हो ।
"दिन खून के हमारे यारों ! न भूल जाना ।"
- यह उन्हीं वीरों में से एक ने कहा था और हम उनके महान बलिदानों को भूल गये हैं - उन व्यक्तियों के बलिदानों को, जिन्होंने हमें खुश रखने के लिए दुखों को गले लगाया तथा इस लोक से प्रयाण करते समय न जाने कितनी हसरतें दिलों में ले कर चले गये, वह हसरतें जो कि आशीर्वाद के रूप में हमें इन शब्दों में प्राप्त हुई -
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