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2nd Proor. Ut. 10.6.18
2nd Proor. Ut. 15.6.18 निहालसिंह : रोको..... जल्दी करो..... हरी अप.. हरी अप । धीरेन : क्यों क्या बात है? सरदार : किसी गद्दार ने सी.आइ.डी. को हमारे रेडियो स्टेशन की इत्तिला दे दी है और अब वह यहां छापा लगाने आ ही रही है। जल्दी कीजिये, ट्रान्समीटर रिसीवर ठाकर भाग निकलें। क्रान्ति : मगर यह पता चला कैसे? सरदार : (भागते हुए) अब कुछ सोचने का वक्त नहीं है दीदी, जल्दी करें । भाग निकलें। सी.आइ.डी. रमेश : सब बदमाश नौ दो ग्यारह हो गये। सी.आइ.डी. नवल : सुनो तो किसी के आने की आवाज़ । ज़रा यहाँ छिप जायें। देवीप्रसाद : (प्रवेश) अरे, कोई है यहाँ ? सरदार भैया.... क्रान्ति दीदी..( अचानक गोली झेलते हुए) ओ माँ ! यह क्या ? 'यह सर जावे तो जावे, पर आज़ादी घर आवे' (घायल होकर भी गाते हुए) धीरेन : अरे प्रसादजी, आख़िर वही हुआ जिसका अंदेशा था । देवीप्रसाद : (मरते हुए) "धीरेन भैया, खून का बदला खून से नहीं, प्रेम से लेना है। वैरियों से भी प्रेम.... प्रेम । .... मेरे शरीर को जलियान बाग के शहीदों के चरणों में ही जलाना । बेटा योगेन....! बेटी सरला...!! मेरी अंतिमयात्रा के समय तुम दोनों पास नहीं, लेकिन चिन्ता नहीं, मरने के बाद भी मैं सदा ही तुम्हारे साथ रहूँगा, तुम्हारे काम के साथ रहूँगा, भारत माता की जय ।" (प्राणत्याग) (करुणवाद्य) .
तोसर दृश्य
(१९४२ और १९४७ के बाद १९६१ में) प्रवक्ता : ऐसे अनेक बलिदानों के कारण सदियों की गुलामी की हाए से भरा हुआ भारत का गुलशन महक उठा - आज़ादी की खुशबू से । गिरे हुए, पिछड़े हुए, दासता में जकड़े हुए दरिद्रनारायण इस आजादी के आगमन से जाग उठे और आज़ादी के गान तथा मस्ती की तानों के साथ, रामराज्य के सुखों की ठान लिये वे दिन काटने लगे।
फिर तो भारत के प्रजाजनों ने उन शहीदों की समाधियों और कबरों पर फूल चढ़ाकर उनका बहुमान करना शुरू किया। गान. अकेला स्वर :
"शहीदों की चिताओं पर, जुड़ेंगे हर बरस मेले ।
वतन पर मिटनेवालों का, यही बाकी निशाँ होगा।" प्रवक्ता : यह वही जलियानवाला बाग है १९६१ अप्रैल की १३ तारीख: शहीद दिन । लोगों का आज यहाँ मेला लगा है शहीदों की पूजा करने, लेकिन शहीद देवीप्रसाद का एक दुःखी देशभक्त पुत्र योगेन दूर खड़ा कुछ और सोच रहा है। योगेन ( अत्यन्त व्यथापूर्वक): शहीदों की समाधि पर इस देश के लोग फूल चढ़ाने आते हैं, लेकिन शहीद पिताजी के इस कोट पर किसी ने मेरी मरती हुई माँ की दवाई के लिये एक रुपया उधार तक नहीं दिया । न मेरे पिता की शहादत की ओर देखा, न मेरी मित्रता और सेवा की ओर .... माँ घर पर तड़प रही होगी... मगर अब घर भी किस मुँह को लेकर जाऊँ।
(गहन अंतर्वेदना और स्मृति-संवेदना सह) “वही भूमि...! वही पेड़...!! वही दीवारें...!!! यहाँ चली होंगी गोलियाँ और यहीं सो गये होंगे सब वीर.....!!
ओह !.... शायद यहीं सोये सरदार करणसिंह - सर पर कफ़न बाँधकर निकलनेवाले, हँसते हँसते, फूल समझकर गोलियाँ खानेवाले....! हाँ, यहीं यहीं । और यही है पिताजी की समाधि.... ! कितना बड़ा बलिदान इनका ! कितना बड़ा अहेसान ! और हम?
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