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2na Proor. DL 15.8.18 दीदी : यह क्या बक रहा है योगेन ? कौन पंछी ? कौन बापू ? और कैसा पत्र ? सपना देख रखा है क्या? उठ जल्दी, तेरा काम है। योगेन : पंछी... पंछी....!! अरे दीदी ! तू यहाँ ? मेरा पंछी कहाँ गया ? दीदी : कैसा पंछी ? योगेन : वह.... वह बापू का पंछी जो अभी मेरे सर पर बैठा था। दीदी : यहाँ तो कोइ पंछी-बंछी नहीं है, मैं हूँ मैं तेरी बहन, योगेन ! चल होश में
आ! योगेन : तो क्या सपना ही था वह ? दीदी : ( वेदना सह) ह.... पहले तो यह बता कि तू कल सारा दिन और रात कहाँ भटकता रहा? घर क्यों नहीं आया ? योगेन : (व्यथा सह) आऊँ भी तो कैसे ? उधार तो क्या, पिताजी के इस कोट पर भी किसी ने एक पैसा तक नहीं दिया। फिर मेरी उस अप्लीकेशन के सिलसिले में एम्प्लायमेन्ट एक्सचेन्ज पर भी गया, लेकिन पता चला कि मुज़े चुना नहीं गया, दीदी ! दीदी : क्यों ? मौकरी तो तुझे मिलनेवाली ही थी- नम्बर भी सबसे अधिक तेरे थे और समाज का कार्य भी लगातार तूने ही किया है....! योगेन : (कटाक्ष से) बड़ी भोली हो तुम दीदी ! यहाँ ज्ञान की और कार्य की कोई कीमत नहीं । इस देश में नौकरी उनको मिलती है जो अक्सर बाबुओं को घूस और रिश्वत दे सकते हैं !!! इस देश में नौकरी उनको मिलती है जो भरचक झूठ बोल सकते हैं। दूसरों की वहाँ दाल तक नहीं गल पाती, दीदी दाल नहीं गल पाती। दीदी : कोई हर्ज नहीं योगेन ! ऐसी नौकरी नहीं मिली यही अच्छा हुआ । लेकिन - योगेन ! हाँ, तुम ठीक कहती हो दीदी, बिल्कुल ठीक । हम जैसे हिन्दुस्तान के नौजवान नौकरी के पीछे ही पागल बनकर दौड़ते हैं । सभी को 'बाबू' बनना है।
भारत के युवा की कीमत भी क्या है ? सिर्फ साठ रुपये का गुलाम !
नहीं दीदी; नहीं, मैं कभी ऐसा गुलाम नहीं बनूंगा, कभी नौकरी नहीं करूंगा...... कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाऊंगा.....
2na rroor. L. 1.6.18 (पाश्वगीत : "माँगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख। । मांगने से मरना भला, है सतगुरु की सीख ॥")
-कबीर
(कुत्ते के रोने की ध्वनि) योगेन : दीदी ! माँ की सेहत कैसी है ? मैं तो.... अरे दीदी तू रोती है ? क्या बात है ? क्या हुआ दीदी ! बोल, क्या हुआ है ? दीदी : (महा व्यथा से) और क्या होता ? वही...... योगेन : क्या, माँ चली गई ? चली गई ? अब तक तू बोली क्यों नहीं ? नहीं, नहीं, यह हो नहीं सकता। मां मर नहीं सकती । दीदी, तू झूठ बोलती है, सच बता (कुत्ते का रोना, अट्टहास्य) योगेन : मगर दीदी, इतनी जल्दी यह कैसे हो गया ? कुछ समझ में नहीं आता। (दर्द से ) खैर, गई माँ । पर दीदी, तूने उसे थोड़ी देर रोका भी नहीं ? कम से कम मैं उसे मिल तो सकता । उसकी कुछ... दीदी : (व्यथा से) माँ भी तुझे मिलने के लिये कितनी तड़पती रही, लेकिन तू नहीं आया । और फिर भगवान के घर के बुलावे को कौन रोक सकता है भैया ? योगेन : घर लौटने की मेरी छटपटाहट भी कोई कम न थी दीदी, मगर किस मुंह को लेकर लौटता । इसे (कोट दिखाकर) लेकर मैं दर दर भटकता रहा, लेकिन ये साहूकार, ये पूंजीपति, ये मित्र, ये स्वार्थी लोग; किसी ने मरती हुई मां की दवाई के लिये फूटी कौड़ी भी नहीं दी । "दिल की तमन्ना..." फिर मैं यहीं पड़ा रहा - पिताजी और इन शहीदों की समाधियों के बीच; यह सोचकर कि यही एक ठौर है मेरे लिये, शायद यहीं से कोई मार्ग मिल जाय, मगर इतने में तो..... पाश्वगीत :
"दो दिन का जग में मेला, सब चला चली. का खेला । कोई चला गया कोई जावे, कोई गठरी बांध सिधावे... दो दिन का जग में..." योगेन : 'दो दिन का जग में मेला । आख़िर सभी को चलना है, इसी मिट्टी में जाकर मिलना है। यहाँ कोई भेद नहीं रहता दीदी, कोई भेद नहीं रहता । भेद तो है उन दुनिया वालों के पास ! यहाँ तो सब बराबर, सब समान .....(गंभीर व्यथा)
"लाखों मुफलिस हो गये, लाखों तवंगर हो गये, मिल गये मिट्टी में जब, दोनों बराबर हो गये।" ।